फ़रवरी 6 ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, जिन्हें सरहदी गाँधी और बादशाह ख़ान के नाम से भी याद किया जाता है, की 131वीं जयंती थी। वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक अग्रणी नेता, दो क़ौमी सिद्धांत (जिस के अनुसार हर धार्मिक समुदाय अलग राष्ट्र होता है, इस लिए हिन्दू और मुसलमान भी दो अलग राष्ट्र हैं) और पाकिस्तान के विचार के प्रबल विरोधी थे। वे गांधीजी के एक सच्चे अनुयायी के तौर पर अहिंसा-सिद्धांत में पूरी तरह से विश्वास करते थे। उन्हें उत्तर-पश्चिमी-सरहदी प्रांत में वही सम्मान प्राप्त था जो पूरे देश में गांधीजी को था, इसी लिए वे सरहदी गांधी भी कहलाते थे।
देश के विभाजन के फ़ैसले के बाद उन्होंने सरहदी प्रान्त को पाकिस्तान में शामिल किए जाने का ज़बरदस्त विरोध किया लेकिन कामयाब नहीं हुए। इस का परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान बनने के बाद वहां जो भी सरकारें सत्ता में आईं (जिन्नाह के नेतृत्व वाली पहली सरकार समेत) उन्होंने ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान और उनके आंदोलन का भीषण दमन किया, उनके एक भाई की हत्या कर दी गयी और उनके साथियों में से अनेक मौत के घाट उतार दिए गए। उन्हें और उनके साथियों को हिन्दू
जिस वक़्त पाकिस्तान का जन्म हुआ उस समय सरहदी सूबे में सरहदी गाँधी के बड़े भाई, डॉ. ख़ान साहब के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी जिसे जिन्नाह ने अगस्त 22, 1947 को, पाकिस्तान के अस्तित्व में आए केवल 8 दिनों बाद, तमाम प्रजातान्त्रिक मर्यादाओं को ताक़ पर रखते है बर्ख़ास्त कर दिया। उस के बाद सरहदी गाँधी के अनुयायियों के जनसंहार ने इस्लामी राज्य पाकिस्तान में नया ख़ूनी इतिहास रचा, जिस को लगभग भुला दिया गया है।
पाकिस्तान में इस्लामी सरकारों ने सरहदी गांधी और उनके साथियों पर जो अत्याचार किए और उनकी विरासत को मलियामेट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी उस के वजह साफ़ है। वे द्विराष्ट्र के सिद्धांत जिस का नारा बुलंद करके पाकिस्तान की मांग की गयी थी और इसे हासिल किया गया था के ज़बरदस्त विरोधी थे। वे देश के बंटवारे से पहले और बाद में मुस्लिम लीग के रास्ते में एक मज़बूत चट्टान के तरह डटे रहे और बेमिसाल क़ुर्बानियां दीं। लेकिन हम ने उनके साथ जो किया वह पाकिस्तान से कहीं ज़्यादा शर्मनाक है।
हमारे देश में हुक्मरानों द्वारा सरहदी गांधी और उनकी विरासत की अनदेखी और अपमान की लम्बी सूची है और आरएसएस-भाजपा सरकारोँ के सत्तासीन होने के बाद तो हदें पार करती जा रही है। सरहदी गांधी को अपमानित करने की ताज़ातरीन घटना दिसम्बर 2020 अमल में लाई गयी जब दिल्ली से सटे हरयाणा के सब से बड़े नगर फ़रीदाबाद में बादशाह ख़ान अस्पताल का नाम बदल कर अटल बिहारी वाजपेयी अस्पताल कर दिया गया।
यह कुकर्म हरयाणा के मुख्य-मंत्री और आरएसएस के एक नामी सदस्य मोहन लाल खट्टर के आदेश पर किया गया।
यह अस्पताल आज़ादी के बाद बादशाह ख़ान के नाम पर इस लिए रखा गया था ताकि स्वतंत्रता संग्राम में उनके महान योगदान और क़ुर्बानियों को सम्मानित किया जा सके और बादशाह ख़ान को बताया जा सके कि आज़ाद भारत उनको भूला नहीं है। इस के निर्माण में उन हिन्दुओं और सिखों ने जो सरहदी सूबे से पलायन करके आए थे (देश में इन की सब से बड़ी तादाद फरीदाबाद में ही बसाई गयी थी) बड़े पैमाने पर आर्थिक और शारीरिक योगदान किया था। इस सहयोग के ज़रिए इन शरणार्थियों ने सरहदी गांधी का शुक्रिया अदा करना चाहा था कि किस तरह सरहदी गांधी और उन के संगठन ख़ुदाई ख़िदमतगार (ख़ुदा के सेवक) ने उनको विभाजन के दौरान मुसलमान हिंसक तत्वों से बचाया था। इस अस्पताल का उद्घाटन जून 5, 1951 को पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था और उस समय लगाई गयी तख़्ती के अनुसार:
