क्या इसे महज एक संयोग माना जा सकता है? देशव्यापी लॉकडाउन (Nationwide lockdown) के 79वें दिन (जिसमें ओपनिंग अप के 11 दिन भी शामिल हैं), केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव (Cabinet Secretary to the Central Government), पांच सबसे ज्यादा कोविड-19 प्रभावित राज्यों (The five most affected COVID-19 states) में मौजूदा रुझान के हिसाब से, जून से अगस्त के बीच, आइसीयू बैड, वेंटीलेटर (ICU Bed, Ventilator) आदि, गंभीर रूप से संक्रमितों की जान बचाने के लिए जरूरी सुविधाओं (Facilities required to save lives of severely infected) की, भारी कमी पैदा होने की डरावनी चेतावनी दे रहे थे। वह यह भी याद दिला रहे थे कि पहले ही देश के पूरे 69 जिलों में केस फेटलिटी रेट (Case fatality rate) यानी पॉजिटिव पाए गए केसों में से जान गंवाने वालों की संख्या, अपेक्षाकृत ऊंची बनी हुई है। याद रहे कि उक्त पांच राज्यों में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, दिल्ली, गुजरात तथा उत्तर प्रदेश शामिल हैं यानी यहां देश की आबादी का लगभग 40 फीसद हिस्सा रहता है। दूसरे शब्दों में लॉकडाउन के लगभग अस्सी दिन बाद भी, कम से कम 40 फीसद आबादी के मामले में, कोविड-19 की तबाही (Destruction of COVID-19) तथा खासतौर पर मौतों से बचाने के लिए जो कुछ किया जाना जरूरी था और किया जा सकता था, नहीं किया जा सका था। किसी भी तरह से देखें, इसे महामारी का मुकाबला करने के शासन के प्रयासों की और उसके मुख्य हथियार के रूप में लॉकडाउन की, नाकामी कबूल किया जाना ही कहा जाएगा।
शाह ने तो लफ्फाजी के दांव के तौर पर यह
कैबिनेट सचिव तो सीधे-सीधे महामारी के सिर पर आ गए खतरे के बारे में चेता रहे थे, जो कि देश में कोविड के पॉजिटिव केसों की और मौतों की भी, बड़ी तेजी से बढ़ती संख्या से पैदा हो रही चिंताओं के प्रति सरकार के कम से कम बाखबर होने का भरोसा दिलाने की कोशिश का भी हिस्सा था। लेकिन, ठीक उसी समय प्रधानमंत्री मोदी, इंडियन चैंबर्स ऑफ कामर्स के 95वें वार्षिक सत्र को संबोधित करते हुए, देश के उद्यमियों से अवसर को पहचान कर नई बुलंदियों की ओर जाने का और भारत को आत्मनिर्भर बनाने का आह्वान कर रहे थे।
क्या यह कोविड के प्रसंग में आमतौर पर अपनी सरकार की और खासतौर पर लॉकडाउन की देश के लिए बहुत ही महंगी पड़ी अपनी रणनीति की विफलता के सामने, प्रधानमंत्री के अचानक विषय-परिवर्तन करने के उस पैंतरे का ही मामला नहीं है, जिसका इस्तेमाल टीवी बहसों में हमें आए दिन देखने को मिलता है?
