बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के बाद देश की सड़कों का खून से रंगे जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसकी घोषणा के दो तीन दिन बाद ही जब मजदूरों को यह इल्म हुआ कि सरकार ने उन्हें राम भरोसे छोड़ दिया है, उसके बाद तो दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, पुणे, नासिक, पंजाब और हरियाणा इत्यादि से लाखों की तादाद में नंगे-पांव, भूखे-प्यासे मजदूर अपने बीबी- बच्चों के साथ उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडिशा इत्यादि के सैकड़ों, हजारों किलोमीटर दूर अवस्थित अपने गाँवों के लिए पैदल ही निकल पड़े। इससे ऐसे-ऐसे मार्मिक दृश्यों की सृष्टि जिसकी 21वीं सदी के सभ्यतर युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती। बहुतों को ये दृश्य भारत-पाक विभाजन के विस्थापितों से भी कहीं ज्यादा कारुणिक लग रहे हैं।
ताज्जुब की बात है कि लॉकडाउन पूरी दुनिया में ही हुआ किन्तु, किसी भी देश, यहाँ तक कि भारत के पिछड़े प्रतिवेशी मुल्कों पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल इत्यादि में भी ऐसा दृश्य नहीं देखा गया।
भारत में सड़कों पर लॉन्ग मार्च करते मजदूरों की जो सैकड़ों, हजारों तस्वीरें वायरल हुई हैं, वे शायद वर्तमान पीढ़ी की स्मृति से कभी लोप नहीं होंगी। इस पर चर्चित दलित कवियत्री डॉ. पूनम तुषामड ने ठीक ही लिखा है- ‘विभाजन नहीं देखा मैंने केवल सुना, पढ़ा सुन, पढ़कर ही रूह कांप गयी। किन्तु.. पलायन देख रही हूँ इन आँखों से हर रोज, न केवल शहर से गाँव का बल्कि इन्सानों जीवन का दिलों से अहसास का। दिल दिन में बेबस सा घुटता है। और खौफजदा हो जाता है सोचकर। आने
बेबस मजदूरों का सड़कों पर उतरना मोदी सरकार को गंवारा नहीं हुआ। इसलिए चर्चित पत्रकार सत्येन्द्र पीएस के शब्दों में भारत की सड़कें जालियावालां बाग बन गयीं। पुलिस जगह –जगह उन्हें रोकने लगी। फिर तो पैदल चल रहे लोग पुलिस से बचने के लिए राष्ट्रीय राजमार्गों को छोडकर ऊबड़- खाबड़ सड़कों और रेल की पटरियों का सहारा लेने लगे। उसके बाद रोज-रोज कुछ न कुछ लोग दम भी तोड़ने लगे। कुछ भूख-प्यास से तो, कुछ दुर्घटनाओं से।
इस क्रम में 7 मई को महाराष्ट्र में रेल के पटरियों पर सो रहे 16 लोगों के माल गाड़ी से कटकर मर जाने की एक ऐसे घटना सामने आई, जिसे सुनकर पूरा देश हिल गया।
मानवता को शर्मसार करने वाली उस घटना से राष्ट्र को विराट आघात जरूर लगा पर, उम्मीद बंधी कि इससे सबक लेते हुए केंद्र और राज्य सरकारें मजदूरों के घर वापसी की उचित व्यवस्था करने के लिए युद्ध स्तर पर तत्पर होंगी। किन्तु, वैसा कुछ नहीं हुआ। सरकारें कोरी हमदर्दी जता कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लीं। उसके बाद तो पैदल या साईकल से घर वापसी का सिलसिला और तेज हो गया।
