यह साफ़ हो गया है कि लोकसभा चुनाव 2019 (Lok Sabha Elections 2019) में ज्यादातर पार्टियां नवउदारवाद (Neo-liberalism) के तवे पर ही अपनी सियासी रोटी सेंकना चाहती हैं। संविधान और समाजवाद (Constitution and Socialism) देश की सियासी पार्टियों के लिए कोई सरोकार नहीं रह गया है। दिल्ली का उदाहरण लें तो इनमें कम्युनिस्ट पार्टियां (Communist Parties) अग्रणी भूमिका में देखी जा सकती हैं। सीपीआई (एमएल)- CPI (ML) ने आम आदमी पार्टी- Aam Aadmi Party (आप), जो डॉ. प्रेम सिंह के अनुसार नवउदारवाद की कोख से निकली है, के साथ तालमेल बनाया हुआ है। सीपीएम ने पिछले लोकसभा चुनाव से ही आप के समर्थन की घोषणा कर रखी है। मैंने हस्तक्षेप पर लिखा था कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक अल्ट्रा लेफ्ट दंपत्ति (Ultra Left Couple) की अमरीका पलट बेटी आतिशी ने आप के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए पार्टी के आदेश पर अपना सरनेम ही बदल लिया। मर्लेना सरनेम मार्क्स और लेनिन को मिलाकर बनाया गया था। इतना ही नहीं उसने चुनाव अभियान के लिए बनाए गए दफ्तर को बाकायदा हवन करके शुद्ध किया था ताकि किसी मतदात को मार्क्स या लेनिन का ज़रा भी भ्रम न रह जाए।
अब कांग्रेस (Congress) ने भी अपनी लाइन साफ़ कर दी है। हालांकि अभी तक दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन का कोई औपचारिक एलान नहीं हुआ है, लेकिन दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं के हवाले से ये कहा जा रहा है कि गठबंधन पर सैंद्धांतिक सहमति बन गई है। इसके लिए पिछले एक साल कई तरह के प्रयास किये जा रहे थे। लेकिन दिल्ली कांग्रेस का शीला दीक्षित सहित एक बड़ा तबका आप के साथ तालमेल का हिमायती नहीं था। अंत में केजरीवाल शरद पवार को दिल्ली लेकर आये और कांग्रेस हाई कमान के आदेश पर गठबंधन पर सहमति बनवाई। दिल्ली के अलावा पंजाब, हरियाणा और गोवा में कांग्रेस और आप का गठबंधन
एक तरह से इसे स्वाभाविक गठबंधन कहा जा सकता है। क्योंकि कांग्रेस, जो आज़ादी के आंदोलन की पार्टी थी और आज़ाद भारत के निर्माण में जिसकी बड़ी भूमिका रही, उसी ने 1991 में नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत की। मोदी आज कांग्रेस की पिच पर धुआंधार खेलते हुए कांग्रेस को ही समाप्त करने की हुंकार भरते रहते हैं। कांग्रेस का अगर आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन होता है तो वह कांग्रेस द्वारा सैद्धांतिक रूप से कारपोरेट पूंजीवाद की स्वीकृति होगी। इससे यह तय हो जाएगा कि संविधान और समाजवाद की राजनीति जो करना चाहते हैं उनका रास्ता और भी कठिन हो गया है।
लेकिन कुछ व्यावहारिक सवाल भी इस गठबंधन से खड़े होते हैं। अगर ऐसा होता है तो ये सियासत में नवउदारवाद की एक नई कामयाबी तो होगी ही, कांग्रेस की एक बड़ी रणनीतिक भूल भी साबित होगी।
2014 के चुनाव में कांग्रेस की बड़ी शिकस्त के पीछे तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बड़ी भूमिका थी। आरएसएस समर्थित और कॉर्पोरेट प्रायोजित इस आंदोलन ने मुख्यधारा की मीडिया का इस्तेमाल कर देशभर में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाया था। नतीजा बीजेपी को देश और केजरीवाल को दिल्ली का राज मिल गया। और ये कोई राजनीतिक आकलन भर नहीं है, 2015 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता केंद्र में मोदी और दिल्ली में केजरीवाल के पोस्टर तक लगा चुके हैं। अब जब केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को सियासी अभयदान के लिए बीजेपी से इतर किसी दूसरे और मजबूत ठिकाने की तलाश है तो कांग्रेस उसके पक्ष में खड़ी हो गई है। यह सीधे-सीधे उसकी कमजोरी को दिखाता है। यह ग़लती कांग्रेस के लिए इस चुनाव और एक साल बाद दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनावों में आत्मघाती भी सिद्ध हो सकती है।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के अगुआ, समर्थक बुद्धिजीवी/नागरिक समाज एक्टिविस्ट, आरएसएस/भाजपा और कांग्रेस, जिसके भ्रष्टाचार के विरोध में वह सब हुआ था, एक ही टीम के खिलाड़ी थे - यह सच्चाई डॉ. प्रेम सिंह की क़िताब 'भ्रष्टाचार: विभ्रम और यथार्थ' में दस्तावेज की तरह दर्ज हैं।
अंत में इतना ही कहना है कि राष्ट्रीय राजनीति के हानि-लाभ, वोटों के गुणा-गणित, मतदाताओं का रूझान और दिल्ली की बदली सूरत की दावेदारी के लिहाज से भी कांग्रेस का फैसला सही नहीं कहा जा सकता।
राजेश कुमार (लेखक जी टीवी में पत्रकार हैं।)