प्रसंगवश जोड़ दें कि इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने उद्योग संगठनों के ऐसे सालाना सम्मेलनों को संबोधित करने की जरूरत नहीं समझी थी। यह तथ्य बेशक, इस महामारी के बीच भी प्रधानमंत्री को, उद्योगपतियों की ही सबसे ज्यादा फिक्र होने को दिखाता है। फिर भी, यह महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री बड़ी तत्परता से विषय-परिवर्तन के अपने खेल के लिए उद्योगपतियों के मंच का उपयोग कर रहे हैं।
बेशक, विषय-परिवर्तन के इस खेल की शुरूआत इससे पहले ही हो चुकी थी। वास्तव में, लॉकडाउन-4 की पूर्व-संध्या में, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में, लॉकडाउन में आगे-आगे ढील दिए जाने का एलान करने के साथ, 20 लाख करोड़ रुपए के कथित पैकेज का जब एलान किया था, तभी विषय-परिवर्तन के लिए आत्मनिर्भर भारत का नया नारा उछाल दिया गया था। वैसे आरएसएस स्कूल में संदर्भ से काटकर जब-तब उछाले जाते रहे इस नारे का, मोदी जी के नारों में इससे भी कुछ पहले प्रवेश हो चुका था।
‘महाभारत के युद्ध के 18 दिन’ बजाए, लॉकडाउन को 21 दिन देने के बाद भी, जब मोदी जी को कोविड-19 वाइरस पर जीत नहीं मिल सकी और प्रधानमंत्री को लॉकडाउन-2 की घोषणा करनी पड़ी, उसके बाद ही पंचायत प्रतिनिधियों के साथ अपने वीडियो कान्फ्रेंसिंग-संवाद में प्रधानमंत्री ने, संभवत: आजमाइश के तौर पर, आत्मनिर्भरता से ही महामारी की चुनौती का सामना करने का विचार रखा था। लेकिन, ग्रामीण संदर्भ में आत्मनिर्भरता की अलग से चर्चा का कोई खास अर्थ ही नहीं होने के चलते, उस समय इस नारे पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन, लॉकडाउन के करीब साढ़े सात हफ्ते बाद, 20 लाख करोड़ रुपए का कथित पैकेज तो पेश ही किया गया था, ‘‘आत्मनिर्भर भारत पैकेज’’ की मोहर लगाकर।
इतने बड़े पैमाने पर जिंदगियां शब्दश: दांव पर जो लगी हुई हैं। अचरज की बात नहीं है कि कैबिनेट सचिव के खतरे की घंटी बजाने के बाद, आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की भी नींद टूटी और उसने खासतौर पर उन्हीं पांच राज्यों में सरकारी अस्पतालों की दयनीय स्थिति का स्वत: संज्ञान लेते हुए, खासतौर पर राज्य सरकारों से कड़े प्रश्न ही नहीं किए, उनसे पांच दिन में ही जवाब देने को भी कहा।
सुप्रीम कोर्ट की इस नयी-नयी सक्रियता ने विषय-परिवर्तन की मुश्किलें कम से कम कुछ तो बढ़ा ही दीं। इसके बाद, मोदी सरकार को शीर्ष स्तर पर, कोविड के मामले पर समीक्षा बैठक कर बढ़ती चुनौतियों का जायजा ही नहीं लेना पड़ा, इस जायजे के आधार पर गृहमंत्री की अगुआई में संबंधित राज्यों की सरकारों से बात करने तथा जरूरी उपाय कराने के लिए केंद्र की ओर से सक्रियता दिखाए जाने का फैसला भी लिया गया। बहरहाल, बात सिर्फ इतनी नहीं है कि प्रधानमंत्री ने मौजूदा गंभीर हालात में भी कोविड के खिलाफ लड़ाई की कमान अपने विश्वस्त सहयोगी को सोंप दी है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि इन हालात में भी केंद्र सरकार, राज्यों को कदम उठाने के लिए तिकतिकाने से ज्यादा अपनी कोई भूमिका नहीं देख रही है।
इस तरह, महामारी के तेजी से बिगड़ते और वास्तव में बेकाबू होते जा रहे हालात के बीच भी बल्कि ऐसे हालात की वजह से भी, विषय-परिवर्तन का खेल जोरों से जारी है।
लॉकडाउन से बल्कि कोविड-19 की चुनौती से ही विषय परिवर्तन के लिए आत्मनिर्भरता के नारे का सहारा लिए जाने के अपने गहरे निहितार्थ हैं, जो स्वतंत्र रूप से विस्तृत चर्चा की मांग करते हैं। यहां तो हम इतना ही ध्यान दिलाएंगे कि यह मोदी सरकार के अपनी विफलता की ओर से ध्यान बंटाने के लिए, कोई नया नारा लगाने भर का मामला नहीं है। यह अपनी विफलता की ओर से ध्यान हटाने के लिए, एक ऐसा नारा उछालने का भी मामला है, मोदी सरकार का वास्तविक अमल जिससे ठीक उल्टा रहा है और आगे भी रहने जा रहा है।