यह सिलसिला इसलिए भी और तेज हुआ क्योंकि जो श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलायी जा रही थीं, वह अपर्याप्त साबित हो रही थीं। उस पर भी समस्या यह थी कि इनमें टिकट पाने की प्रक्रिया मजदूरों के बूते के बाहर की बात थी। टिकट मिलना लॉटरी लगने जैसा था। ऐसे में किसी भी तरह घर पहुँचने की तत्परता और तेज हो गयी। ट्रेनों और सरकारी बसों में जगह पाने की उम्मीद छोड़ चुके ढेरों लोग दो-दो, चार-चार हजार रुपए देकर माल ढुलाई करने वाले ट्रकों में सवार होकर असुरक्षित तरीके से वापसी करने लगे।
ट्रकों में सफर कर रहे मजदूरों के साथ भी दुर्घटनाएँ सामने आने लगीं। इस सिलसिले में 16 मई की सुबह 3 बजे उत्तर प्रदेश के औरैया में हुई सड़क दुर्घटना ने 7 मई के बाद एक बार फिर राष्ट्र को हिलाकर रख दिया। उस दिन लखनऊ- इटावा हाइवे पर औरैया शहर से करीब छह किमी पहले मिहौली गाँव स्थित शिवजी ढाबे पर खड़ी मजदूरों से भरी एक डीसीएम को ट्राला ने पीछे से आकर जबर्दस्त टक्कर मारी। टक्कर के बाद चूने की बोरियों से भरा ट्राला और डीसीएम करीब 30 मीटर दूर जाकर सात फीट गहरे गड्डे में पलट गए। टक्कर से डीसीएम में सोये मजदूर नीचे जा गिरे और उनके ऊपर ट्राले में भरी चूने की बोरियां आ गिरीं। इससे 26 मजदूरों की मौत हो गयी, जबकि 42 बुरी तरह घायल हो गए।
मृतकों में तीन उत्तर प्रदेश, एक मध्य प्रदेश, चार बिहार, छह पश्चिम बंगाल, जबकि 12 झारखंड से रहे। ये मजदूर दो–दो हजार रुपए देकर उस डीसीएम में सवार हुए थे।
बहरहाल मजदूरों के दुर्भाग्य का यहीं अंत नहीं हुआ। औरैया हादसे के दूसरे दिन पोस्टमार्टम के बाद शवों को काली पोलिथिन में बांधकर बिना बर्फ और आवश्यक सुरक्षा के तीन डीसीएम में भरकर झारखंड के लिए रवाना कर दिया गया। इन्हीं शवों के बीच घायलों को बिठा दिया गया, बिना यह सोचे कि 27-28 घंटे पुराने शवों के बीच 40 डिग्री सेलसियस की गर्मी के बीच ये 800 किमी कि दूरी कैसे तय करेंगे।
लॉकडाउन की टाइमिंग को लेकर उठे सवाल
7 मई को महाराष्ट्र की रेल पटरियों के बाद 16 मई को उत्तर प्रदेश की सड़कों पर हुई इस घटना के बाद लोग मोदी सरकार के लॉकडाउन की टाइमिंग को लेकर आलोचना में फिर मुखर हो उठे। सबका कहना है कि लॉकडाउन था तो जरूरी पर, मजदूरों की सुरक्षित घर वापसी की व्यवस्था करने के बाद ही इसकी घोषणा करनी चाहिए थी। लॉकडाउन करने से पहले मजदूरों को कम से कम एक सप्ताह का समय घर पहुँचने के लिए देना चाहिए था। उसके लिए विशेष बस और ट्रेनें चलाई जानी चाहिए थी। अगर लॉकडाउन के पहले मजदूरों के घर वापसी की व्यवस्था कर दी गयी होती तो कोरोना के फैलने की उतनी संभावना भी नहीं रहती, जितनी अब हो गयी है।
बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी के लॉकडाउन के फैसले की जो कीमत भारत के श्रमिक वर्ग को अदा करनी पड़ी है, वह एक शब्द में अभूतपूर्व है, जिसकी मिसाल आधुनिक विश्व में मिलनी मुश्किल है। उनके इस फैसले को ढेरों लोग नोटबंदी की भांति ही तुगलकी फैसला करारा दे रहे हैं। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि लॉकडाउन का फैसला तुगलकी था या सुपरिकल्पित ?
क्या यह तुगलकी फैसला था !
इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले तुगलकी फैसले का अर्थ समझ लिया जाय। बिना सोचे- समझे व बिना सलाह लिए शासकों द्वारा लिए गए ऐसे फैसलों को तुगलकी फैसला कहा जाता है, जिसके फलस्वरूप कोई सुफल तो मिलता नहीं, उल्टे जनता को बेपनाह तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में शासकों के मूर्खतापूर्ण फैसले को चिन्हित करने के लिए ऐसा कहा जाता है। चूंकि इतिहास में मोहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी स्थानांतरित करने के फैसले जरिये पहली बार पहली बार जनता को परेशान करने का इतिहास रचा था, इसलिए शासकों के मूर्खतापूर्ण फैसलों को तुगलकी फैसला कहा जाता है। आज लॉकडाउन के फैसले से जिस तरह जनता को मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है, उसे देखते हुए लोग अगर उसकी तुलना नोटबंदी से कर रहे हैं तो उसके कुछ ठोस कारण हैं।
लॉकडाउन की भांति ही तब मोदी ने शायद ग्रह-नक्षत्र देखकर 2016 मे नाटकीय तरीके से 8 नवंबर की रात 8 बजे सिर्फ 4 घंटे की नोटिस पर नोटबंदी लागू करने की घोषणा कर दिया था। तब हजार, पाँच सौ के नोट जेब में पड़े होने के बावजूद लोग भूख से तड़पने और दवा के अभाव में मौत को गले लगाने के लिए विवश हुए थे। तब आज की भांति ही अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गयी थी। उस दौर में लोगों को जो मुसीबतें झेलनी पड़ी थीं, उसकी तुलना लोग भारत-चीन, भारत-पाक युद्ध के साथ इमरजेंसी से किए थे। सबका एक स्वर में मानना था कि नोटबंदी जैसी मुसीबत चीन – पाकिसान से हुए दो-दो युद्धों और इमरजेंसी भी नहीं उठानी पड़ी थी। लेकिन नोटबंदी के जिस फैसले को लोगों ने तुगलकी फैसला कहा था, क्या वह तुगलकी फैसला था? नहीं!
लॉकडाउन के पीछे मोदी की मंशा !
असल में नोटबंदी का वह फैसला एक सुपरिकल्पित निर्णय था, जिसके पीछे कुछेक खास मकसद था ! पहला मकसद था 5 राज्यों, खासकर यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव पूर्व विपक्ष के धन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करना। दूसरा, विदेशों से काला धन लाकर प्रत्येक के खाते में 15 लाख जमा कराने की विफलता को ढ़ंकने के लिए यह संदेश देना कि मोदी भ्रष्टाचार के विरुद्ध पहले की भांति ही दृढ़ प्रतिज्ञ हैं और तीसरा यह कि मोदी कठोर शासक हैं, जो देशहित में कड़े फैसले ले सकते हैं।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मोदी ने भाजपा की आर्थिक स्थिति पूरी तरह सुरक्षित रखते हुए नोटबंदी का फैसला लिया था। नोटबंदी के फैसले से देश भले ही तबाह हुआ, जनता को बेशुमार मुसीबतों का सामना करना पड़ा, पर, मोदी अपना लक्ष्य साधने में कामयाब रहे!
लॉकडाउन के पीछे भी मोदी के ऐसे ही कुछ लक्ष्य रहे हैं।
31 जनवरी को कोरोना का पहला मामला रोशनी में आने के बाद उन्हें इसकी भयावहता का इल्म हो गया था। इसलिए उन्होंने जनवरी से मार्च के मध्य 15 लाख लोगों को विदेशों से भारत बुला लिया। किन्तु, उनके सामने कुछ जरूरी टास्क थे। उन्हें कुछ राज्यों मे अपनी सरकार बनाने तथा ट्रम्प का स्वागत करने का पूर्वनिर्धारित टास्क पूरा करना था, जो किया। इन सब कामों को अंजाम देने के मध्य कोरोना बढ़िया से पैर पसारना शुरू कर चुका था, जिसका आभास मोदी को हो गया।
खासकर नमस्ते ट्रम्प के भविष्य में सामने आने वाले भयावह परिणामों का उन्हें भलीभाँति इल्म हो गया था। ऐसे में नोटबंदी की भांति ऐसा कुछ स्टेप उठाना जरूरी था, जिससे लगे मोदी भ्रष्टाचार की भांति ही कोरोना के खिलाफ कठोर हैं। और कोरोना के खिलाफ छवि निर्माण की जरूरत ने ही मोदी को 2020 के मार्च 24 की रात 8 बजे चार घंटे की नोटिस एक और नाटकीय घोषणा के लिए राष्ट्र के समक्ष आने के लिए मजबूर कर दिया।
लॉकडाउन की घोषणा के बाद मोदी नोटबंदी की भांति फिर एक बार हीरो बनकर सामने आए, जिसका पता इस बात से चलता है कि उन्होंने ताली, थाली के बाद भी कोरोना से लड़ने के लिए जो टोटके आजमाए, अवाम ने बढ़-चढ़ कर साथ दिया। उधर भारतीय मीडिया उन्हें कोरोना के विरुद्ध युद्ध लड़ने वाला सबसे बड़ा नेता साबित करने में लगातार जुटी रही। उसका शोर तब जाकर थमा, जब मजदूरों के दुर्दशा की हृदय विदारक कहानियों से सोशल मीडिया भरने लगी।
मोदी सरकार ने क्यों कायम किया, श्रमिकों के प्रति संगदिली का बेनजीर दृष्टांत !