“बादशाह ख़ान अस्पताल जो फरीदाबाद के लोगों ने अपने हाथों से बनाया अपने चहीते नेता ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान के नाम पर रखा है"।
95% मुसलमान बहुल प्रान्त में धर्मनिरपेक्ष आज़ादी आंदोलन
सरहदी गाँधी इस सच्चाई से भलीभांति परिचित थे कि सरहदी प्रान्त के आम लोगों (जो 95% से भी ज़्यादा मुसलमान थे) को साथ लिए बिना आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इस उद्देश्य से उन्होंने एक व्यापक जन संगठन, ख़ुदाई ख़िदमतगार खड़ा किया।
समकालीन दस्तावेज़ इस सच्चाई को रेखांकित करते हैं की देश प्रेमी और सामाजिक रूप से प्रगतिशील आंदोलनों में ख़ुदाई ख़िदमतगार सबसे आगे थे, जिसका नेतृत्व करिश्माई शख्सियत ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान कर रहे थे। इस के सदस्य कियोंकी लाल रंग के यूनिफॉर्म का इस्तेमाल करते थे इस लिए इस आंदोलन का उपनाम 'द रेड शर्ट्स' यानी लाल कमीज लोकप्रिय हो गया था। लाल रंग को चुनना इस तहरीक की वैचारिक पृष्ठभूमि को भी झलकाता था।
इनको पहली बार 1929 में लाहौर कांग्रेस में देखा गया और अँगरेज़ ख़ुफ़िया तंत्र के आंकड़ों के अनुसार इसके गठन के दो वर्षों के अंदर ही ख़ुदाई ख़िदमतगार के 2 लाख सदस्य बन चुके थे। ग़ुलामी के विरोध में क़ुरान से लिए गए उद्धरण राष्ट्रवादी स्वतंत्रता आंदोलन के लिए समर्थन हासिल करने वाले नारे बनाकर प्रस्तुत किए गए थे और विदेशी शासन से देश को मुक्त करने का संघर्ष इस तरह ख़ुदाई ख़िदमतगारों के लिए पवित्र युद्ध बन गया।
डब्ल्यूसी स्मिथ जो समकालीन मुसलमान राजनीति के सब से अहम विशेषज्ञ माने जाते हैं ने 1943 में कहा था कि "भारत का अन्य कोई वर्ग ख़ुदाई ख़िदमतगारों से अधिक समर्पित राष्ट्रवादी नहीं था।"
कांग्रेस से जुड़ना
ख़ुदाई ख़िदमतगारों ने सरहदी प्रान्त में हिन्दू-मुसलमान बंटवारे को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया। एक साझी आज़ादी के लड़ाई के उद्देश्य से खुद को हमेशा कांग्रेस के एक हिस्से के रूप में देखा और अपने क्षेत्र के मुसलमान अलगाववादियों की आलोचनाओं को रद्द करते हुए इस जुड़ाव को सही ठहराते हुए सरहदी गाँधी ने कहा,
"लोग मेरे खिलाफ अपने राष्ट्र को बेचकर कांग्रेस में शामिल होने की शिकायत करते हैं। कांग्रेस एक राष्ट्रीय ढांचा है और कोई हिंदू ढांचा नहीं है। कांग्रेस ब्रिटिश के खिलाफ काम करने वाली निकाय है। ब्रिटिश राष्ट्र, कांग्रेस और पठानों का दुश्मन है। इसीलिए मैं इसमें शामिल हुआ और ब्रिटिश से छुटकारे के लिए कांग्रेस के साथ साझा लक्ष्य तय किया।"
एक सर्व-समावेशी संयुक्त भारत और समाजवादी समाज की कल्पना
ख़ुदाई ख़िदमतगार जिस में हिन्दू और सिख भी अच्छी-ख़ासी तादाद में थे, ने जागीरदारी को ख़त्म करके भूमि-हीन किसानों के लिए भूमि वितरण की मांग के साथ एक समतामूलक समाज बनाने की ज़ोरदार मांग की और इस से कभी भी किनारा नहीं किया। सरहदी गाँधी एक समाजवादी समाज बनाना चाहते थे। इसके अलावा वे एक कटिबद्ध धर्मनिरपेक्षतावादी भी थे। वे एक सर्व-समावेशी संयुक्त भारत के लिए खड़े थे। सबके लिए स्वतंत्र भारत में उनका विश्वास केवल सैद्धांतिक स्तर पर ही नहीं था, बल्कि यह एक साझा स्वतंत्रता संघर्ष का परिणाम था।