अचरज की बात नहीं है कि इसके साक्ष्य भी खुद कथित 20 लाख करोड़ के पैकेज में ही दे दिए गए, जिसमें आत्मनिर्भरता का जाप करते-करते, प्रतिरक्षा उत्पादन जैसे न सिर्फ आत्मनिर्भरता के लिए बल्कि देश की संप्रभुता के लिए भी महत्वपूर्ण क्षेत्र के दरवाजे, सौ फीसद विदेशी मिल्कियत के लिए खोल दिए गए।
ऐसे ही कोयला व अन्य खनिजों व खनन के क्षेत्र के दरवाजे विदेशी मिल्कियत के लिए चौपट खोलने का एलान कर दिया गया, फिर दूसरे अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों की तो बात ही क्या करना। इसके साथ ही साथ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण की मुहिम को और तेज किया जा रहा है।
लेकिन, शायद इस सबसे महत्वपूर्ण यह, और यह भी इसी पैकेज के गठन से स्पष्ट था कि इस तरह से विषय परिवर्तन की जरूरत, सिर्फ इसलिए नहीं थी कि मोदी सरकार की मुख्यत: लॉकडाउन पर निर्भर कोशिशें, महामारी पर अंकुश लगाने में विफल रही थीं। इस विषय परिवर्तन की जरूरत इसलिए भी थी कि लॉकडाउन की विफलता के बाद, इस सरकार के पास महामारी का मुकाबला करने के लिए, करने को कुछ रह नहीं गया था। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि जो कुछ करने की जरूरत थी, सरकार को करना मंजूर नहीं था। जैसा हमने पहले कहा, जो करने की जरूरत थी वह करना मंजूर न होने के साक्ष्य, खुद 20 लाख करोड़ के कथित पैकेज पर छपे हुए हैं।
विभिन्न आकलनों के अनुसार, खर्च कुल-मिलाकर एक लाख करोड़ रुपए के करीब ही बैठता है और किसी भी तरह से देश के जीडीपी के एक फीसद से ज्यादा नहीं है।
आखिर, महाभारत के युद्ध के सारे रूपक बांधने के बावजूद, महामारी के खिलाफ युद्ध में खर्च करने में इतनी कंजूसी किसलिए?
जाहिर है कि इसकी वजह यह तो हो नहीं सकती कि इस युद्ध के लिए संसाधनों की जरूरत सरकार को दिखाई ही नहीं दे रही हो। अचानक थोपे गए लॉकडाउन के बाद, करोड़ों मेहनत-मजदूरी करने वालों के लिए खाने के लाले पड़ जाने से लेकर, दसियों लाख प्रवासी मजदूरों के जान बचाने के आखिरी उपाय के तौर पर अपने गांव-घर लौटने के लिए पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर के सफर पर निकल पड़ने तक, हर चीज में अपने लॉकडाउन में योजना व तैयारी के अलावा, संसाधनों की कमी सरकार को दिखाई नहीं दे रही हो, ऐसा तो हो नहीं सकता। या महामारी के खिलाफ अग्रिम मोर्चे पर लड़ रहे राज्यों की संसाधनों की मांग उसे सुनाई नहीं दे रही हो यह भी संभव नहीं है।
और यह भी संभव नहीं है कि शुरू से सारे स्वास्थ्य/ महामारी के जानकारों द्वारा की जा रही यह आगही सरकार को सुनाई ही नहीं दी हो कि लॉकडाउन की अवधि का, उधार के समय की तरह तत्पर उपयोग कर, असाधारण रूप से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को खड़ा नहीं किया गया, तो महामारी के बोझ तले पूरी व्यवस्था बैठ जाएगी और देश को इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस सब के बावजूद, मोदी सरकार को न संकट के मारे शहरी व ग्रामीण गरीबों की मदद के लिए कुछ खास करना मंजूर हुआ, न इस लड़ाई में अगले मोर्चे पर लड़ रहे राज्यों की मदद के लिए कुछ करना मंजूर हुआ और न सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे का विस्तार करने के लिए कुछ खास करना मंजूर हुआ।
मीडिया पर मोदी सरकार के सारे शिकंजे के बावजूद, शहरी व ग्रामीण गरीबों और खासतौर पर प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा की अनगिनत दिल हिला देने वाली कहानियां, इस विफलता का जीता जागता सबूत हैं। और रही स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति तो उसका जीता-जागता सबूत देश के कैबिनेट सचिव का खुद इसकी चेतावनी देना है कि ऐसे ही हाल रहे तो देश की चालीस फीसद आबादी, कोविड-19 वाइरस के ही रहमो-करम के भरोसे होगी।
यह भी नहीं भूलें कि कैबिनेट सचिव जब उक्त गंभीर चेतावनी दे रहा था, उसी समय देश का प्रधानमंत्री आत्मनिर्भरता का जाप कर रहा था। यानी इस सामने खड़े दिखाई देते खतरे से बचाने के लिए, मोदी सरकार से कुछ भी करने की उम्मीद कोई नहीं करे!
