प्रकृति में कई प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) हैं, जिनकी अपनी-अपनी जैव-विविधता (Biodiversity) के कारण एक विशिष्ट पहचान होती है। एक ऐसा ही पारिस्थितिकी तंत्र जो न केवल शुष्क होता है बल्कि उसमें वर्षा जल व आर्द्रता का भी अभाव होता है। दिन में इसका तापमान 52 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर व रात्रि को शून्य से नीचे हो सकता है। ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र मरुभूमि (रेगिस्तान) का होता है जो भारत के उतर-पश्चिम भू भाग में स्थित है जो विश्व में 'भारतीय थार-मरुस्थल' (Indian Thar-Desert) नाम से जाना जाता है। इसमें दूर-दूर तक सिर्फ रेतीले टीले ही नजर आते हैं जिनमें कहीं-कहीं मध्यम ऊंचाई की झाड़ियां और वृक्ष भी उगे होते हैं। इसका ज्यादातर फैलाव राजस्थान के पश्चिमी जिलों में है। लेकिन हरियाणा, पंजाब व गुजरात के कुछ हिस्सों में भी ये रेतीले टीले देखने को मिलते हैं।
मरुभूमि कितनी भी बेरहम व कठिन क्यों न हो फिर भी इसमें जीवन पल्लवित होता है जो अनोखा भी है और कमाल का भी। इसमें कई तरह की जैव-विविधताएं चाहे जीव-जंतु की हो या फिर वनस्पति की, वो आज भी इसलिए जीवित है क्योंकि इन्होंने जैव-विकास के दौरान इस कठिन माहौल के अनुरूप अपने आपको ढालकर विकसित किया है। इसके लिए इनको अपनी आनुवंशकीय बदलने की जरूरत पड़ी तो वह भी बदल दी। इस मरुभूमि में एक ऐसा ही रोबदार स्याहगोश नाम { Caracal (स्याहगोश) } का वन्यजीव भी है जो डार्विन के 'योग्यतम की उतर्जिविता के तर्ज पर अपने आपको विकसित किया है जो अद्भुत है। कभी यहां इसकी आबादी बहुतायत में थी लेकिन आज यह अपने अस्तित्व (वंश) को बचाने में जद्दोजहद कर रही है।
स्याहगोश प्राणी-जगत
स्याहगोश परभक्षी व निशाचर स्तनधारी जीव है जो अक्सर घास के मैदानों, छोटी-छोटी झाड़ियों, मध्यम ऊंचाई के पेड़ों वाले खुले क्षेत्रों व पठारों में छिपकर रहता है। ये पेड़ों पर चढ़ने में भी माहिर होते हैं। यह पक्षियों को छलांग लगा के मारता है। परंतु चूहों, खरगोश, हिरण, भेड़-बकरियों को घात लगाकर शिकार करता हैं। आक्रामक स्वभाव का होने से बड़े परभक्षियों के अलावा यह किसी पर भी हमला कर सकता है। हमले के पूर्व यह आंखों में आंखें डाल कर देखता है। छोटी बिल्लियों में ये सबसे तेज व कुशल धावक होते हैं। इनकी अधिकतम आयु 19 वर्ष की होती हैं।
अफ्रीकी मूल का यह रेगिस्तानी प्राणी अफ्रीका के अलावा दक्षिण-पश्चिमी एशिया, मध्य-पूर्वी, पाकिस्तान व भारत में भी बसर करता है। इनमें नर तुलनात्मक रोबदार, आकर्षक, फुर्तीला, कद-काठी में बड़ा व जबरा होता हैं। इन जीवों की ऊंचाई 40 से 45 सेंटीमीटर और लंबाई 70 से 105 सेंटीमीटर के बीच होती है तथा वजन 11 से 20 किलोग्राम तक होता है। इनके कान बड़े होते हैं जिनके शीर्ष पर लंबे काले बालों का एक गुच्छा होता है। कई बार इनको पहचानने में एकाएक धोखा हो जाता है। क्योंकि लिंक्स नाम के बिलाव (फेलिस लिंक्स ) के कानों पर भी ऐसा ही काले बालों का गुच्छा होता है। परंतु इसके शरीर पर गहरे काले धब्बे व आड़ी धारियां, गले में लम्बे बालों का आयाल व काले सिरे वाली छोटी सी ठूंठ पूंछ होने से यह पहचान में आ जाते हैं।
