अव्यवस्थित लोकतंत्र और साहित्यिक पत्रकारिता: स्वतंत्र भारत में साहित्य का बदलता स्वरूप
यह लेख प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा स्वतंत्र भारत में साहित्यिक पत्रकारिता की यात्रा, संपादकीय विवेक, सत्ता-संबंध और लेखकों की स्वायत्तता के मुद्दों पर गहरा विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

स्वतंत्रता के बाद साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य
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- बुद्धिजीवियों में सत्ता-सुख का मोह और साहित्य की नई भूमिका
- संपादकीय विवेक का लोप और नियोजित साहित्य विमर्श
- साहित्यिक उत्पाद बनाम साहित्यिक उत्पादन
- लेखक की स्वायत्तता और रचना की स्वतंत्रता
- बुर्जुआ प्रभाव और वामपंथी पत्रकारिता की भूमिका
- दलित साहित्य, एक्टिविज्म और प्रतिक्रियावाद का खतरा
- साहित्यिक पत्रिकाओं की आर्थिक चुनौतियां और सरकारी उदासीनता
- प्रकाशन और वितरण की समस्याएं
- क्या हो नीति? साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए सरकारी मदद के सुझाव
- बड़ा बनाम छोटा: साहित्यिक संघर्ष की अंतर्दृष्टि
यह लेख प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा स्वतंत्र भारत में साहित्यिक पत्रकारिता की यात्रा, संपादकीय विवेक, सत्ता-संबंध और लेखकों की स्वायत्तता के मुद्दों पर गहरा विश्लेषण प्रस्तुत करता है। पढ़िए कि कैसे साहित्यिक पत्रिकाएं सृजन से अधिक सत्ता और प्रतिष्ठा का माध्यम बन गई हैं।
अव्यवस्थित लोकतंत्र और साहित्यिक पत्रकारिता - जगदीश्वर चतुर्वेदी
कैसा रहा स्वतंत्रता के बाद का साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य
आजादी के बाद का साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य तकरीबन इकसार रहा है। पहले भी पत्रिकाओं का प्रकाशन निजी पहल पर निर्भर करता था, आज भी यही दशा है, पहले भी साहित्यिक पत्रिकाएं निकलती और बंद होती थीं, यही सिलसिला आज भी जारी है। अनियतकालीन प्रकाशन इसकी नियति है। अधिकतर साहित्यिक पत्रिकाएं निजी अर्थव्यवस्था यानी संपादक के निजी निवेश पर निर्भर हैं, ये पत्रिकाएं संपादकीय जुनून का परिणाम हैं। साहित्यिक पत्रिकाएं साहित्य का माहौल बनाती हैं। हिन्दी में पत्रिकाएं मूलतः गुट विशेष का प्रकाशन हैं, वे गुट विशेष के लेखकों को छापती हैं।
बुद्धिजीवियों में सत्ता सुख का मोह
खासकर बुद्धिजीवीवर्ग में सन् 1970-71 के बाद सत्ता सुख का जो मोह पैदा हुआ, उसने अधिकांश बड़े लेखकों को सत्ता के करीब पहुँचा दिया और इसका यह परिणाम निकला कि साहित्य और साहित्यकार की नई भूमिका का उदय हुआ। साहित्य अब परिवर्तनकामी कम और सत्ताकामी ज्यादा हो गया। आपातकाल इसका क्लासिक नग्नतम उदाहरण है।
आपातकाल के बाद तो स्थितियां लगातार खराब ही हुई हैं। सत्ता के प्रतिष्ठानों के इर्दगिर्द साहित्यकारों को गोलबंद किया गया। कई व्यक्ति और संस्थान सत्ता के केन्द्र बनकर उभरे। इनके हस्तक्षेप के कारण साहित्य का स्वतंत्र विकास बाधित हुआ, साहित्यिक पत्रिकाएं मेनीपुलेशन और प्रमोशन का अस्त्र बन गयीं। चंद व्यक्ति महान बन गए, वे ही तय करने लगे कि कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है! इस अर्थ में 1970-71 के बाद क्रमशः साहित्य की अवनति हुई।
