आखिरकार, कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश में भी भाजपा का 'ऑपरेशन कमल' जीत गया। और लोकतंत्र हार गया। सुप्रीम कोर्ट की शुक्रवार, 20 मार्च को विधानसभा में शक्ति परीक्षण कर बहुमत साबित करने (FLOOR test in assembly to prove majority) के लिए शाम 5 बजे तक की डैडलाइन से पांच घंटे पहले ही कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री, कमलनाथ ने इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। वै
से मध्यप्रदेश में पंद्रह साल बाद बनी कांग्रेस सरकार के अंत और पंद्रह महीने के अंतराल के बाद भाजपा की सरकार में वापसी पर मोहर तो सुप्रीम कोर्ट के बृहस्पतिवार के, अगली शाम पांच बजे तक विधानसभा में शक्ति परीक्षण कराने के फैसले से ही लग गई थी। उक्त आदेश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने, निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच बहुमत को, उपस्थित तथा मतदान करने वालों के बीच संख्याओं के मुकाबले में घटा दिया और संख्याओं के इस मुकाबले की परिस्थितियों को, विचार के दायरे से ही बाहर उछाल दिया।
बेशक, कानून के सीमित तकनीकी अर्थों में अदालत के फैसले को गलत नहीं कहा जा सकता है या शायद यह सवाल करना ही ज्यादा सही होगा कि अदालत के सामने और विकल्प ही क्या था? लेकिन जब थोक में पाला-बदल कराने के जरिए, जनतंत्र का तथा चुनाव में जनता के निर्णय का खुल्लमखुल्ला मजाक बनाया जा रहा हो, निर्णय की सर्वोच्च शक्ति का प्रयोग करते हुए भी शीर्ष न्यायपालिका का, इस समूची सच्चाई को देखते हुए भी अनदेखा कर के फैसला देने पर मजबूर होना, जनतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा करने में न्यायपालिका की विफलता (Failure of judiciary) को ही दिखाता है।
यह कहां तक कानून को उसकी तकनीकी शब्दावली तक सीमित कर देने का नतीजा है, इस पर तो बहस चलती रहेगी। लेकिन यह तय है कि यह मोदी निजाम में खासतौर पर देखने में आई, सिर्फ तकनीकी दलीलों के बल
राफेल प्रकरण, जम्मू-कश्मीर प्रकरण, जिसमें जनतंत्र व संविधान की खुलेआम हत्या भी शामिल है, धर्मनिरपेक्ष संविधान में नागरिकता के लिए सांप्रदायिक पैमाना जोड़ने वाला सीएए और दिल्ली का नरसंहार भी; इन सभी मामलों में शीर्ष न्यायपालिका ने दुर्भाग्य से ऐसे ही आम रुझान का प्रदर्शन किया है।
प्रसंगवश कह दें कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व-मुख्य न्यायाधीश, गोगोई को सेवानिवृत्ति के चार महीने के अंदर-अंदर राज्यसभा की सदस्यता से पुरस्कृत करने के मोदी सरकार के फैसले से साफ है कि इसका पक्का बंदोबस्त किया गया है कि न्यायपालिका, मौजूदा शासन के हमलों से जनतंत्र को बचाने में कोई भूमिका ग्रहण नहीं करे।
खैर, मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार के अवसान पर लौटें। 2018 के आखिर में हुए विधानसभाई चुनाव में मध्यप्रदेश की जनता ने भले ही भाजपा को विपक्ष में बैठने का आदेश दिया था और कांग्रेस की सीटें करीब दोगुनी हो जाने के अर्थ में कांग्रेस के पक्ष में फैसला दिया था, भाजपा ने इस हार को आसानी से स्वीकार नहीं किया था। हालांकि, 114 सीटों के साथ कांग्रेस शुरू से 109 सीटों वाली भाजपा से साफ तौर पर आगे थी, फिर भी उसके 230 सदस्यीय सदन में बहुमत के अंक से दो सीट पीछे रहने के सहारे, खासतौर पर निवर्तमान मुख्यमंत्री, शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा ने किसी भी जोड़-जुगाड़ से दोबारा सत्ता में पहुंचने के लिए काफी हाथ-पांव मारे भी थे।