सामान्यतया ये बिल्लियां अपना इलाका बना के एकाकी जीवन जीती हैं। लेकिन प्रजनन के समय ये जोड़े बनाते हैं। प्रणय अथवा मिलन हेतु पहले मादा पहल करती है। इस हेतु नर को आमंत्रित करने की लिए ये अपने इलाके की झाड़ियों पर जगह-जगह अपने मूत्र का छिड़काव करती है। नर इसमें मौजूद फिरामोन रसायन की गंध को सूंघते हुए प्रणय को तैयार मादा के पास पहुंच जाता है। मादा प्रणय के लिए इसे बार-बार उत्साहित कर दिन में ये कई बार तीन से चार मिनट संसर्ग करते हैं।
मद चक्र (एस्ट्रस साइकिल) लंबा होने से मादा एक से अधिक नरों से मिलन करती है। यह बहुपतित्व (पोलिएंड्रस) होती है। साल में कई बार इनमें प्रजनन होता है। मादा लगभग तीन माह में दो से चार बच्चे को जन्म देती है जिन्हें यह अन्य वन्यजीवों की बनाई रिक्त पड़ी मांद में पालती व सुरक्षित रखती है।
चूंकि ये जीव छुप कर रहते हैं इसलिए इनके प्रजनन संबंधित जानकारियां आधी-अधूरी है। काराकल रेतीले मरुस्थल के लिए ही ढला और बना है।
सूर्य की तेज किरणों व गर्मी से बचने के लिए इसका शरीर पतला व पैर, गर्दन, पूंछ और कान लम्बे तथा सिर छोटा होता है। इसकी पीठ पर चिकने घने लाल या रेतीले रंग के बाल व पेट पर सफेद बाल होने से इसके शरीर का तापक्रम स्थिर रहता है। आंखों में रेत व तेज किरणें न जाएं इस हेतु इनकी आंखों की ऊपरी पलक मोटी व उभरी हुई होती है।
तपती रेत पर चलने के लिए इसके पांवों के चिमड़ा पेड़ पर मुलायम बालों के बीच कठोर बाल उगे होते हैं। इसके पीछे के पैर लम्बे तथा मजबूत हड्डियों व लचीली मांसपेशियां युक्त होते हैं। वही इसके पांव के चिमड़ा पेड़ चौड़े होने से यह रेत में दौड़ व छलांग लगा सकता है। चूंकि ये शिकारी जीव है इसलिए इनमें देखने और सुनने की अद्भुत क्षमता होती है। इनकी आंखें सामने होने से ये दूरबीन की भांति काम करती हैं तथा लम्बे कान एंटिना व रडार की तरह काम करने से शिकार का पता लगा लेता है।
इनके शरीर व परिवेश का रंग एक सा होने से ये परभक्षियों से बचे रहते हैं। वर्षा क्षेत्रों के अलावा ये किसी भी क्षेत्रों में यहां तक तीन हजार मीटर की ऊंचाई के क्षेत्रों में भी रह सकते हैं।
Caracal : facts and photos
यह बिल्ली हवा में 12 से 15 फीट ऊंची छलांग लगाकर परिंदों को झपटा मारकर शिकार कर लेता है। इसके शरीर की बनावट (अभियांत्रिकी) इतनी गजब की होती है कि ये शिकार के लिए न केवल हवा में पलक झपकते ही 12 से 15 फीट ऊंची छलांग लगा लेता है बल्कि चीते के तरह ही कुछ ही सेकण्डों में 80 कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार भी पकड़ लेता है। अन्य बिल्लियों की तरह ही यह अपने बचे हुए शिकार को जमीन में गाड़ कर या पेड़ों पर छिपा के रखता है।
यह कमाल का अकलमंद प्राणी है, लोग इसे प्रशिक्षित कर इससे शिकार करवाते हैं।
काराकल अस्सी दशक पूर्व राजस्थान के अलावा गुजरात, मध्यप्रदेश व उतरप्रदेश के शुष्क क्षेत्रों में बहुतायत में पाए जाते थे। इसे 20 वर्ष पूर्व अंतिम बार मध्यप्रदेश के पन्ना नेशनल पार्क में देखा गया था। सरिस्का व रणथम्बोर टाइगर रिजर्व में हाल में इसके होने की पुष्टि हुई है। लेकिन मरुभूमि में यह कभी-कभी ही देखने को मिलता है वहीं अन्य राज्यों से तो यह लगभग विलुप्त हो चुका है।