"पंजाब जेल में उन्होंने हिंदुओं और सिखों के साथ दोस्ती की और उनके पवित्र ग्रंथों क्रमश: गीता और ग्रंथ साहेब का विशेष तौर पर अध्ययन किया।"
सरहदी गाँधी एक पठान बहुल प्रान्त के नेता होने के साथ-साथ समूचे देश के बारे में भी उतना ही सोचते थे, उनके अनुसार,
"सरहदी भारत की कई कहानियां दोहरे तथ्यों वाली कहानियां रही हैं–एक पठान की मुकम्मल वैयक्तिकता वाली और फिर भी एक समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शेष भारत से एकरूपता वाली। इसका पर्याप्त प्रमाण ख़ुदाई ख़िदमतगार आंदोलन में मिलता है, जो फ्रंटियर प्रॉविंस की मिट्टी से निकलता है और एक बड़े उप-महाद्वीप के बड़े स्वतंत्रता आंदोलन में जगह बना लेता है। इस संदर्भ में यह देखना महत्वपूर्ण है कि जहां पठान प्रचंड रूप से स्वतंत्रता प्रेमी है और किसी तरह की आधीनता को पसंद नहीं करते हैं, उनमें से अधिकांश लोग यह समझना शुरू कर रहे हैं कि उनकी स्वतंत्रता भारतीय स्वतंत्रता की अवधारणा के साथ अच्छी तरह समरस हो सकती है, और इसीलिए उन लोगों ने भारत को कई राज्यों में तोड़ने की योजना का समर्थन करने के बजाय, एक समान संघर्ष में अपने देशवासियों से हाथ मिलाया। उन्होंने यह जान लिया है कि भारत के विभाजन से आधुनिक विश्व में हर तरह से कमजोरी आएगी, जहां इसके किसी भी भाग के पास अपनी आजादी को संरक्षित रख पाने के लिए पर्याप्त संसाधन और शक्ति नहीं होगी।"
सरहदी गाँधी ने विभाजन को नहीं स्वीकारा
1947 के जून में जब कांग्रेस देश विभाजन के लिए सहमत हो गई, तब सरहदी गाँधी ने उसका प्रबल विरोध किया था।
"विभाजन और फ्रंटियर प्रॉविंस में जनमत संग्रह का निर्णय हाई कमान द्वारा बिना हमसे परामर्श किए लिया गया… सरदार पटेल और राजगोपालाचारी विभाजन के पक्ष में थे और हमारे प्रॉविंस में जनमत-संग्रह करा रहे थे। सरदार ने कहा कि बिना वजह परेशान हो रहा हूं। मौलाना आजाद मेरे पास बैठे थे। मेरी खिन्नता को देखते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि, 'आपको अब मुस्लिम लीग में शामिल हो जाना चाहिए।' इससे मुझे काफी दुख पहुंचा कि इतने वर्षों तक हम जिसके लिए खड़े रहे और हमने जो संघर्ष किया, उसे हमारे इन सहयात्रियों ने कितना कम समझा है।"
1947 के जून में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में सरहदी गाँधी ने गांधी जी को याद दिलाया,
"हम पख़्तून आपके साथ खड़े रहे और स्वतंत्रता पाने के लिए बड़े बलिदान भी दिए, लेकिन अब आपने हमें छोड़ दिया और भेड़ियों के हवाले कर दिया है।"
मुस्लिम- लीगी गुंडों का सीधा निशाना
सरहदी गाँधी, उन का अनुयायी ख़ुदाई ख़िदमतगार और उनके परिवार मुस्लिम लीग के गुंडों और आतंकवादियों के हाथों जो ज़ुल्म सहे उन का ब्यौरा देते हुए स्वयं सरहदी गांधी ने जुलाई 1947 में लिखा कि,
"मुस्लिम लीग के कार्यकर्ता रोजाना जुलूस निकालते हैं और अत्यंत आपत्तिजनक नारे लगाते हैं। वे हमें का़फिर कहते हैं और हमारे लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं। हूटिंग का मैं खुद भी एक बार शिकार हो चुका हूं...। इसके अलावा हमारे लिए एक और गंभीर मसला है, वो ये कि हमारे प्रांत में पंजाबियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो खुलेआम लोगों को हिंसा के लिए उकसाते हैं। इतना ही नहीं, वे सार्वजनिक बैठकों तक में जाने लगे हैं और कहने लगे हैं कि लाल शर्टधारी शीर्ष नेताओं को अब हटा दिया जाना चाहिए। वे खुले तौर पर ये भी कहते फिर रहे हैं कि पाकिस्तान की स्थापना के बाद जितने भी विश्वासघाती हैं, सभी को फांसी पर लटका दिया जाएगा।"