सोशल मीडिया पर मजदूरों की दशा की भूरि–भूरि खबरें प्रकाशित होने के बाद सरकार 1 मई से मजदूरों की वापसी के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाने का निर्णय ली और इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान रेल मंत्री के दावे के मुताबिक विगत 19 दिनों में 1600 श्रमिक स्पेशन ट्रेनों के जरिये साढ़े 21 लाख मजदूरों की वापसी कराई जा चुकी है। बावजूद इसके भूखे-प्यासे मजदूरों का गिरते-पड़ते पैदल, ट्रकों, बसों और ट्रेनों से पहुँचने का सिलसिला जारी है। इसके साथ ही साथ औरैया जैसे हादसे छोटे-बड़े हादसे भी रोज हो रहे हैं।
चौथे चरण के लॉकडाउन की घोषणा के बाद पीएम से लेकर तमाम सीएम यह मान चुके हैं कि हमें कोरोना के साथ ही अब जीने का अभ्यास करना होगा। ऐसी स्थिति में अब धीरे-धीरे ऑफिस और बाज़ार इत्यादि खुलने लगे हैं। यात्रियों की सुरक्षित दूरी बनाते हुए बस भी चलने लगी हैं और 1 जून से 200 ट्रेनें भी चलाने की घोषणा हो चुकी है।
बहरहाल अदृश्य शत्रु कोरोना से पूरे विश्व के साथ भारी तबाही हुई है जिसकी भरपाई मुश्किल है। किन्तु लॉकडाउन के बाद भारत के श्रमिक वर्ग की जो दुर्दशा हुई है, वह अतुलनीय है। श्रमिकों के इस दुर्दिन में मोदी सरकार ने जो उदासीनता दिखाई है, वह इतिहास की एक चौंकाने वाली घटना के रूप में दर्ज हो चुकी है।
आज की तारीख में ढेरों लोग इस सवाल का जवाब ढूँढने में जुट गए हैं और आने वाले वर्षों में ढेरों समाज विज्ञानी और लेखक-पत्रकार इस सवाल का जवाब ढूँढने की कोशिश करेंगे कि आखिर क्यों मोदी सरकार ने श्रमिकों के प्रति संगदिली का बेनजीर दृष्टांत कायम किया।
उच्च वर्ण हिंदुओं के नजरों में जन्मजात श्रमिक वर्ग की हैसियत
बहरहाल उपरोक्त सवाल से टकराते हुए दो बातों को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। पहला, यह कि लॉकडाउन के दरम्यान जो श्रमिक वर्ग दुनिया में सर्वाधिक मुसीबतें झेला, वह दलित, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त विश्व का सबसे बड़ा ऐसा जन्मजात श्रमिक वर्ग है, जो सदियों से हिन्दू धर्म-शास्त्रों द्वारा शक्ति के स्रोतों - आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक इत्यादि- से बहिष्कृत रहा है। हिन्दू धार्मिक- मान्यताओं के अनुसार पूर्व जन्म के कुकर्मों के कारण इसका जन्म तीन उच्चतर वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की निःशुल्क सेवा के लिए हुआ है। इन धार्मिक मान्यताओं और इससे निर्मित सोच के कारण, जिन तीन उच्च वर्णों का अर्थ-ज्ञान और धर्म—सत्ता के साथ-साथ राज-सत्ता (शासन-प्रशासन) पर वर्तमान में एकाधिकार है, उनकी नजरों में श्रमिक वर्गों की हैसियत नर-पशु (Human-cattle) रही है, इसलिए वे शूद्रातिशूद्रों की दुरावस्था से हमेंशा निर्लिप्त रहे। पिछली सदी के शेष दशकों से संविधान प्रदत अवसरों का इस्तेमाल उठाकर इनमें से ढेरों लोग जब सांसद, विधायक, सीएम- डीएम, डॉक्टर –इंजीनियर- प्रोफेसर, लेखक –पत्रकार इत्यादि बनने लगे, तब शासन-प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया, शैक्षणिक जगत में छाए उच्च वर्ण हिंदुओं ने इन्हें अपना वर्ग-शत्रु समझते हुए इनको अधिकार- विहीन करने में सर्व-शक्ति लगाना शुरू किया।