ताजा जानकारी के अनुसार काराकल व चूहों की कई प्रजातियां राजस्थान की मरुभूमि से अरावली की पहाड़ियों की ओर विस्थापित होने लगी हैं जो और चिंताजनक है। इसकी प्रमुख वजह मरुभूमि में कृषिभूमि के अत्यधिक विस्तार से इनके प्राकृतिक आवास हर साल उजड़ते जा रहे हैं।
काराकल के विलुप्त होने के कारण
जलवायु में परिवर्तन, ध्वनि एवं वायु प्रदूषण, बढ़ता शहरीकरण, मानव हस्तक्षेप, तस्करी हेतु इनका शिकार, भोजन की कमी, आवारा कुतों का आतंक इत्यादि काराकल के विलुप्त व विस्थापन होने के जिम्मेदार कारक हैं।
इसके अतिरिक्त कई प्रजाति के बड़े परभक्षी तेंदुए, बाघ, शेर, भेड़िये, आवारा कुत्ते भी इसे मार देते हैं। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय बाजार में इनकी खाल व मांस की अधिक मांग होने से तस्कर इनका चोरी-छिपे शिकार करवाते हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी एक लाख से भी अधिक कीमत आंकी गई है।
यह परभक्षी जीव फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले छोटे प्राणियों (रोडेन्ट्स) और पक्षियों की आबादी को नियंत्रित कर न केवल किसानों का मित्र है बल्कि पर्यावरण संतुलन में इसकी अहम् भूमिका भी है। इसके विलुप्त होने से मरुभूमि के पारिस्थितिकी तंत्र की विभिन्न भोजन श्रृंखलाएं एवं घटक बुरी तरह से प्रभावित होंगे जिससे जैव-विविधता पर भी गहरा असर पड़ेगा। बावजूद, इस वन्यजीव को चोरी छिपे मारा जाता है और बड़े पैमाने पर इसकी तस्करी होती है। यह बात और है कि इस जीव की वास्तविक सांख्यिकीय जानकारी भले ही उपलब्ध न हो परंतु वास्तविकता तो यही है कि बहुतायत से पाए जाने वाला इस वन्यजीव स्याहगोश की आबादी अब बहुत ही सिमट के रह गई है। यदि समय रहते इसके संरक्षण के शीघ्र जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो यह रोबदार वन्यजीव भी भारत से चीते की तरह ही सदा के लिए विलुप्त हो जाएगा। हमारी पीढ़ियां इनको सिर्फ तस्वीरों व किताबों में ही देख सकेगी।
'चूंकि ये वन्यजीव साल में तीन से चार बार प्रजनन करते हैं और हर बार में दो से चार बच्चे पैदा होते हैं। यदि इनका प्रजनन सुरक्षित एवं प्राकृतिक बंदी स्थानों में जहां प्रजनन संबंधित आधुनिक उपकरणों से सुसजित शोध प्रयोगशाला हो वहां वैज्ञानिकों की देखरेख में कराया जाने से इनकी आबादी में बढ़ोतरी की जा सकती है।
प्रयोगशाला में इनके अंडाणु व शुक्राणुओं को रक्षित व भंडारण करने से भी इन प्राणियों के संरक्षण में अपेक्षित मदद मिलती है। बंदी वंशवृद्धि (प्रजनन) एक बेहतरीन कारगर उपाय है जिससे विलुप्त हो रही प्रजातियों को बचाया जा सकता है।'
- डॉ. शांतिलाल चौबीसा
(लेखक एमेरिटस प्रोफेसर प्राणी शास्त्री, पर्यावरणविद् हैं)
नोट्स -
The caracal is a medium-sized wild cat native to Africa, the Middle East, Central Asia, and India. It is characterised by a robust build, long legs, a short face, long tufted ears, and long canine teeth. Its coat is uniformly reddish tan or sandy, while the ventral parts are lighter with small reddish markings. Wikipedia
Mass: 12 kg (Adult)
Scientific name: Caracal caracal
Length: 74 cm (Adult)
(देशबन्धु में प्रकाशित लेख का संपादित रूप साभार)