बेशक, राजस्थान में स्थिति इससे अलग थी, जहां भाजपा इतनी पिछड़ गई थी कि वसुंधरा राजे, जो वैसे भी मोदी-शाह की कृपा से दूर ही हैं, ऐसी किसी कोशिश के सफल होने की उम्म्मीद कर ही नहीं सकती थीं।
बहरहाल, चंद महीनों में होने जा रहे लोकसभाई चुनाव से ऐन पहले मोदी की छवि पर इसका अच्छा असर न पड़ने के चिंता से मोदी-शाह जोड़ी ने, उस समय इन कोशिशों को बढ़ावा नहीं दिया। उल्टे नतीजों का रुझान साफ होने के बाद, आखिरी सीटों के नतीजे का इंतजार तक किए बिना, प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर विपक्षी कांग्रेस को मध्य प्रदेश में जीत की बधाई दे डाली थी और इस तरह, जोड़-तोड़ की कोशिशों को हतोत्साहित किया था।
बहरहाल, आम चुनाव में दोबारा जीत के बाद और मोदी-शाह जोड़ी के खुद भाजपा समेत देश भर में सत्ता पर अपना कब्जा पहले से भी ज्यादा मजबूत कर लेने के बाद, जोड़-जुगाड़ का वह संकोच हवा हो गया। उल्टे चुनाव में हार के बाद भी हर जगह किसी भी तिकड़म से सत्ता पर काबिज होने की भाजपा की हवस, जो मोदी-1 में गोवा, मणिपुर, मिजोरम से लेकर मेघालय, उत्तराखंड तक में खुलकर सामने आई थी, मोदी-2 में और भड़क उठी है, जिसके निशाने पर अब अपेक्षाकृत बड़े राज्य हैं।
इस सिलसिले की शुरूआत कर्नाटक से हुई थी और वास्तव में इस मार्च के पहले पखवाड़े में मध्य प्रदेश में जो कुछ हुआ है, पिछले साल की जुलाई के आखिर में परवान चढ़े कर्नाटक के 'आपरेशन कमल' का ही दूसरा संस्करण है।
महत्वपूर्ण अंतर यह था कि कर्नाटक में 1998 के मध्य में हुए चुनाव में बहुमत से मध्यप्रदेश की ही तरह कई सीट से पिछड़ जाने बावजूद और कांग्रेस तथा जनता दल सैकुलर के गठबंधन कर, बहुमत के समर्थन के आधार पर सरकार बनाने का दावा पेश करने के बावजूद, मोदी-शाह जोड़ी के इशारे पर येदियुरप्पा को बाद में विपक्ष में तोड़-फोड़ के जरिए बहुमत जुगाड़ लेने के भरोसे मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी गई थी। लेकिन, तब उनकी सरकार बहत्तर घंटे भी नहीं चली थी और सुप्रीम कोर्ट के तकनीकी रूप से मध्य प्रदेश के जैसे ही फैसले में अगले ही दिन सदन में शक्ति परीक्षण कराने के आदेश के बाद, येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा था।
बहरहाल, जब येदियुरप्पा ने कर्नाटक जदसे-कांग्रेस गठबंधन सरकार के डेढ़ दर्जन विधायकों में, जिनमें मंत्री भी शामिल थे, सेंध लगाकर दिखा दी और इन विधायकों को भाजपा-शासित मुंबई के होटल में पहुंचा दिया, मोदी-शाह जोड़ी का संकोच हवा हो गया। यहां से आगे इन विधायकों को कैसे शासन की ताकत के बल पर, उनकी अपनी पार्टियों से बचाकर रखा गया, कैसे स्पीकर पर उनके इस्तीफे स्वीकार करने के लिए दबाव बनाया गया, कैसे यह पूरा प्रकरण सुप्रीम कोर्ट तक गया, कैसे इन विधायकों की अनुपस्थिति के जरिए, विधानसभा में उपस्थित व मतदान करने वालों के बीच बहुमत का आंकड़ा नीचे लाकर, भाजपा को अल्पमत से बहुमत कराया गया; वह सभी को याद होगा।