इसके पीछे दो कारण रहे। एक तो हिन्दू धर्मशास्त्र जिन शक्ति के स्रोतों के भोग का दैविक – अधिकार सिर्फ उच्च वर्ण हिंदुओं के लिए आरक्षित किए थे, उसमें संविधान प्रदत अवसरों का लाभ उठा कर ये हिस्सेदार बनने लगे। दूसरा, उनके ऐसा करने से हिन्दू धर्म शास्त्रों की अभ्रांतता सवालों के दायरे में आने लगी।
संघी हिंदुओं में शूद्रातिशूद्रों के प्रति ज्यादा घृणा
भारत के जन्मजात श्रमिक वर्ग के प्रति घृणा का यह भाव एक खास कारण से आम हिंदुओं के बजाय संघी हिंदुओं में कुछ ज्यादा ही पनपा। और वह कारण यह रहा कि चूंकि संघ ने विगत वर्षों में बड़ी चालांकी से खुद को हिन्दू धर्म- संस्कृति का ठेकेदार बना लिया है तथा शुद्रातिशूद्र डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, डीएम-सीएम बनकर हिन्दू धर्म संस्कृति के समक्ष चुनौती बनते जा रहे हैं, इसलिए उनके मन में भारत के जन्मजात सेवक वर्ग के प्रति दूसरे खेमे के हिंदुओं से कहीं ज्यादा घृणा-भाव पनपा।
संघ परिवार की शूद्रातिशूद्रों के प्रति घृणा का चरम प्रतिबिम्बन मोदी की नीतियों के रूप में सामने आया,जिन्होंने अपने पितृ संगठन संघ के हिन्दू राष्ट्र के सपने को मूर्त रूप देने के लिए विगत छह सालों से अपनी सारी नीतियां हिन्दू धर्म को म्लान करने वाले वर्ग शत्रुओं (शूद्रातिशूद्रों) को फिनिश करने पर केन्द्रित रखी।
वास्तव में मोदी की किसी भी पॉलिसी की तह में जाना हो तो संघ की हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को ध्यान में रखना होगा। यदि इसे ध्यान में रखकर उनकी नीतियों की विवेचना की जाय तो उसके पीछे छिपे मोदी का अभीष्ट सामने आ जाएगा।
मोदी संघ के सबसे बड़े सपने से एक पल के लिए भी अपना ध्यान नहीं हटाये। मछली की आँख पर सटीक निशाना साधने वाले अर्जुन की भांति, उनका सारा ध्यान-ज्ञान हिन्दू राष्ट्र रहा। हिन्दू राष्ट्र मतलब एक ऐसा राष्ट्र, जिसमें संविधान नहीं, उन हिन्दू धार्मिक कानूनों द्वारा देश चलेगा, जिसमें शूद्रात्तिशूद्र अधिकारविहीन नर-पशु एवं शक्ति के समस्त स्रोत सवर्णों के लिए आरक्षित रहे।
हिन्दू राष्ट्र के लिए देश को निजी हाथों में सौंपने पर आमादा रहे मोदी
सत्ता में आने के बाद मोदी संघ के जिस हिन्दू राष्ट्र के सपने को आकार देने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं, उसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है डॉ. आंबेडकर प्रवर्तित संविधान, जिसके खत्म होने की संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखती।
भारतीय संविधान हिन्दू राष्ट्र निर्माण की राह में इसलिए बाधा है, क्योंकि यह शूद्रातिशूद्रों को उन सभी पेशे/कर्मों में प्रतिभा प्रदर्शन का अवसर प्रदान करता है, जो पेशे/ कर्म हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख-बाहु-जंघा) से उत्पन्न लोगों(ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्यों) के लिए ही आरक्षित रहे हैं। संविधान प्रदत यह अधिकार ही हिन्दू धर्म की स्थिति हास्यास्पद बना देता है, क्योंकि हिन्दू धर्मशास्त्रों में डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, पुलिस-सैनिक, शासक-प्रशासक बनने तथा शक्ति के समस्त स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक- शैक्षिक- धार्मिक इत्यादि) के भोग का अधिकार सिर्फ मुख-बाहु-जंघे से जन्में लोगों को है और संविधान के रहते वे इस एकाधिकार का भोग नहीं कर सकते। संविधान के रहते हुए भी इन सभी क्षेत्रों पर उनका एकाधिकार तभी कायम हो सकता है जब, उपरोक्त क्षेत्र निजी क्षेत्र मे शिफ्ट करा दिये जाएँ। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही मोदी श्रम क़ानूनों को निरंतर कमजोर करने, लाभजनक सरकारी उपक्रमों तक को औने –पौने दामों में बेचने, हास्पिटलों, रेलवे, हवाई अड्डों को निजी हाथों में देने में युद्ध स्तर पर मुस्तैद रहे। ऐसा करके उन्होंने देश को हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे उन लोगों के हाथ में सबकुछ सौंपने का उपक्रम चलाया, जिनके लिए ही हिन्दू धर्म शास्त्रों द्वारा शक्ति के समस्त स्रोत अराक्षित किए गए हैं। जिसे निजी क्षेत्र कहा जा रहा है, दरअसल वह हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे समूहों का ही क्षेत्र है।
हिन्दू राष्ट्र निर्माण के लिए देश को निजी हाथों सौपने पर आमादा मोदी को लॉकडाउन एक अवसर के रूप में दिखा और उन्होंने इसे अवसर में बदलने का आह्वान भी कर दिया।
हिन्दू राष्ट्र के लिए लॉकडाउन ने प्रदान किए कुछ और अवसर!
चूंकि हिन्दू राष्ट्र का सपना संजोई मोदी सरकार इस बात को भलीभांति जानती है कि संविधान के रहते देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए सारी चीजें निजी क्षेत्र में देना जरूरी है, इसलिए उसने इस जरूरत के लिए लॉकडाउन को भी एक अवसर के रूप में इस्तेमाल करने की परिकल्पना की। आपदा को अवसर में तब्दील करने के उनके आह्वान का अर्थ निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना ही था, इसका संकेत वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 20 लाख के पैकेज के बँटवारे की घोषणा करते हुए कर भी दिया।
उन्होंने कहा था, ’आपदा को अवसर बनाने के क्रम में सरकार ऐसी नई लोक उपक्रम नीति ला रही है, जिससे सारे सेक्टरों को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया जाएगा। लोक उपक्रम सरकार द्वारा अधिसूचित चुनिन्दा क्षेत्रों में ही काम कर पाएंगे और इन अधिसूचित क्षेत्रों में उनकी संख्या चार से ज्यादे हुई कि नहीं कि उनका निजीकरण कर दिया जाएगा।‘
तो स्पष्ट है कि मोदी सरकार हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य से कोरोना जैसी विराट मानवीय त्रासदी के दौर में भी पीछे नहीं हट रही है। इसलिए एक ऐसे दौर में जबकि सारी दुनिया के शासक अपने देशवासियों को कोरोना जैसे अदृश्य शत्रु से बचाने में लगे रहे, मोदी ने रक्षा से जुड़े निर्माण संस्थानों में एफडीआई 49 से 74 प्रतिशत करने का साहसिक निर्णय लेने के साथ कोयला और खनिज खनन क्षेत्र में निजी क्षेत्र के स्वामियों की कमाई की राह और आसान कर दिया। इसके साथ ही उसने एमएसएमई परिभाषा में बड़ा बदलाव कर डाला। लेकिन लॉकडाउन के दौर में भाजपा सरकारों ने सबसे बड़ा काम श्रम सुधार के मोर्चे पर अंजाम दिया।
मजदूरों को निजी क्षेत्र वालों का बंधुआ गुलाम बनाने का लॉकडाउन में हुआ बलिष्ठ प्रयास
