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Mangalsutra, patriarchalism and religious nationalism: Article by Dr Ram Puniyani in Hindi

गोवा के लॉ स्कूल में सहायक प्राध्यापक शिल्पा सिंह के खिलाफ हाल (नवम्बर 2020) में इस आरोप में एक एफआईआर दर्ज (FIR against Shilpa Singh, Assistant Professor in Goa's Law School) की गई कि उन्होंने मंगलसूत्र की तुलना कुत्ते के गले में पहनाए जाने वाले पट्टे से की. शिकायतकर्ता का नाम राजीव झा बताया जाता है. वो राष्ट्रीय युवा हिन्दू वाहिनी नामक संस्था से जुड़ा है.

एफआईआर में कहा गया है कि शिल्पा सिंह ने जानबूझकर शिकायतकर्ता की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई. एबीवीपी ने कॉलेज के मैनेजमेंट से भी शिल्पा की शिकायत की है.

अपने जवाब में शिल्पा ने कहा,

“बचपन से मुझे यह जिज्ञासा रही है कि विभिन्न संस्कृतियों में केवल महिलाओं को ही उनकी वैवाहिक स्थिति का विज्ञापन करने वाले चिन्ह क्यों धारण करने होते हैं, पुरुषों को क्यों नहीं”. उन्होंने मंगलसूत्र और बुर्के का उदाहरण देते हुए हिन्दू धर्म और इस्लाम की कट्टरवादी परम्पराओं की आलोचना की. उनके इस वक्तव्य से एबीवीपी आगबबूला हो गयी.

शिल्पा,

दरअसल, उन पितृसत्तात्मक प्रतीकों का विरोध कर रहीं हैं जो हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का भाग बन गईं हैं और जिन्हें विभिन्न धार्मिक समुदायों द्वारा अपनी महिलाओं पर थोपा जाता है. ये काम शिल्पा तब कर रहीं हैं जब हमारे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में धार्मिक राष्ट्रवाद का बोलबाला बढ़ रहा है. भारत में इस तरह के नियमों और परम्पराओं को अचानक अधिक सम्मान मिलने लगा है. रूढ़िवादी नियमों को आक्रामकता के साथ सब पर लादा जा रहा है. उन्हें नया ‘नार्मल’ बनाने की कोशिशें हो रहीं हैं.

Three main goals of this nationalism (Wearing a Choga of religion)

सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि हिन्दू राष्ट्रवाद का एकमात्र लक्ष्य धार्मिक अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण  है. परन्तु यह हिन्दू धार्मिक राष्ट्रवाद (हिंदुत्व) के एजेंडे का केवल वह हिस्सा है जो दिखलाई देता है. दरअसल, धर्म का चोला पहने इस राष्ट्रवाद के मुख्यतः तीन लक्ष्य हैं: पहला है धार्मिक अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण. यह हमारे देश में देखा जा सकता है. मुसलमानों को समाज के हाशिये पर धकेला जा रहा है और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के हर संभव प्रयास हो रहे हैं. दूसरा लक्ष्य है दलितों को उच्च जातियों के अधीन बनाए रखना. इसके लिए सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया जा रहा है. तीसरा और महत्वपूर्ण लक्ष्य है महिलाओं का दोयम दर्जा बनाए रखना. एजेंडे के इस तीसरे हिस्से पर अधिक चर्चा नहीं होती परन्तु वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितने कि अन्य दो हिस्से.

भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जहाँ भी राजनीति धर्म के रेपर में लपेट कर पेश की जा रही है वहां वह पितृसत्तात्मकता को मजबूती देने के लिए विविध तरीकों से प्रयास करती है. भारत में महिलाओं के समानता की तरफ कदम बढ़ाने की शुरुआत सावित्रीबाई फुले द्वारा लड़कियों के लिए पाठशाला स्थापित करने और राजा राममोहन राय द्वारा सती प्रथा के उन्मूलन जैसे समाज सुधारों से हुई. आनंदी गोपाल और पंडिता रामाबाई जैसी महिलाओं ने अपने जीवन और कार्यों से सिद्ध किया कि महिलाएं पुरुषों की संपत्ति नहीं हैं और ना ही वे पुरुषों के इशारों पर नाचने वाली कठपुतलियां हैं. ये सभी क्रन्तिकारी कदम पितृसत्ता की इमारत पर कड़े प्रहार थे और इनका विरोध करने वालों ने धर्म का सहारा लिया.

जैसे-जैसे महिलाएं स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ने लगीं, पितृसत्तात्मकता की बेड़ियाँ ढीली पड़ने लगीं. पितृसत्तात्मकता और जातिगत पदक्रम के किलों के रक्षकों ने इसका विरोध किया. हमारे समाज में जातिगत और लैंगिक दमन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.