साहित्यिक विवेकवाद
आज हमारे बीच में साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, साहित्य भी है लेकिन संपादकीय विवेक नदारत है। विचारधारा है और उसके आधार पर धड़ेबंदी है,लेकिन साहित्यिक विवेकवाद गायब है। साहित्यिक पत्रिकाओं से संपादकीय विवेकवाद का नदारत होना बहुत बड़ी त्रासदी है।
नियोजित बहसें हैं, प्रमोशन के लिए आलोचनाएं हैं, मांग-पूर्ति के आधार पर लिखा साहित्य है, किताबें हैं। स्वयं नामवर सिंह कह चुके हैं कि ' मैं फरमाइशी लेखक हूँ'', वे यह भी रहस्य खोल चुके हैं कि उन्होंने ''कविता के नए प्रतिमान'' किताब को भारत भूषण अग्रवाल के कहने से साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए लिखा था।
साहित्य में इन दिनों लेखन के आधार पर छोटे-बड़े लेखक का फैसला नहीं हो रहा, बल्कि रुतबा, संपदा, ओहदा और सरकारी रसूख के आधार पर फैसले हो रहे हैं। लेखक की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण मूल्य नहीं है, लेखक के सत्ता संबंध बड़ा मूल्य हो गया है, इसने साहित्यिक पत्रिकाओं में नए किस्म के नियोजित साहित्य विमर्श को प्रतिष्ठित किया है। जिसकी सत्ता में साख है, वही बड़ा लेखक है। इसका परिणाम यह निकला कि लेखकों में सत्ता से जुड़ने की अंधी दौड़ शुरु हुई है। इसका सबसे बढ़िया केन्द्र बने अकादमिक संस्थान और लेखक संघ। इससे लेखक के कर्म और विचार में गहरी दरार पैदा हुई। लेखन का यथार्थ से संबंध खत्म हो गया। लेखन यानी शब्दों का उत्पादन इसका लक्ष्य है। आज लेखक है, साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, संपादक भी है, लेकिन साहित्य का सामाजिक असर नहीं है, लेखक की कोई सामाजिक साख नहीं है। लेखक ने अपने सत्तासुख के कारण सभी किस्म के विमर्शों को प्रशंसा और प्रमोशन में संकुचित कर दिया, 'विचार मंथन' को 'साहित्यिक इवेंट' में तब्दील कर दिया।
साहित्य उत्पादक या प्रकाशक -
हिन्दी में साहित्यिक पत्रकारिता (Literary journalism in Hindi) को अनेक लेखक प्रतिवादी पत्रकारिता मानते हैं, इस तरह की धारणा रखने वालों में सामान्य लेखक, दलित लेखक और स्त्री लेखिकाएं भी हैं। सामान्यतौर पर देखें तो हिन्दी का साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य वैविध्यपूर्ण है और इसमें विधागत समृद्धि भी है। इसका स्वैच्छिक पहलकदमी के आधार पर प्रकाशन होता रहा है।
साहित्य की राजनीति क्या है, गलत है यह सवाल
वाल्टर बेंजामिन के अनुसार प्रतिवादी या परिवर्तनकामी पत्रकारिता या साहित्य में अंतर्वस्तु महत्वपूर्ण नहीं है,महत्वपूर्ण है इसके उत्पादन की अवस्था। कई बार यह भी देखा गया है कि बेहतरीन क्रांतिकारी अंतर्वस्तु को श्रेष्ठतम –व्यावसायिक कला रूपों में पिरोकर पेश किया जाता है। इससे क्रांतिकारी कला का स्वरूप प्रभावित होता है। इसलिए यह सवाल नहीं करना चाहिए कि पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है ? या साहित्य की राजनीति क्या है, यह सवाल ही गलत है। सवाल यह होना चाहिए कला के उत्पादन की राजनीति क्या है ? ज्योंही इस सवाल पर विचार करेंगे सही रूप में प्रतिवादी संस्कृति को परिभाषित कर पाएंगे। बेंजामिन तर्क देते हैं कि सही अर्थ में प्रतिवादी संस्कृति उत्पादन की विशेषज्ञतापूर्ण प्रक्रिया का अतिक्रमण करती