स्मरण रहे बड़े पैमाने पर श्रम सुधार मोदी सरकार का पुराना सपना रहा है। इस का अनुमान मोदी सरकार में कानून व न्यायमन्त्री रहे रविशंकर प्रसाद के 24 सितंबर, 2014 को अखबारों में जारी इस बयान से लगाया जा सकता है। तब उन्होंने कहा था, ’हमारी सरकार गवर्नेंस से बाधक सैकड़ों साल पुराने कानूनों व नियमों को रद्द करेगी।‘
और उसके बाद इस दिशा में मोदी सरकार कुछ न कुछ करती रही पर,बड़े पैमाने पर नहीं कर पा रही थी। इस दिशा में बड़ा स्टेप लेने का अवसर लॉकडाउन ने सुलभ करा दिया। और इस दौर में भाजपा शासित तीन बड़े राज्यों - उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात- के मुख्यमंत्रियों ने उद्योगों में जान फूंकने के नाम पर फैक्ट्री मालिकों को तीन साल के लिए श्रमिकों के लिए निभाई जाने वाली उन जिम्मेवारियों से बरी कर दिया है, जिन्हें कानूनन मानना पड़ता था। इनके पीछे मोदी की सहमति नहीं होगी, इसकी कल्पना कोई पागल ही कर सकता है।
बहरहाल इन कानूनों के लागू होने से न्यूनतम मजदूरी देने की बाध्यता खत्म होने के साथ काम के घंटे 8 से 12 करने का भी अवसर मालिकों को मिल जाएगा। यही नहीं उद्योगपति जब चाहेंगे, मजदूरों को बिना कोई कारण बताए निकाल भी सकेंगे। फिलहाल यह मामला कोर्ट के विचाराधीन है और अदालतों का चरित्र देखते हुए हरी झंडी मिल जाने की भी उम्मीद है। लेकिन लागू होने के बाद यह तीन साल तक न रहकर चिरस्थाई हो जाएगा तथा सभी राज्य इसे लागू करेंगे, यह मानकर ही चलना बेहतर होगा।
इसमें कोई शक नहीं कोरोनाकाल का यह श्रम सुधार भारतीय श्रमिकों पर अब तक का सबसे बड़ा हमला है और इसके लिए लॉकडाउन का समय इसलिए चुना गया क्योंकि जिनके खिलाफ यह कानून पास हुआ है वे सड़कों पर हैं और बाकी लोग घरों मे कैद हैं। अगर लॉकडाउन नहीं होता तो लाखों लोग इसके खिलाफ सड़कों पर उतरे नजर आते।
कहा जा सकता है हिन्दू राष्ट्र निर्माण के हर छोटे-बड़े अवसर के सद्व्यवहार में पारंगत मोदी और उनके दल को लॉकडाउन ने श्रम सुधार जैसे भीषण अमानवीय काम के लिए एक दुर्लभ ‘समय’ प्रदान कर दिया जिसका सदुपयोग करने में उन्होंने कोई कमी नहीं की।
बहरहाल आज की तारीख यदि लोगों से यह पूछा जाय कि मोदी ने हिन्दू राष्ट्र को ध्यान में रहते हुए कोरोना काल में कौन सा सबसे बड़ा काम अंजाम दिया तो अधिकांश लोग ही अपनी राय श्रम कानून में सुधार के पक्ष में देंगे। किन्तु मेरी राय इससे भिन्न है।
मेरी राय में मोदी ने हिन्दू राष्ट्र निर्माण के लिए आपदा को अवसरों मे बदलने की जो परिकल्पना की, उसके तहत सबसे बड़ा काम उन्होंने लॉकडाउन में श्रमिकों को राम भरोसे छोडकर अंजाम दिया, जिसके बाद कोई उपाय न देखकर लाखों मजदूर घर वापसी के लिए सड़कों पर उतर पड़े, जिसके फलस्वरूप भारत के श्रमिक वर्ग के कष्टों का वह करुण अध्याय रचित हुआ, जिसकी तुलना भारत –पाक विभाजन के फलस्वरूप हुए विस्थापन से की गयी।
मोदी को था लॉकडाउन के संभावित असर का सही - सही अनुमान
