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इतिहास से सीखिए कुछ ! धर्म के आधार पर बना पाकिस्तान साल 1971 आते आते टूट गया था। पूर्वी पाकिस्तान बंगलादेश बन गया था।

हिन्दू धर्म के मानने वालों से अपेक्षाकृत अधिक एकरूपता 'एक अल्लाह' 'एक कुरान' और 'एक आखिरी पैगम्बर' तथा 'एक भाषा में एक जैसी प्रार्थना-पद्यति' के कारण पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान के बहुसंख्यकों में थी। लेकिन धार्मिकता राष्ट्र की एकता अखंडता नहीं बचा सकी।

कल संसद में देश के गृहमंत्री ने झूठ बोला कि पड़ोस के तीन देशों में गैर-मुसलमान ज्यादतियों के शिकार हुए हैं। बंगलाभाषी और बंग-संस्कृति के मुसलमान यदि भेदभाव के शिकार न होते तो क्या पाकिस्तान टूटता ?

खैर, हम भारत भी पाकिस्तान के साथ स्वतंत्र देश के रूप में 1947 में आये। उस दिन मुस्लिम बहुल कश्मीर हमसे अलग था और बाद में हमारी धर्मनिरपेक्षता के प्रति भरोसे के चलते वहां की जनता की पहल पर कश्मीर हमसे जुड़ा।

गोवा जो अंग्रेजों के नहीं पुर्तगालियों के कब्जे में था और जहां ज्यादातर गौमांस खाने वाले ईसाई हैं, कई साल बाद भारत में जुड़ा।

साल 1971 में ही सिक्किम भारत से जुड़ा जो ईसाई बहुल प्रान्त है।

इस तरह जब तक पाकिस्तान टूटा हमारा विस्तार हो गया था और यह विस्तार धर्मनिरपेक्षता के प्रति इन इलाकों के भरोसे से हुआ विस्तार था।

दुर्भाग्य से हम देश की सत्ता 2014 और 2019 में उन लोगों को दे बैठे हैं जिन्होंने 1947 के भारत विभाजन के लिए साम्प्रदायिक हिंसा और द्वेष का वातावरण मुस्लिम लीग के साथ मिलकर तैयार किया था।

भारत गणराज्य के गठन के बाद बेशक यत्र-तत्र साम्प्रदायिक हिंसा होती रही, धार्मिक भेदभाव की घटनाएं भी हुईं, राजकीय मशीनरी का कहीं-कहीं अल्पसंख्यकों के विरुद्ध

इस्तेमाल भी हुआ। लेकिन हमारा देश अपनी मुख्यधारा में सर्वधर्म समभाव और धर्मनिरपेक्षता का देश बना हुआ था।

मोदी- 2 के साथ ही दो बातें हुईं-

Madhuvan Dutt Chaturvedi मधुवन दत्त चतुर्वेदी, लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।
Madhuvan Dutt Chaturvedi मधुवन दत्त चतुर्वेदी, लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।

पहली तो ये कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार की असफलताएं (Modi government's failures on economic front), जो प्रचार तंत्र से ढकी गयीं थीं, उभरकर सामने आ गईं। दूसरी ये कि अमितशाह को गृहमंत्रालय सौंप कर सरकार ने साफ कर दिया कि इस कार्यकाल में उसका एजेंडा क्या है।

भारत विभाजन के समय की सामाजिक परिस्थितियां पुनः पैदा करने के लिए इस बार राज्यसत्ता अंग्रेजों से भी अधिक निर्लज्ज तरीके से काम कर रही है। इन्हीं परिस्थितियों से विभाजन की कई अलग शक्तियां उभरेंगी और अंततः शांति की चाह में फिर हम विभाजन (या विभाजनों ) को स्वीकारेंगे। लेकिन राजनैतिक फैसलों से अशांति पैदा कर शांति के मुकाम पर समझौतों तक के सफर में मानवता जो-जो चीजें खोएगी उनकी कहीं भरपाई न हो पाएगी।

मधुवन दत्त चतुर्वेदी

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