है। दूसरे शब्दों में प्रतिवादी संस्कृति कलाकार और दर्शक,निर्माता और उपभोक्ता के बीच की विभाजन रेखा को कम करती है। छोटे-बड़े या ऊँच-नीच, श्रेष्ठ और निकृष्ट के श्रम विभाजन को खत्म करती है। वह सबको सृजन के लिए प्रेरित करती है। हमें इस समूची बहस को प्रोडक्ट केन्द्रित न बनाकर प्रोडक्शन केन्द्रित बनाना चाहिए। वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी पत्रिका संपादक साहित्य का उत्पादक नहीं बन पाया,लेकिन प्रकाशक बन गया। वह प्रोडक्ट बनाता है।
लेखक की स्वायत्तता पहली बार कब नजर आई
आधुनिककाल आने के साथ छापे की मशीन आई, लेखक की स्वायत्तता को सार्वजनिक तौर पर वैधता मिली, निजता और सार्वजनिकता के बीच में नए किस्म का वर्गीकरण हुआ जो पुराने वर्गीकरण से भिन्न था। पुराने जमाने में लेखक के अंदर निजी-सार्वजनिक का घल्लुघारा था। लेखक की स्वायत्तता पहली बार नजर आई वह जो उचित समझे लिख सकता है, इस अनुभूति को उसने प्रत्यक्ष वैधरूप में लागू किया। पहली बार दो तथ्य सामने आए, इन दोनों तथ्यों की रोशनी में लेखन की परीक्षा होने लगी। पहला, लेखक का राजनीतिक नजरिया और दूसरा रचना की गुणवत्ता। लेखक के सही राजनीतिक नजरिए और साहित्यिक गुणवत्ता के बीच नए संबंध का जन्म हुआ। यह भी कहा गया कि राजनीति सही होगी तो अन्य चीजें भी दुरुस्त होंगी।
वाल्टर बेंजामिन का मानना है सामाजिक परिस्थितियां उत्पादन की अवस्था को तय करती हैं। और जब भौतिकवादी नजरिए से देखना आरंभ करते हैं तो विचार करते हैं कि सामाजिक संबंधों का तत्कालीन समय के साथ क्या संबंध था ? साहित्य के लिए यह महत्वपूर्ण सवाल है। बेंजामिन ने इसी प्रसंग में दो बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, पहला सवाल, साहित्य का अपने समय के उत्पादन संबंधों के साथ क्या संबंध है ? क्या वह उनको स्वीकार करता है ? क्या वह प्रतिक्रियावादी है ? अथवा उसका नजरिया परिवर्तनकामी है ? या वह क्रांतिकारी है ? इन सवालों पर विचार करने के पहले हम इस सवाल पर सोचें कि अपने समय के उत्पादन संबंधों के प्रति क्या एटीट्यूट है ? उनका नीतिगत नजरिया क्या है ? यह सवाल असल में सामयिक उत्पादन संबंधों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य की भूमिका के जुड़ा है। इसका प्रकारान्तर से ''तकनीक'' के सरोकारों से संबंध है।
बेंजामिन के अनुसार '' साहित्यिक तकनीक'' की अवधारणा के आधार पर देखेंगे तो पाएंगे कि साहित्यिक उत्पाद (प्रोडक्ट) सीधे सामाजिक या भौतिक मूल्यांकन के लिए उपलब्ध रहता है। साथ ही साहित्यिक तकनीक की अवधारणा के आधार द्वंद्वात्मक ढ़ंग से विवेचन को आरंभ किया जा सकता है। इसके जरिए साहित्य की रूप और अंतर्वस्तु की निरर्थक बहस से भी बचा जा सकता है। इसके अलावा प्रवृत्ति और गुणवत्ता के निर्धारकों की खोज की जा सकती है। बेंजामिन के अनुसार कृति की राजनीतिक प्रवृत्ति में साहित्यिक गुणवत्ता और साहित्य प्रवृत्ति शामिल है। साहित्य प्रवृत्ति में साहित्यिक तकनीक की प्रगति या प्रतिगामिता भी समाविष्ट है।