मेरे विचार से मोदी ने सारे हालात का आंकलन करते हये सुपरिकल्पित रूप से हिन्दू राष्ट्र निर्माण को ध्यान में रखते हुए, मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ा। मेरे इस विचार की काफी हद तक पुष्टि 14 मई को ‘देशबंधु’ में प्रकाशित प्रख्यात पत्रकार ललित सुरजन के लेख में हुई है, जिसमें उन्होंने लिखा है- ‘मोदी सरकार को एकाएक लॉकडाउन करने के संभावित असर का सही-सही अनुमान था। सरकार जानती थी कि तमाम आर्थिक गतिविधियां बंद हो जाने के बाद देश के विभिन्न प्रदेशों में दूर-दूर से आए आप्रवासी कामगारों की उनके कार्यस्थल पर कोई उपयोगिता नहीं रह जाएगी; नियोक्ताओं की रुचि उनकी सेवाएं जारी रखने में रंच मात्र भी नहीं रहेगी; उनके भरण-पोषण का जिम्मा उठाना भी अधिकतर की क्षमता के बाहर होगा; और बेरोजगार हो गए श्रमिक इस अनिश्चितता के माहौल में पराई जगह पर लाचार व खाली बैठे रहने के बजाय अपने गांव लौटना चाहेंगे.. मोदी जी ने खुद ही माना कि घर लौटने की इच्छा रखना तो मनुष्य मात्र का स्वभाव है। इस सत्य को जानते हुए भी श्रमनिवेशकों की घर वापसी के लिए बार-बार गुहार लगाने के बावजूद यातायात व्यवस्था न करने या उसमें देरी करने के पीछे क्या मकसद था? जबकि दूसरी ओर विदेशों में फंसे भारतीय नागरिकों व कोचिंग ले रहे युवजनों की घर वापसी के लिए केंद्र सहित अनेक राज्यों ने भी माकूल प्रबंध करने में कोई देरी नहीं की।‘
ताकि मजदूर वर्ग कम मूल्य पर :
अपना श्रम बेचने के लिए हो जाएँ बाध्य लेकिन सब कुछ जानते हुए भी मोदी ने मजदूरों की वापसी उचित क्यों नहीं की, इसका जवाब देते हुए सुरजन साहब ने लिखा है, ’इस परिप्रेक्ष्य में और इसके बाद के कतिपय निर्णयों पर गौर करें तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचने को बाध्य होते हैं कि सर्वशक्तिमान पूंजीहितैषी सत्ता ने वर्ग विभाजित इस देश की मेहनतकश जनता को उसकी 'औकात' बताने का एक अनुपम अवसर कोरोना महामारी के माध्यम से पा लिया है। उसे पता था कि धीरे-धीरे कर मजदूरों और कामगारों की संघर्ष क्षमता पूरी तरह चुक गई है। उनमें पहले जैसी एकजुटता नहीं है। ईश्वर और भाग्य पर उनका भरोसा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। आज की विषम परिस्थितियों में वे अपने आप को बचाने के उपाय सोचेंगे, बजाय लड़ने के। लड़ें भी तो किसके सहारे और कौन सी उम्मीद लेकर? और सचमुच यही हुआ। सरकार बहादुर ने पूंजी निवेशकों को सुनहरा मौका दे दिया कि वे अपनी शर्तों पर 'देश के पुनर्निर्माण' में भागीदारी कर सकें। वैसे तो उनके हक में वातावरण निर्माण आज से चार दशक पहले प्रारंभ हो चुका था, नब्बे के दशक में नींव पुख्ता हो गई थी; लेकिन अगर कहीं तिनके सी ओट भी थी तो वह पूरी तरह हट चुकी है।‘
लॉकडाउन के बाद श्रमिक वर्ग को राम भरोसे छोड़ने के पीछे जो कारण ललित सुरजन साहब ने बताया है, कमोबेश अधिकाश गैर- राष्ट्रवादी विचारक उससे सहमत है। अतः लॉकडाउन के बाद लोगों के जेहन में जो सबसे बड़ा सवाल उठा है उसका जवाब यही है कि मोदी जी को मजदूरों की संभावित दुर्दशा का पूरा इल्म था। बावजूद इसके उन्हें राम भरोसे इसलिए छोड़ा ताकि उनको उनकी औकात का पता चल जाय। और हिन्दू राष्ट्र निर्माण की योजना के तहत पूरा देश जिन निजी क्षेत्र के स्वामियों अर्थात सवर्णों के हाथों मे सौंपने की तैयारी चल रही है, उनको वे अपना श्रम कम मूल्य में बेचने के लिए बाध्य हो जाएँ।
एच. एल. दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.