कोरोना से निजात पाने के लिए सबको एक अदद वैक्सीन की दरकार है। दुनिया को लग रहा है कि इससे वो सुरक्षित हो जाएगी। हांलाकि इसे पहले वैज्ञानिक स्तर पर जांचा परखा जाता है। फिर उसे जनता को उपलब्ध कराया जाता है। जिसमें कम समय के साथ लंबा वक्त भी लग सकता है। ऐसी ही स्थिति इस समय असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की है। उन्हें नहीं पता कि सरकार ने जो आर्थिक योजनाएं उनके लिए शुरू की हैं उससे उनको क्या हासिल होगा? क्या उनकी जिंदगी पुराने ढर्रे पर आ पाएगी? जो, पिछले चार माह से बेपटरी है। उनको आज बेहतर भविष्य की जगह कामचलाऊ रोजमर्रा जिंदगी की चिंता है। जिसमें दो वक्त की रोटी है। बच्चों की पढ़ाई है। बीमारों की दवाई है। ये वो जरूरतें है जिन्हें छोटा नहीं किया जा सकता। इनके बिना जीना दुश्वार ही नहीं नामुमकिन है।
दुनिया की तमाम आर्थिकी पर शोध और अध्ययन करने वाली संस्थाओं की राय भी इस पर स्थिर नहीं है। रोज, इनकी रिपोर्ट बीमारी की तरह ही बदल रही है। इस साल भारत की विकास दर को ये 1 से 2 प्रतिशत के आस पास बढ़ना बता रही थी। अब? इसके नकारात्मक होने की बात कही जा रही है। इसका सीधा असर अब दिखने भी लगा है।
1 अप्रैल से 15 मई के बीच हुए एक सर्वे के मुताबिक 24 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों में 55 फीसद परिवार ही दो जून की रोटी जुटा पाए। इस सर्वे में 119 जिलों के 5668 परिवार शामिल थे। इसे वर्ल्ड विजन एशिया पैसफिक (World Vision Asia Pacific,) नामक एक एनजीओ ने किया।
इस सर्वे में पाया गया कि 60 फीसद से अधिक कमाने वाले सदस्यों की रोजी एकदम से कोविड-19 के चलते चली गयी है या गंभीर रूप से संकटग्रस्त है। इसका सीधा और सबसे बड़ा असर दिहाड़ी मजदूरों सहित तमाम असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों पर पड़ा है। अध्ययन ने ये भी बताया है कि 67 फीसद लोगों के काम छूटने के चलते उन्हें दो वक्त की रोटी जुटाने में ही दिक्कत का सामना है। इसके चलते महज 60 फीसद ही स्वच्छता जैसे गंभीर मुद्दे पर ध्यान दे पाये। बाकी बचे 40 फीसद लोगों को ये मयस्सर नहीं हो पाया। ये एक गंभीर बात है। इसका सीधा असर कोविड-19 के प्रसार पर भी होगा। क्योंकि इस वाइरस के संक्रमण में सेनेटाइजेशन एक महत्वपूर्ण रोल अदा कर रहा है। जिसका असर दिखने लगा है।
कोविड-19 के मरीज सुदूर देहातों तक में मिलने लगे हैं। इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है। जब एक तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था तकरीबन 3.8 फीसद का राजकोषीय घाटा पहले से ही झेल रही है ऐसे में इस तरह की स्थिति सरकार को एक नई तरह की चुनौती पेश कर सकती है। क्योंकि सरकार के आय के स्रोत लगभग बंद है और खर्चे बढ़ रहे हैं। ऐसे में इसके चलते बढ़े खर्चे से सरकार को दिक्कत आनी तय है। इसके प्रसार को रोकने के लिए लॉकडाउन का सहारा भी उतना कारगर नहीं रहा जितना इसे प्रचारित किया गया।
कोरोना काल के ऊहापोह के चलते औद्योगिक उत्पादन बंद है या न के बराबर है। हर राज्य ने अपने यहां लौटे श्रमिकों के लिए रोजगार की व्यवस्था के लिए तमाम जरूरी उपाय किए हैं, जिसमें कुछ श्रमिकों को काम मिला है। बाकी, अब धीरे धीरे अपने छूटे कामों की तरफ वापस लौट रहे हैं। लेकिन यहां भी कई तरह की समस्याएं है। श्रमिकों को आने के बाद15 दिनों तक लगभग क्वारंटाइन रहना है। फिर जिस फैक्ट्री पर मजदूर को काम करना है वहां अभी कच्चे माल की आपूर्ति भी बुरी तरह प्रभावित है। पूरी क्षमता के अनुरूप उत्पादन नहीं हो पा रहा है। एक तो मांग भी बाजार में कम है दूसरे डीजल आदि के दाम बढ़े हैं जिससे लागत बढ़ रही है। हांलाकि अभी मंहगाई को विशेषज्ञ नियंत्रण में मान रहे हैं। फिर भी पहले से ही खाली चल रहे मजदूरों के हाथ में बिना कोई रकम आए खुदरा सामानों के दाम में तकरीबन 6 फीसद का इजाफा हो चुका है।
एनएसएसओ के पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18 के अनुसार इस क्षेत्र में कुल काम करने वालों में से 90 प्रतिशत लोग इसमें जुड़े हैं। सभी जानते हैं कि इनको सामाजिक सुरक्षा नहीं प्राप्त है। हालत इतनी बदतर हो गयी है कि छोटे छोटे दुकानों पर काम करने वाले, नाई, धोबी, लुहार , दर्जी, बुनकर पूरी तरह से पिछलें चार महीनों से बेकार बैठे है। पहले इनके मालिकों ने दरियादिली दिखाते हुए काम से नहीं निकाला। इनको आधी पगार भी दी। जून के बाद वो भी बंद हो गयी है। छोटे शहरों के दुकानदारों ने इन्हें जून का वेतन देते हुए कहा है कि अब वो नहीं आयेंगे जब जरूरत होगी तो उन्हें वो बुला लेंगें। इसका मतलब सीधा सा है जो आधी पगार भी उन्हें मिल रही थी वो भी चली गयी।
हालत ये हो गयी है कि सब्जी बेचना भी अब फायदे की जगह नुकसान का सौदा साबित हो रहा है। एक तो बरसात के चलते जहां सब्जियों के दाम बढ़े है वहीं बाजार में मांग के बावजूद खरीदार नहीं है। क्योंकि अब लोगों की क्रय शक्ति जबाब दे गयी है। हालात तो ये है कि गहनें बेचने वाले ज्यादा है, खरीदने वाले कम। सोने के बिचैलिए,खासकर ग्रामीण इलाकें में काफी सक्रिय है। जो गांव लौटे मजदूरों के छोटे मोटे गहनें मसलन चेन, अंगूठी, कील, नथिया औने पौने दाम पर खरीद कर मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। उन्हें पता है कि इनके पास अब कोई विकल्प नहीं है। इस असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों की हालत इतनी खराब है कि ये कोविड-19 के खतरें को जानते हुए भी जहां से पैदल चल कर गांव आये थे अब वापस ट्रेनों से लौटने पर मजबूर हैं। उन्हें लग रहा है वैक्सीन की तरह ही सही जिंदगी बचने की आस भी अब वहीं है जहां से वो जिंदा वापस हुए थे। शायद! वही आगे की भी जिंदगी बख्शें।
अफसोस बस ये है कि सरकारी प्रयासों से उतना लाभ नहीं मिला जितना इनको लाभप्रद बताया गया।
संजय दुबे