वास्तव में आत्मनिर्भरता का जाप सबसे बढ़कर इसी सचाई पर पर्दा डालने के लिए है कि यह देश की अब तक की सबसे परनिर्भर सरकार है। जैसा हमने पहले कहा इस परनिर्भरता के अनेक पहलू हैं।
इनमें से एक चौंकाने वाला किंतु काफी कम ही चर्चा में आया पहलू, जिसे हर मामले में पारदर्शिता से दूर भागने वाली मोदी सरकार ने सात पर्दों में छुपा कर रखा हुआ था, उसके दुर्भाग्य से आधिकारिक रूप से आत्मनिर्भरता का जाप शुरू होने के कुछ ही बाद में अचानक उघाड़ा हो गया। हु
आ यह कि लॉकडाउन में संक्रमितों की संख्या और मौतों का भी आंकड़ा बहुत तेजी से बढ़ते रहने के बाद भी मोदी सरकार, जैसा कि उसका तरीका ही हो गया है, यह साबित करने की कोशिशें कर रही थी कि उक्त आंकड़ों के बावजूद, लॉकडाउन का उसका फैसला तो बहुत कामयाब रहा था। इसके लिए, महामारी के फैलाव तथा उसके नुकसान के अनुमान की मॉडलिंग-आधारित कसरतों के जरिए, यह दिखाने की कोशिशें की जा रही थीं कि लॉकडाउन में संक्रमणों और मौतों के तेजी से बढ़ने को मत देखो, इसका शुक्र मनाओ कि मोदी सरकार ने लॉकडाउन लगाकर भारत को इसके कई गुना ज्यादा संक्रमण और मौतों से बचा लिया था। इस तर्क का बेढ़बपन अपनी जगह, इसे लॉकडाउन न होने की स्थिति के संभावित संक्रमणों व मौतों के एक से ज्यादा ग्राफों के सहारे, वैज्ञानिक सत्य की तरह स्थापित करने की कोशिश की जा रही थी।
बहरहाल, इन ग्राफों में एक ग्राफ जो लॉकडॉउन की सबसे जबर्दस्त सफलता का बखान करता था, अपने अति-अतिरंजित लगने के चलते, जानकारों की नजरों में खासतौर पर आया। तब पता चला कि यह ग्राफ तो अमरीकी व्यापारिक कंसल्टेंसी फर्म, बोस्टन कंसल्टेंसी ग्रुप द्वारा तैयार किया गया था।
इसके बाद यह सच भी सामने आने में ज्यादा समय नहीं लगा कि बोस्टन कंसल्टेंसी ग्रुप को बाकायदा, कोविड के संदर्भ में खासतौर पर स्वास्थ्य मंत्रालय के कदमों के लिए परामर्श की जिम्मेदारी ही नहीं सौंपी गयी थी, उसे कृषि मंत्रालय में इस महामारी से संबंधित कंट्रोल रूम में ही बैठा दिया गया था। यह इसके बावजूद था कि इस फर्म का, जिसकी गिनती अमरीका की तीन सबसे बड़ी कंसल्टेंसी फर्मों में होती है, महामारी से निपटने में परामर्श देने का न तो कोई अनुभव था और न उसके पास सांख्यिकीय विश्लेषण के अलावा, इसके लिए जरूरी कोई विशेषज्ञता थी।
आजादी के बाद, पहली ही बार हुआ था कि किसी सरकार ने ऐसे मामले में किसी विदेशी कंपनी को परामर्श का ठेका देने की जरूरत समझी थी और अनेक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने न सिर्फ इस पर हैरानी जतायी थी बल्कि इसे महामारी से निपटने के अपने देश के अनुभव तथा क्षमताओं का तिरस्कार भी बताया था।