Muslim communalism also emerged as a problem in India.

भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता भी एक समस्या बन कर उभरी. मुस्लिम लीग के संस्थापक इस समुदाय के श्रेष्ठी वर्ग के पुरुष थे. इसी तरह, हिन्दू महासभा की स्थापना उच्च जातियों के पुरुषों ने की. ये दोनों ही संगठन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को थामना चाहते थे.

इस समय भारत में ऊंचनीच को बढ़ावा देने में हिन्दू साम्प्रदायिकता सबसे आगे है. सांप्रदायिक ताकतों का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (Rashtriya Swayamsevak Sangh) (आरएसएस) के हाथ में है, जो केवल पुरुषों का संगठन है. जो महिलाएं ‘हिन्दू राष्ट्र’ के निर्माण में सहयोगी बनना चाहतीं थीं उन्हें राष्ट्रसेविका समिति बनाने की सलाह दी गयी. कृपया ध्यान दें कि महिलाओं के इस संगठन के नाम से ‘स्व’ शब्द गायब है. यह मात्र संयोग नहीं है. यह इस बात का द्योतक है कि पितृसत्तात्मक विचारधाराएं महिलाओं के ‘स्व’ को पुरुषों के अधीन रखना चाहतीं हैं. इन विचारधाराओं के पैरोकारों के अनुसार महिलाओं को बचपन में अपने पिता, युवा अवस्था में अपने पति और बुढ़ापे में अपने पुत्रों के अधीन रहना चाहिए. लड़कियों के लिए दुर्गा वाहिनी नामक संगठन भी बनाया गया है.

The abolition of sati was the first major stop of the journey towards women's equality.

सती प्रथा का उन्मूलन, महिलाओं की समानता की ओर यात्रा का पहला बड़ा पड़ाव था. परन्तु भाजपा सन 1980 के दशक तक इस प्रथा की समर्थक बनी रही.

राजस्थान के रूपकुंवर सती काण्ड के बाद भाजपा की तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विजयाराजे सिंधिया ने संसद तक मार्च निकल कर यह घोषणा की कि सती प्रथा न केवल भारत की महान परंपरा का हिस्सा है वरन सती होना हिन्दू महिलाओं का अधिकार है.

‘सैवी’ नामक पत्रिका को अप्रैल 1994 को दिए गए अपने साक्षात्कार में भाजपा महिला मोर्चा की मृदुला सिन्हा ने दहेज़ प्रथा और पत्नियों की पिटाई को उचित ठहराया था.

संघ के एक पूर्व प्रचारक प्रमोद मुतालिक ने मंगलौर में पब में मौजूद लड़कियों पर हमले का नेतृत्व किया था. वैलेंटाइन्स डे पर बजरंग दल नियमित रूप से प्रेमी जोड़ों पर हमले करता रहा है. लव जिहाद का हौव्वा भी महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करने के लिए खड़ा किया गया है.

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभिवावकों से कहा है कि वे अपनी लड़कियों पर नज़र रखें और यह देखें कि वे मोबाइल पर किससे बातचीत कर रहीं हैं.

अमरीका में महिलाओं को जो स्वतंत्रताएं हासिल हैं उन्हें देखकर भारत से वहां गए हिन्दू प्रवासियों को इतना धक्का लगता है कि वे विश्व हिन्दू परिषद और संघ से जुड़ी अन्य संस्थाओं के शरण में चले जाते हैं. वे उन लैंगिक समीकरणों को बनाए रखना चाहते हैं जिन्हें वे भारत से अपने साथ ले जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि केवल संघ ही पितृसत्तात्मकता को औचित्यपूर्ण ठहरता है और ‘लड़कियों पर नज़र रखने’ की बात कहता है. हमारा पूरा समाज इस पश्यगामी सोच के चंगुल में है. यही कारण है कि शिल्पा सिंह जैसी महिलाएं, जो मंगलसूत्र या बुर्के के बारे में अपने विचार प्रगट करतीं हैं, उन्हें घेर लिया जाता है. संघ के अलावा धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली अन्य ताकतें भी लैंगिक मसलों पर ऐसे ही विचार रखतीं हैं. इस मामले में तालिबान व बौद्ध और ईसाई कट्टरपंथी एक ही नाव पर सवार हैं. हाँ, उनकी कट्टरता के स्तर और अपनी बात को मनवाने के तरीकों में फर्क हो सकता है.

शिल्पा सिंह इसके पूर्व रोहित वेम्युला, बीफ के नाम पर लिंचिंग और दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे तर्किकतावादियों की हत्या जैसे मुद्दों पर भी अपनी कक्षा में चर्चा करतीं रहीं हैं. आश्चर्य नहीं कि एबीवीपी उन पर हमलावर है.

-राम पुनियानी

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)