सरहदी गाँधी की बीवी के भतीजे अताउल्लाह खान, उनके सेवक और दोस्तों की मुस्लिम लीग वालों ने तब हत्या कर दी, जब इन्होंने NWF प्रांत के गांव की मस्जिद में हुई मुस्लिम लीग की बैठक में अतिवाद पर आपत्ति उठाई थी। लीग के एक बड़े नेता किरमान ख़ान को फायरिंग करने पर गिरफ्तार कर लिया गया।
सरहदी गाँधी की विरासत को भूलने का मतलब है पेशावर के क़िस्सा ख्वानी बाजार के जनसंहार और वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली की क़ुर्बानी को भी भूल जाना
सरहदी गाँधी, उनके संघर्ष, क़ुरबानियों और धर्म-निरपेक्ष विरासत को एक प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत द्वारा भुला दिया जान एक और वजह से बहुत दुखद ही नहीं शर्मनाक भी है। ऐसा करके हम देश की आज़ादी की जंग के एक बड़े जनसंहार को भी भुला देना चाहते हैं जो अप्रेल 23, 1930 को अंग्रेज़ी सेना द्वारा अमल में लाया गया था। यह था क़िस्सा ख्वानी बाज़ार क़त्ल-ए-आम (पेशावर का मशहूर क़िस्सा ख्वानी बज़ार जिसका शाब्दिक मतलब हे बाजार जहाँ क़िस्से सुनाए जाते हैं; दस्तना गोई का बाज़ार) और 1919 के जलियांवाला बाग़ के बाद अंग्रेज़ों द्वारा किया गया सब से बड़ा जनसंहार था। इस में 400 से भी ज़्यादा ख़ुदाई ख़िदमतगार जो एक शांतिपूर्वक धरने पर बैठे थे को बंदूकों और मशीनगन से मार दिया गया था।
सरहदी गाँधी और ख़ुदाई ख़िदमतगारों को भुला दिए जाने का अर्थ देश की आज़ादी की लड़ाई में किए गए एक और हिन्दूओं-मुस्लमानों की साझी क़ुर्बानी पर भी परदा डालना होगा। इस जनसंहार को गोरे फौजियों ने अंजाम दिया था लेकिन इस से पहले एक अभूतपूर्व घटना घट चुकी थी।
गढ़वाल रियासत की सेना की एक टुकड़ी जो अँगरेज़ सेना के साथ (ट्रेनिंग के लिए आयी हुयी थी) घटना स्थल पर पहुँची थी। गढ़वाली टुकड़ी की कमान चन्द्र सिंह गढ़वाली के हाथ में थी। जब उन्हें गोली चलाने का हुक्म हुआ तो चन्द्र सिंह गढ़वाली ने अपनी टुकड़ी को यह हुक्म देने से मना कर दिया। इन्हें साथी फौजियों के साथ फ़ौरन हिरासत में ले लिया गया और फ़ौजी अदालत ने मौत की सज़ा सुनायी जिसे जनता के आक्रोश के चलते 14 वर्ष की क़ैद में बदल दिया गया।
हिन्दुत्ववादी टोली लगातार यह ज़हर उगलती रहती है कि आज़ादी से पहले के तमाम मुसलमानों ने मुस्लिम लीग का साथ दिया था। यह झूठ उपरोक्त ब्यान की गयीं सच्चाईयों के बावजूद बोला जाता है।
मौजूदा पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों को सरहदी गाँधी और ख़ुदाई ख़िदमतगार के देश की आज़ादी के लिए अंजाम दिए गए कारनामों, दमन और क़ुर्बानियों को जानना बहुत ज़रूरी है। इस सब को जानकर ही वे समझ पाएंगे की हमने बेदर्दी से जो इस प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक विरासत की अनदेखी की है उसी कारण हिन्दुत्ववादी शासक, जो पाकिस्तान के इस्लामी शासकों का ही एक प्रतिरूप हैं आज एक प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत पर राज करने लायक़ हुए हैं। अगर इसको चुनौती देनी है तो हमें लगन के साथ सरहदी गाँधी और ख़ुदाई ख़िदमतगारों की महान विरासत को फिर से जीना होगा।
शम्सुल इस्लाम
15-02-2021