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The new de-huller machine behind the increasing popularity of coarse grains

नई दिल्ली, 09 अप्रैल : गेहूं की रोटी खाकर फूला न समाने वाले समाज की पाँच-सितारा संस्कृति में ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी, रागी (मंडुआ) और झंगोरा जैसे मोटे अनाजों की वापसी हो रही है। इन अनाजों के उपयोग से विभिन्न प्रसंस्कृत उत्पाद बनाए जा रहे हैं, जो पोषक तत्वों से भरपूर होने के कारण लोकप्रिय हो रहे हैं। गरीबों का अन्न कहे जाने वाले मोटे अनाजों से बने उत्पाद अब शहरों के चमचमाते मॉल्स में सहज उपलब्ध हैं। इसकी एक बानगी देहरादून में देखने को मिलती है।

देहरादून के आसपास के ग्रामीण इलाकों में बने बाजरा आधारित कुकीज़, रस, स्नैक्स और नाश्ते से जुड़े अन्य उत्पाद आसपास के ग्रामीण एवं शहरी बाजारों में अपनी पैठ बना रहे हैं। इस बदलाव के केंद्र में मल्टी – फीड बाजरा आधारित डी-हुलर मशीन है, जिसने बाजरे से भूसी को हटाने की लंबी एवं श्रमसाध्य पारंपरिक प्रक्रिया को सरल बना दिया है।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की स्कीम फॉर इक्विटी एम्पावरमेंट ऐंड डेवलपमेंट प्रभाग की तारा योजना के अंतर्गत एक कोर सपोर्ट ग्रुप सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी डेवेलपमेंट (सीटीडी) की पहल से यह संभव हुआ है।

सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी डेवेलपमेंट (Center for Technology Development - सीटीडी) की पहल पर इन डी-हुलर मशीनों में सुधार (millet de-huller) किया गया है।

मल्टी-फीड बाजरा आधारित इन डी-हुलर मशीनों को तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय और केंद्रीय कृषि इंजीनियरिंग संस्थान द्वारा विकसित किया गया है। डी-हुलर मशीन के डिजाइन में बदलाव किया गया है, ताकि एक ही मशीन के उपयोग से बाजरे (मिलेट) की विभिन्न किस्मों की भूसी को हटाया जा सके। इन सुधारों के बाद बाजरे (मिलेट) की विभिन्न किस्मों से भूसी को अलग

करना आसान हो गया है।

बाजरे की जिन किस्मों से भूसी को अलग करने में यह मशीन प्रभावी पायी गई है, उनमें फिंगर मिलेट (दक्षिण भारत में रागी या उत्तराखंड में मंडुआ), बर्न्यार्ड मिलेट (उत्तराखंड में झंगोरा) तथा कुछ दूसरे इलाकों की बाजरे की अन्य किस्में शामिल हैं। बाजरे की खेती भले ही श्रमसाध्य न हो, पर इसकी भूसी अलग करना एक मेहनत भरा काम है। आसान खेती और पोषक तत्वों से भरपूर होने के बावजूद इसी कारण बहुत-से किसान बाजरा उत्पादन को वरीयता नहीं देते हैं। इस मशीन के उपयोग से बाजरे से भूसी अलग करना आसान हो गया है, जिसके कारण स्थानीय किसानों का रुझान बाजरे की खेती की ओर बढ़ रहा है।

डी-हुलर मशीन ने गाँव या गाँवों के क्लस्टर के स्तर पर मूल्यवर्द्धित बाजरे के आटे की आपूर्ति सुनिश्चित की है। इस मॉडल में एक हब या ’मातृ’ (मदर) इकाई शामिल है। ऐसा एक हब देहरादून के सहसपुर में स्थित सोसायटी फॉर इकोनॉमिक ऐंड सोशल स्टडीज (एसईएसएस) की यूनिट सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी डेवेलपमेंट (सीटीडी) में स्थापित किया गया है।

एसईएसएस एक स्वतंत्र गैर-लाभकारी संगठन है, जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों के माध्यम से स्थायी ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम करता है।

यह हब छोटे उद्यमियों द्वारा विकेन्द्रीकृत स्थानों, जहाँ बाजरे की खेती होती है, पर संचालित मॉड्यूलर ‘सैटेलाइट’ इकाइयों के साथ नेटवर्किंग करता है। गाँवों के क्लस्टर के स्तर की ये 'सैटेलाइट' इकाइयां डी-हुलर मशीन का उपयोग मूल्यवर्द्धित भूसी-रहित बाजरे का उत्पादन करने के लिए करती हैं। ग्राइंडर का उपयोग करके बाजरा के आटे का उत्पादन किया जाता है। बाजरा के आटे का उपयोग विभिन्न प्रकार से उत्पादों को बनाने में किया जा सकता है।

यह डी-हुलर मशीन प्रति घंटे 100 किलो अनाज को भूसी – रहित कर सकता है। इसी के साथ ग्रामीणों को ग्राइंडर की सुविधा भी मिलती है, जहाँ वे भूसी-रहित बाजरे से आटा उत्पादन कर सकते हैं। इस तरह किसान मूल्यवर्द्धित बाजरे के आटे से दोगुना मूल्य प्राप्त कर सकते हैं। पैकेजिंग के बाद इस आटे की आपूर्ति पूर्ण रूप से विकसित एक बेकरी में की जाती है, जहाँ इसके उपयोग से कई प्रसंस्कृत पौष्टिक उत्पाद बनाए जाते हैं।

इस समय पाँच अन्य सैटेलाइट इकाइयां विभिन्न चरणों में हैं, जो अलग-अलग इलाकों में कार्यरत हैं। इन इकाइयों से लगभग 400 बाजरा किसान जुड़े हैं। स्थानीय ग्रामीण बाजारों और अपेक्षाकृत अधिक शहरी या क्षेत्रीय उपभोक्ताओं, दोनों के लिए उपयोगी उत्पादों के साथ यह प्रौद्योगिकी पैकेज तथा उद्यम मॉडल छोटे-किसानों द्वारा संचालित स्व-सहायता समूहों, किसान उत्पादक संगठनों और छोटे ग्रामीण उद्यमियों के लिए उपयोगी हो सकती है।

(इंडिया साइंस वायर)