हां! इस सब में याद रखने वाली एक बात जरूर है कि इस्तीफा देने के जरिए, दलबदल कानून को धता बताकर, जिस पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर जनता से चुनकर आए थे, उसी की सरकार को गिरवाने के इस खेल में शामिल कर्नाटक के कुछ विधायकों को, उनके इस्तीफे स्वीकार करने के बजाय स्पीकर ने सदस्यता के अयोग्य घोषित कर दिया और उनके कम से कम अगले आम चुनाव तक दोबारा चुने जाने का रास्ता रोक दिया, तो भाजपा की केंद्र व राज्य सरकारों की पैरवी पर, सुप्रीम कोर्ट ने यह जानते-देखते हुए भी दल-बदल की इतनी सी सजा को भी निरस्त कर दिया कि वे अपने निजी स्वार्थ के लिए, जनतंत्र और जनतांत्रिक व्यवस्था को ऐसी खरीद-फरोख्त से ही बचाने के लिए बनाए गए दलबदलविरोधी कानून के साथ खिलवाड़ करने के दोषी थे।
नतीजा यह कि कर्नाटक के ऑपरेशन कमल के इनमें से अधिकांश खिलाड़ी बाद में, भाजपा के टिकट पर उपचुनाव में जीतकर दोबारा विधानसभा में भी पहुंच गए और उनमें से कई ने सौदे के मुताबिक मंत्री का पद भी हासिल कर लिया है।
कहने की जरूरत नहीं है कि अब मध्य प्रदेश में हुए 'आपरेशन कमल-2' के खिलाड़ियों ने, इन सब संभावनाओं को हिसाब में लेने में कोई चूक नहीं की होगी।
बेशक, अब जबकि संघ-भाजपा की प्रचार मशीनरी की कृपा से, उनकी राजनीतिक कुचालों के शिकारों को ही उनके साथ हुई ज्यादती का दोषी बनाना और इस तरह केसरिया पलटन को उसकी करतूतों की नैतिक-राजनीतिक जवाबदारी से बचाना आम हो चुका है, ऐसे समझदारों की कमी नहीं है जो आपरेशन कमल-2 के लिए कांग्रेस के नेतृत्व की गलतियों पर ही दोष डालने में लगे हैं।
चूंकि सिंधिया का इस खेल में साफ तौर पर हाथ रहा है और उन्होंने मध्य प्रदेश की कांग्रेस की सरकार को गिरवाने की कीमत वसूल करनी शुरू भी कर दी है, एक शिकायत आम है कि कांग्रेस ने उनकी कीमत क्यों नहीं समझी?
हो सकता है कि सिंधिया की शिकायतों में भी कोई सच्चाई हो। वैसे भी नवउदारवादी दौर में राजनीति में केंद्रीयकरण इतना ज्यादा बढ़ चुका है कि हरेक स्तर पर एक नेता के अलावा, उसके अनुयायी ही हो सकते हैं, सहयोगी या सह-नेता नहीं। लेकिन, यह असली मुद्दा नहीं है।
असली मुद्दा यह है कि जब देश में सत्ता पर काबिज राजनीतिक शक्ति, जिसने अपने हाथों में अकूत धनबल भी जमा कर लिया है और जो सिर्फ नौकरशाही तथा विधायिका ही नहीं तमाम संस्थाओं को अपने इशारे पर नचा रही है, अगर चुनाव में जनता द्वारा चुनी गई विपक्षी सरकारों को हटाकर सत्ता हथियाने पर आमादा हो, तो उसका हाथ कौन पकड़ सकता है?
बेशक, दूरगामी अर्थ में तो जनता ही सब का फैसला करती है, लेकिन फौरी तौर पर तो जनतंत्र की इस लुढ़कन को न्यायपालिका ही रोक सकती है, जिस पर कार्यपालिका तथा विधायिका के भी अतिक्रमणों से जनतंत्र की रक्षा की जिम्मेदारी है। लेकिन, शीर्ष न्यायपालिका यह जिम्मेदारी पूरी करने में लगातार विफल हो रही है। तभी तो ऑपरेशन कमल जीत रहे हैं और लोकतंत्र हार रहा है।
राजेंद्र शर्मा
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