याद रहे कि भारत ने इससे पहले निकट अतीत में ही एड्स और उसके बाद सार्स जैसी वाइरस-जनित महामारियों पर कामयाबी के साथ काबू पाकर दिखाया था। जो स्वास्थ्य विशेषज्ञ ऐसे मामलों में व्यवहारवादी रुख अपनाने के पक्ष में थे, उनका भी यह कहना था कि सरकार को कम से कम यह स्पष्ट रूप से बताना चाहिए था कि उक्त अमरीकी बहुराष्ट्रीय परामर्श कंपनी, महामारी के खिलाफ लड़ाई में ऐसी कौन सी विशेषज्ञता मुहैया कराने जा रही थी, जो भारत के पास नहीं थी।
फिर भी यह निर्भरता सिर्फ इस या उस देश या इस या उस कंपनी पर नहीं है। यह निर्भरता तो समग्रता में विदेशी पूंजी पर है, जिसमें उस आवारा पूंजी का बोलबाला है, जिसके पांव में चक्कर है। इस आवारा पूंजी के नाराज होने का डर ही है जो, इस जीवन-मृत्यु के संकट बीच भी नरेंद्र मोदी की सरकार को, वाइरस के खिलाफ युद्ध में किसी उल्लेखनीय पैमाने पर खर्च करने से रोकता है। सरकार खर्च करेगी, तो राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा। राजकोषीय घाटा बढ़ा तो, वैश्विक रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा देंगी और आवारा पूंजी उड़कर किसी और डाल पर जा बैठेगी।
वित्त मंत्री हर हफ्ता-दस दिन में इस आवारा विदेशी पूंजी को इसका भरोसा दिलाना नहीं भूलती हैं कि राजकोषीय घाटे के मामले में सरकार, एकदम लक्ष्य पर है!
अचरज की बात नहीं है कि अब स्वास्थ्य/ महामारी जानकारों व अन्य वैज्ञानिकों की भी बढ़ती संख्या, न सिर्फ लॉकडाउन की अपने लक्ष्यों में सफलता के मोदी सरकार के दावों पर सवाल उठा रही है, बल्कि लॉकडाउन के रूप में भारी कीमत देकर, हासिल की गयी मोहलत का टैस्टिंग से लेकर उपचार तक की सुविधाओं का तेजी से विस्तार करने के बजाए, यह अमूल्य समय टोटकों व तमाशों में बर्बाद किए जाने से लेकर, वास्तव में बिना योजना तथा तैयारी के नोटबंदी की तरह, अचानक ही थोपे जाने के उल्टे पडऩे तक के सवाल उठा रही है।
तीन सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठनों ने तो लॉकडाउन-4 के आखिर में बाकायदा एक संयुक्त पत्र लिखकर कहा था कि, ‘अगर प्रवासियों को महामारी के शुरू में ही घर जाने दिया गया होता, जब बीमारी का प्रसार कम था, तो मौजूदा हालात से बचा जा सकता था।
घर लौट रहे प्रवासी अब अपने साथ संक्रमण देश के कोने-कोने तक, ज्यादातर ऐसे जिलों में ग्रामीण व अर्द्ध-शहरी इलाकों में ले जा रहे हैं, जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाएं अपेक्षाकृत कमजोर हैं।’ इन संगठनों के साथ, खुद मोदी सरकार द्वारा इस महामारी के संबंध में गठित सलाहकार परिषद के कुछ सदस्य भी जुड़े हुए हैं। ये संगठन हैं : इंडियन पब्लिक हैल्थ एसोसिएशन, इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेंटिव एंड सोशल मैडीसन और इंडियन एसोसिएशन ऑफ इपीडेमियोलॉस्ट्सि।
बहरहाल, विफल लॉकडाउन से महामारी की समस्या और बढ़ाने के बाद, अब मोदी सरकार कोविड-19 की ओर से ही मुंह फेरती लग रही है।
राजेंद्र शर्मा