नई दिल्ली से तौसीफ़ क़ुरैशी। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत से मिलकर खामोशी अख़्तियार करने के बाद हज़रत मौलाना सैयद अरशद मदनी ने सच कहने की ज़रूरत समझी है, जिसके लिए वो जाने जातें हैं। उनकी खामोशी उनको और उनकी शख़्सियत को सवालिया घेरे में लिए हुए थी, जिसके वह हक़दार नहीं थे लेकिन फिर भी एक सवाल था जिसके जवाब की तलाश की जा रही थी कि उन्होंने आरएसएस चीफ़ से मुलाक़ात क्यों की थी ? जिसका जवाब वह नहीं दे पा रहे थे और न आज ही दिया है। जबकि ये भी सच है कि हज़रत मौलाना सैयद अरशद मदनी (Arshad Madani is the president of Jamiat Ulema-e-Hind.) जैसी शख्सियत शायद ही कोई ग़लत काम करे लेकिन फिर भी इंसान तो इंसान होता है जिसके डगमगाने में देर नहीं लगती उसी डर ने एक सोच को सोचने पर मजबूर कर दिया था कि कही हज़रत मौलाना सैयद अरशद मदनी भी उसी श्रेणी में तो नहीं शामिल हो गए जिसमें उनका भतीजा महमूद मदनी शामिल हैं ?
वैसे देखा जाए तो शख़्सियतों में भी फ़र्क़ होता है। एक शख़्सियत सिर्फ़ सरकार के लिए होती है या यूँ कहें कि सरकार द्वारा ही शख़्सियत बनायी गयी होती है, परन्तु वह उसकी हक़दार ही नहीं होती है क्योंकि ज़बान उनकी होती है और बात सरकार की होती है जिसे वह देश-दुनियाँ में कहते घूमते हैं। उन्हें इसी बात का फ़ायदा मिलता है। यही वजह होती है कि वह शख़्सियतों में शुमार भी हो जाती है लेकिन हक़ीक़त में वो होती नहीं है। ख़ास बात ये है उनकी बातों का अवाम पर कोई असर भी नहीं पड़ता है, बल्कि उल्टा अवाम में उसकी छवि ख़राब हो जाती हैं। बस सरकार खुश हो जाती है कि हमारा संदेश चला गया, जो हम चाहते थे वह हो गया जबकि यह उसकी भूल होती है। ऐसा कुछ
Maulana Arshad Madni meets Mohan Bhagwat.
कम से कम हज़रत मौलाना सैयद अरशद मदनी ऐसी शख़्सियतों में से तो नहीं है कि ज़ुबान उनकी हो और बात दूसरे की हो ज़बान भी उनकी होती है और नज़रिया भी उनका ही होता है।
नई दिल्ली में संगठन के कार्यालय में जमीअत उलेमा-ए-हिन्द की केंद्रीय कार्यकारी समिति की बैठक हुयी जिसमें बड़ी बेबाक़ी और निडरता से उसी तेवर में जिसके लिए वो अपनी पहचान बना चुके हैं या यूँ कहें कि उनकी पहचान बन चुकी है। मौजूदा तमाम मुद्दों पर गहन चर्चा हुई और ये निष्कर्ष निकाला गया कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देश की मौजूदा परिस्थितियों से लोग डरे और सहमे हुए हैं। साथ ही एक अविश्वास की भावना आयी है जो हमारे देश के लिए बेहतर नहीं है। डरे और सहमे होने का ये मतलब क़तई नहीं है कि सरकार से डर रहे हैं। डर इस बात का है कि मुल्क तबाही की और जा रहा है और सरकार उसको संरक्षण दे रही है, जिसका हमें दुख है। हमारे बड़ों ने इसे बड़ी क़ुर्बानियाँ देकर हमें दिया था लेकिन अफ़सोस हम इसे सँभाल नहीं पा रहे जिसकी वजह से हिन्दू, मुसलमान, सिख व ईसाई सहमा और डरा हुआ महसूस कर रहा है। वर्तमान सरकार भारतीय संविधान और कानून को समाप्त करते हुए कानूनी न्याय की संवैधानिक परम्परा को खत्म करने की कोशिश कर रही है जिससे कि नया इतिहास लिखा जा सके।
बैठक में जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष हजरत मौलाना सैयद अरशद मदनी ने गृह मंत्री अमित शाह के उस बयान का विरोध किया जिसमें गृह मंत्री ने गैर मुस्लिम सभी धर्मों को भारतीय नागरिकता देने की बात कही। हज़रत मौलाना मदनी ने कहा कि अमित शाह के बयान से स्पष्ट है कि अमित शाह के निशाने पर सिर्फ मुस्लिम हैं और गृह मंत्री की सोच संविधान की धारा 14-15 के विरुद्ध हैं जिसमें सभी धर्मों को उनके धार्मिक भाषा, खानपान, रहन सहन के नाम पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करने की बात कही गई है।
अंत में हज़रत मौलाना मदनी ने धारा 370 का जिक्र करते हुए कहा कि मामला कोर्ट में है और हमें ये पूर्ण विश्वास है कि कश्मीरियों के साथ न्याय होगा। बाबरी मस्जिद का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द का पूर्ण विश्वास है कि न्यायपालिका का निर्णय आस्था की बुनियाद पर ना होकर सबूतों और कानून की बुनियाद पर होगा और कोर्ट के हर फैसले का जमीअत उलेमा-ए-हिन्द स्वागत करती है। यही सब मुद्दे हावी रहे जमीअत की बैठक में।
हज़रत मौलाना सैयद अरशद मदनी के नेतृत्व वाली जमीअत उलेमा-ए-हिन्द की अवाम में अलग ही छवि है जिसको अवाम हसरत भरी निगाहों से देखती है लेकिन भागवत से मिलने को अवाम सही नहीं मान रही थी या यूँ कहें कि मिलने का तरीक़ा कार गलत था दो अलग-अलग नज़रियों का मिलना-जुलना होना चाहिए लेकिन बात भी दमदार तरीक़े से रखी जानी चाहिए।
भागवत से मिलने के बाद या मिलने से पहले माहौल नहीं बनाया गया जिसका अच्छा संदेश नहीं गया था।
ख़ैर अब उनकी भाषा शैली बता रही है कि जिस रोड मैप पर एक षड्यंत्र के तहत उनको ले जाने की कोशिश की गई थी उस पर वह चल नहीं पाए और वापिस आ गए हैं सुबह का भूला शाम को घर वापिस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते यही मिसाल सही बैठ रही है।