साहित्य के उत्पादन पर विचार करते समय इसकी अनिवार्य अवस्था पर भी सोचें। साहित्य किस तरह की अनिवार्य परिस्थितियों में पैदा हो रहा है। इससे लेखन की ठोस परिस्थितियों का पता चलेगा,यह भी पता चलेगा कि लेखक के पास व्यवहार में कितनी स्वायत्तता है। इस समूची प्रक्रिया पर नजर रखते हुए सही राजनीति और प्रगतिशील साहित्यिक तकनीक के अन्तस्संबंध को समझने में मदद मिलेगी। मसलन्, साहित्यिक पत्रिकाएं लेखक –पाठक को सूचित कर रही हैं, विवेचन पेश किया जा रहा है। लेखक परिस्थितियों में हस्तक्षेप कर रहा है या दर्शक मात्र है ? हिन्दी पत्रिकाओं में लिखने वाले अधिकांश लेखक रुढ़िबद्ध नजरिए और रुढ़िबद्ध शैली के शिकार हैं।
सवाल यह है कि क्या रुढ़िबद्ध लेखन के जरिए सामाजिक परिवर्तन संभव है ? इस तरह के लेखन का किस पर और कितना असर होता है ? इस तरह के लेखन ने लेखक और पाठ के बीच में अलगाव पैदा किया।
'एक्टविज्म ' या प्रतिगामिता -
साहित्यिक पत्रकारिता और खासकर वामपंथी साहित्यिक पत्रकारिता पर बुर्जुआ प्रेस के विकास का क्या असर हुआ है इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है। मुश्किल यह है कि वाम पत्रिकाएं हस्तक्षेप के औजार की तरह इस्तेमाल होती रही हैं, यही काम इन दिनों दलित पत्रिकाएं भी कर रही हैं। इन पत्रिकाओं में बुर्जुआ अवस्था के स्वाभाविक रुझानों और प्रवृत्तियों को लेकर कोई गंभीर विवेचन नजर नहीं आता। ये असल में 'एक्टिविज्म' की पत्रिकाएं हैं, इनकी सतह पर दिखने वाली राजनीतिक प्रवृत्ति क्रांतिकारी लगती है, लेकिन असल में वो प्रति-क्रांतिकारी भूमिका अदा करती है। मसलन्, दलित साहित्य पर हिन्दी पत्रिकाओं के अनेक विशेषांक आए हैं, तमाम दलित पत्रिकाएं छप रही हैं। इनकी समग्रता में क्या भूमिका उभरकर सामने आ रही है ? इनकी संस्कारगत सहानुभूति दलित के साथ है, लेकिन वे इसके आगे उसे देख ही नहीं पा रहे हैं। उनके पास दलितमुक्ति का कोई ब्लू-प्रिंट नहीं है। ये सभी पत्रिकाएं 'एक्टिविज्म' की केटेगरी में आती हैं। इनमें शाब्दिक जनतंत्र के सहारे दलित के प्रति सहानुभूति पैदा करने की कोशिश की जा रही है। इसी शब्दकेन्द्रिकता के सहारे ही बुद्धिजीवियों का समूचा तंत्र खड़ा है। वे 'एक्टिविज्म' के जरिए साहित्य की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं। बेंजामिन के शब्दों में कहें तो इस तरह के लेखन की अंतर्वस्तु सामूहिक है लेकिन रूप प्रतिक्रियावादी है। फलतः ऐसी रचनाओं का असर क्रांतिकारी नहीं हो सकता।
अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं और लेखकों में सामूहिकताबोध बार-बार व्यक्त हुआ है। लेकिन पत्रिकाएं व्यक्तिगत प्रयासों से ही निकल रही हैं, सामूहिक प्रयासों से निकलने वाली पत्रिकाएं नगण्य हैं। राजनीतिक हालात की पार्टी नीति के अनुरूप व्याख्याएं करना या सत्ताधारी वर्गों के द्वारा प्रक्षेपित मसलों पर लिखना, क्रांतिकारी काम नहीं है, बल्कि प्रति-क्रांतिकारी कार्य है।
कायदे से हमें कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य में रूपान्तरण की प्रक्रिया और रूपान्तरण के क्रांतिकारी उपकरणों का पता होना चाहिए। हमें उत्पादक एपरेट्स और रुपान्तरण के रूपों का ज्ञान होना चाहिए। हमें इस बात का पता रहना चाहिए कि बुर्जुआ एपरेटस में क्रांतिकारी कलाओं और साहित्य रूपों को आत्मसात करके रूपान्तरित करने की अद्भुत क्षमता होती। हम सोचें कि हमारे तमाम किस्म के क्रांतिकारी लेखकों- संगीतकारों आदि को फिल्मी दुनिया ने कैसे हजम कर लिया ? वाम लेखक मनोरंजन का साधन कैसे बन गया ?
