देशव्यापी लॉकडाउन (Nationwide lockdown) के दौर में भी केंद्र सरकार के किसी एक मंत्रालय ने अपना नियमित से भी अधिक काम किया है, तो वह है पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change). सामान्य दिनों से अधिक काम इस मंत्रालय ने इसलिए नहीं किया कि उसे पर्यावरण की चिंता है, बल्कि इसलिए किया कि उसे उद्योगपतियों की चिंता है.
जितनी भी बड़ी परियोजनाओं को सामान्य स्थितियों में पर्यावरण स्वीकृति के समय स्थानीय जनता और पर्यावरणविदों के विरोध का सामना करना पड़ता, उन सभी परियोजनाओं को आनन्-फानन में मंत्रालय ने पर्यावरण स्वीकृति प्रदान कर दी, या फिर ऐसा करने की तरफ बढ़ रहे हैं.
मंत्रालय में पर्यावरण स्वीकृति के लिए जो एक्सपर्ट एप्रेजल कमेटी है, उसकी सामान्य स्थितियों में नियमित बैठक होती या न होती हो पर लॉकडाउन के दौर में विडियो कांफ्रेंसिंग द्वारा नियमित बैठकें की गईं और पर्यावरण का विनाश (Environmental destruction) करने वाले लगभग सभी खनन परियोजनाओं, उद्योगों और जल-विद्युत् परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई. इस दौर में तो न पब्लिक हियरिंग का झंझट है और ना ही स्थल पर किसी विस्तृत अध्ययन का. कोविड 19 की आड़ में सब माफ़ कर दिया गया.
इस दौर में एक एलीफैंट रिज़र्व में कोयला खदान को अनुमति (Permission for coal mine in Elephant Reserve) दी गई, वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी में ड्रिलिंग की अनुमति (Permission for drilling in Wildlife Sanctuary) दी गई और प्रधानमंत्री के पसंदीदा सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट, जिसके अंतर्गत नया संसद भवन और दूसरे भवन बनाने हैं को भी मंजूरी दी
वर्ष 2014 से लगातार पर्यावरण कानूनों को पहले से अधिक लचर करने की कवायद लगातार की जा रही है. 23 मार्च को फिर से मंत्रालय ने पहले के पर्यावरण स्वीकृति के नियमों में ढील देने से सम्बंधित एक ड्राफ्ट प्रकाशित किया है, इसमें जन-सुनवाई का समय कम करने, अनेक उद्योगों को जनसुनवाई के दायरे से बाहर करना इत्यादि का प्रस्ताव है.
कुल मिलाकर एक ऐसी स्थिति बहाल करने का प्रयास किया जा रहा है, जिसमें जनता की भागीदारी ख़त्म की जा सके. इस ड्राफ्ट को प्रकाशित भी 23 मार्च को सोच समझ कर किया गया होगा, 22 मार्च को जनता कर्फ्यू था और 24 मार्च से लॉकडाउन का प्रथम चरण शुरू किया गया था. पर्यावरण मंत्रालय ने सोचा होगा कि परेशान जनता इसे नहीं देखेगी और फिर 60 दिनों बाद इसे ही क़ानून बना दिया जाएगा. पर, पर्यावरणविदों के विरोध के बाद अब इसपर सुझाव/शिकायत की तारीख बढाकर 30 जून कर दिया गया है.
पर्यावरण मंत्रालय, एनजीटी और प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के कामकाज को नजदीक से देखकर यही लगता है कि यदि ये संस्थान बंद कर दिए जाएँ तो संभव हे देश का पर्यावरण बेहतर हो जाए, क्योंकि तब जनता इसका विरोध करना शुरू करेगी.
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तो शुरू से ही एक रीढ़-विहीन जंतु की तरह है और जिसका एक भी काम ऐसा नहीं है जिसे कहा जा सके कि इससे वास्तव में प्रदूषण कम हो रहा है. प्रधानमंत्री के चहेते प्रोजेक्ट, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के विरोध में इसने कभी कुछ नहीं कहा, जबकि दिल्ली/नई दिल्ली वायु प्रदूषण कण्ट्रोल क्षेत्र है, इसका नजफगढ़ बेसिन का हिस्सा अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्र है, यह वर्तमान में दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है, यहाँ की यमुना दुनिया की सबसे प्रदूषित नदी खंड में शुमार है, यहाँ शोर का स्तर कभी भी मानक के अनुरूप नहीं रहता, दिल्ली से इतना कचरा उत्पन्न होता है जिसका प्रबंधन नहीं किया जा सकता है, यहाँ भूजल ख़त्म होने के कगार पर है, और इसमें संरक्षित रिज के क्षेत्र को भी बर्बाद किया जाना है.
जाहिर है, इस सरकार के लिए पर्यावरण संरक्षण कोई मुद्दा नहीं है, जनता कोई मुद्दा नहीं है और वन्य जीव भी कोई मुद्दा नहीं हैं. यह सरकार पहले दिन से कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों के हितों को साध रही है और निकट भविष्य में कोई बड़ा बदलाव होगा, ऐसी उम्मीद नहीं है.
महेंद्र पाण्डेय