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जानिए कैसे मिले थे बिरसा मुंडा

जंगलों में रहने वाले लोगों के गीतों में मिले थे बिरसा मुंडा

सत्येन्द्र पीएस

बिहार के मुंगेर जिले में गिद्धौर राजपरिवार में जन्मे कुमार सुरेश सिंह 1958 में 23 साल की उम्र में जब आईएएस बने तो वह एक सामान्य प्रतिभाशाली युवा थे। जिलाधिकारी के रूप में उनकी पोस्टिंग आदिवासी बहुल इलाके में हुई। वह गांवों में जाते। आदिवासियों के लोकगीत सुनते तो गीत उन्हें बहुत लुभाते थे। वह आदिवासियों की भाषा नहीं समझ पाते, लेकिन उनके चेहरों को पढ़ने की कवायद करते थे। नाचते और गाते आदिवासी पुरुष व महिलाओं के चेहरों के भाव विभिन्न पंक्तियों के मुताबिक बदलते रहते थे। साथ ही उनकी आवाज कभी रुआंसी, कभी उत्साहजनक, कभी गुदगुदाने वाली लगती थी।

इन भावभंगिमाओं और आवाज के उतार चढ़ाव ने न सिर्फ युवा आईएएस को बहुत ज्यादा आकर्षित किया, बल्कि उन्हें आदिवासी अंचल की भाषा सीखने को मजबूत कर दिया। उन्होंने स्थानीय संथाली भाषा सीखी। उन्होंने पाया कि तमाम गीतों में बिरसा शब्द आ रहा है। कुछ गीतों में कई बार। उस शब्द को लेकर ही आवाज में उतार चढ़ाव और चेहरे के हाव भाव तय होते थे। गीतों में बिरसा ही था, जिसकी बहादुरी के किस्से कहे जा रहे थे। सुरेश सिंह को भी आदिवासी संस्कृति खींचने लगी थी। उनकी तलाश शुरू हो गई।

आदिवासियों के साथ कुमार सुरेश की बॉन्डिंग के बारे में उनको बचपन से जानने वाले साहित्कार उदय प्रकाश बताते हैं,

“आदिवासियों के साथ उन आदिवासी इलाकों के राजे रजवाड़ों की बॉन्डिंग बहुत पुरानी रही है। अभी भी तमाम देवी देवता, पूजा पद्धतियां कॉमन है। कुमार सुरेश के बाबा ने आदिवासियों के संघर्ष में उनका साथ दिया था, जिसकी वजह से उन्हें लंबे समय तक भूमिगत होना पड़ा था।“

आदिवासी संस्कृति का अध्ययन : द डस्ट- स्टॉर्म ऐंड द हैंगिंग मिस्ट

Study of Tribal Culture :

"The Dust - Storm and the Hanging Mist"

कुमार सुरेश ने करीब 1500 आदिवासी गीतों का संकलन किया। आदिवासी इलाकों की लोक कथाओं को सुनकर उन्हें दर्ज किया। आदिवासी संस्कृति के लंबे अध्ययन के बाद 1966 में उनकी किताब आई “द डस्ट- स्टॉर्म ऐंड द हैंगिंग मिस्ट”। इस किताब ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। उसके पहले स्वतंत्रता के पूर्व या स्वतंत्रता के बाद जितने लेखन हुए थे, उनमें आदिवासी नहीं थे।

इस किताब के आने के साथ भारत और दुनिया ने पहली बार यह जाना कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम या कहें कि अंग्रेजी शासन के शोषण के खिलाफ ब्राह्मण ठाकुरों के अलावा आदिवासियों ने भी जंग लड़ी थी। यह पूरी दुनिया के लिए किसी अचंभे से कम नहीं था कि भारत में एक समानांतर भारत बसता है, जिनके बारे में लिखा नहीं जाता। एक ऐसी आदिवासी संस्कृति है, जिसके तार विश्व की श्रेष्ठ नगरीय संस्कृति मानी जाने वाली हडप्पा सभ्यता तक जाती है।

हडप्पा संस्कृति से हुआ आदिवासियों का विस्थापन

Displacement of tribals from Harappan culture

कुमार सुरेश ने मोटिफ यानी प्रतीकों जैसे टैटू, त्योहारों में बनाए जाने वाले प्रतीकों से उन्होंने जानने की कोशिश की कि यह प्रतीक कहां से आए हैं। कौन कौन से प्रतीक कॉमन हैं और ये कहां से जुड़े हुए हैं।  इसी से उन्हें विस्थापन की जानकारी मिली। उन प्रतीकों में कुमार सुरेश ने पाया कि इन आदिवासियों का विस्थापन हडप्पा संस्कृति से हुआ है।

हाल ही में एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसमी बारिश न होने से सूखा पड़ गया, 4,000 साल पहले सिंधु सभ्यता को हिमालयी तलहटी के गांवों में शिफ्ट होने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस अध्ययन के निष्कर्ष कुमार सुरेश के “हडप्पा संस्कृति से आदिवासियों का विस्थापन” सिद्धांत की पुष्टि करते हैं।

कुमार सुरेश ने पहली बार असुरों की खोज की, जो अभी भी झारखंड में एक समुदाय है। पहली बार उन्होंने बताया कि असुरों को लोहे की जानकारी थी। उसके पहले यह परिकल्पना दी गई थी कि आर्य जब भारत में आए थे, तो उनके साथ लोहा आया था। लेकिन उन्होंने इस परिकल्पना को तथ्यों के आधार पर बदल दिया। उन्होंने साक्ष्यों के आधार पर बताया कि असुर और आदिवासी अभी भी धातु विज्ञान के बारे में खुद की मौलिक जानकारी रखते हैं।

बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन

Birsa Munda and his movement

1966 में आई “द डस्ट- स्टॉर्म ऐंड द हैंगिंग मिस्ट” में बिरसा मुंडा के संघर्षों, उनकी लड़ाई, आदिवासियों को उनसे और उनके संघर्षों से उम्मीदों के बारे में विस्तार से लिखा गया था। बाद में इस किताब को 2003 में हिंदी में वाणी प्रकाशन ने “बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन” नाम से छापा, जिसमें नागपुर इलाके में 1901 तक अंग्रेजों के खिलाफ मुंडा के संघर्ष का वर्णन है।

एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के महानिदेशक रहे कुमार सुरेश

Kumar Suresh, DG of Anthropological Survey of India

भारत में पहली बार ग्रियर्सन ने जातियों, धर्म, रहन सहन, रीति रिवाज का सर्वे कराया था। कुमार सुरेश जब 1984 में एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया के महानिदेशक बने तो उन्होंने पहली बार स्वतंत्रता के बाद मानव जातियों व उनके रहन सहन का सर्वे कराया, जो “पीपुल आफ इंडिया” नाम से करीब 35 खंडों में प्रकाशित हुआ। भोपाल का मानव संग्रहालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कुमार सुरेश की अहम परिकल्पना थी। कैंब्रिज युनिवर्सिटी ने कुमार सुरेश सिंह को बीसवीं शताब्दी का सबसे बड़ा बौद्धिक व्यक्ति घोषित किया। वहीं मृणाल सेन ने द ग्रेट सेवन संस ऑफ बंगाल में 7 महान हस्तियों में कुमार सुरेश को जगह दी है।

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