राजनीतिक नजरिया
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (Hindi literary journalism) के प्रसंग में यह सवाल उठाया ही जा सकता है कि साहित्यिक पत्रिका का कोई राजनीतिक नजरिया है या नहीं, पत्रिका की राजनीतिक समझ के साथ उसमें प्रकाशित सामग्री का किस तरह का संबंध है ? सही राजनीति के तहत निकलने वाली पत्रिकाओं की गुणवत्ता और खराब राजनीति या राजनीतिविहीन नजरिए से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं के चरित्र में किस तरह का फर्क होता है।
हिन्दी में तीन तरह की पत्रिकाएं हैं। पहली कोटि में वे पत्रिकाएं आती हैं जिनका राजनीतिक नजरिया है, दूसरी कोटि में वे पत्रिकाएं आती हैं जिनका कोई राजनीतिक नजरिया नहीं है, जबकि तीसरी कोटि में वे पत्रिकाएं आती हैं जिनका तदर्थवादी राजनीतिक नजरिया है।
साहित्यिक पत्रिकाओं की कहानी उनके मालिक-संपादक के आर्थिक पहलु के बिना पूरी नहीं होती, हमारे यहां कभी यह ध्यान ही नहीं दिया गया कि पत्रिका का आर्थिक बोझ संपादक कैसे उठाता है ? पत्रिकाओं में संपादक के आर्थिक संकट के विस्तृत ब्यौरे गायब हैं। हमने स्वतंत्र तौर पर भी कभी संपादक की आर्थिक बर्बादी को पत्रिकाओं में विषयवस्तु नहीं बनाया। पत्रिकाओं की आर्थिक बर्बादी की न तो दलों को चिंता है और न सरकार को।
पत्रिकाओं के सर्कुलेशन का एक आयाम वितरण और डाक-व्यवस्था के मूल्य सिस्टम से जुड़ा है। सरकार ने कभी सोचा ही नहीं कि पोस्टल-चार्ज ज्यादा रहेगा तो साहित्य का सर्कुलेशन इससे प्रभावित हो सकता है। हमारे सांसदों, लेखकों और प्रकाशकों ने भी कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया।
साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन परिदृश्य की बुनियादी समस्या यह है कि संपादकों में अधिकतर पेशेवर नजरिया नहीं रखते। पेशेवर नजरिए के आधार पर पत्रिका का प्रकाशन नहीं करते। वे पूंजीवादी प्रकाशन प्रणाली के आदिम रूपों का इस्तेमाल करते हैं और आदिम वितरण प्रणाली पर निर्भर हैं। इसके कारण वे बड़े पैमाने पर अपना विकास नहीं कर पाए हैं। दुखद यह है कि साहित्यिक पत्रिका प्रकाशन की मददगार संरचनाएं समाज में एक सिरे से गायब हैं।
साहित्यिक पत्रिकाएं ज्यादा से ज्यादा फलें-फूलें इसके लिए जरूरी है कि उनको सरकारी विज्ञापन प्राथमिकता के आधार पर राज्य और केन्द्र सरकार दे। साथ ही पत्रिकाओं को मिलने वाले चंदे पर आयकर में राहत दी जाए। डीएवीपी और राज्य सरकारों के सरकारी विज्ञापनों के 25फीसदी विज्ञापन अनिवार्यतः साहित्यिक पत्रिकाओं को दिए जाएं। इसके अलावा विभिन्न मंत्रालयों से प्राथमिकता के आधार 25फीसदी विज्ञापन साहित्यिक पत्रिकाओं को दिए जाएं। पत्रिकाओं के पोस्टल वितरण के लिए सरल कानूनी व्यवस्था की जाए और पत्रिका वितरण को मुफ्त पोस्टल सुविधा दी जाए।
साहित्यिक पत्रिकाएं हमेशा से बड़े के खिलाफ छोटे की जंग रही हैं। बड़े कम्युनिकेशन या प्रतिष्ठानी कम्युनिकेशन और साहित्यिक कम्युनिकेशन के बीच में अंतर्विरोध रहा है, शासकवर्ग और साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच अंतर्विरोध रहा है। इस अंतर्विरोध को विस्तार देने की जरूरत है।