‘वाट मस्ट वी डू देन’ (What must we do then) में लियो टोलस्टॉय जब अपने जीवन अनुभवों को लिखते हैं तब उनके चिंतन का मूल आधार यही होता है कि जब तक सभी के शरीर पर एक कोट नहीं हो जाता तब तक हमें दो कोट पहनने का कोई हक नहीं बनता। भारतीय सामाजिक अर्थशास्त्र को समझाते हुए गांधी इस विचार की पैरोकारी ही नहीं करते बल्कि इसे अपने जीवन में उतारते भी हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि कोई ईमानदार पूंजीपति हो ही नहीं सकता।
इतिहास के पन्नों को पलटने से पता चलता है कि दुनिया में जो महामारियाँ आई उससे बहुत कुछ बदल गया और उस बदलाव से सबसे ज्यादा क्षति गरीब, किसान-मजदूर की हुई। इन महामारियों ने अनगिनत लोगों की जानें ली और बहुतों को विस्थापित होने के लिए मजबूर किया। इन महामारियों ने भावी आर्थिक परिदृश्यों को बदल दिया जिसमें एक ओर छोटी पूंजी के मालिक, किसान, दुकानदार श्रमिकों में बदल गए और गरीब मजदूर बहुत लंबे समय तक अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य हुए जबकि दूसरी ओर उसी दौर में दुनिया के उद्योगपतियों, पूंजीपतियों, मुनाफाखोरों या जमाखोरों की संपत्ति और पूंजी अकूत धन के रूप में इकट्ठा होती चली गयी जिनके भीतर इन श्रमिकों के लिए कोई संवेदना कभी नहीं दिखाई दी।
देश में आई मंदी के बाद गाँव से लेकर शहरों तक रोजी-रोजगार का अभाव बढ़ता गया और जिसके परिणामस्वरूप पिछले वर्ष बेरोजगारी पैंतालीस वर्षों में सबसे ऊपर चली गयी, जिसे आकड़ों मे छः प्रतिशत से ऊपर देखा गया।
जब आम आदमी की क्रय शक्ति खत्म
मैं एक प्रसंग का जिक्र कर रहा हूँ कि 2014-15 के साल में हमारे एक जानने वाले से बात-चीत के दौरान यह धारणा बनती हुई दिखाई दी थी कि देश में कुछ पूँजीपतियों को अत्यधिक लाभ कमवाना और उन्हें बड़े पूंजीपति के रूप में खड़ा करना सरकार का मुख्य एजेंडा है और आज इनकी बढ़ती पूंजी को देख ये बाते सिद्ध होती हैं। कभी शहर के नुक्कड़ों, गाँव के चौराहों तथा कौड़ा पर बैठे लोग इन बहसों में शुमार रहते थे कि जहां जितनी बड़ी हवेलियाँ होंगी वहीं सबसे ज्यादा झोपड़ियाँ भी होंगी।
टॉलस्टॉय ने आइफिल टावर को मनुष्य के ज्ञान का नहीं मूर्खता का प्रतीक बताया था (Tolstoy described the Eiffel Tower as a symbol of foolishness, not knowledge of man.) क्योंकि आइफिल टावर जैसी दुनिया में टावर हों या पाँच सितारा होटल हों, गगनचुम्बी इमारते हों, या अंटीलिया जैसे घर या अरबों रुपये खर्च करके सुंदर से सुंदर दर्शनीय स्थल बन जाए या किसानों को उजाड़ कर पाँच सौ फुट ऊंची महात्मा बुद्ध की मूर्ति बनाने की मैत्रेय जैसी परियोजना हो या हजारों करोड़ खर्च करके सरदार पटेल की मूर्ति बनाने या बीस हजार करोड़ खर्च कर नया संसद भवन बनाने की योजना का प्रस्ताव हो, ये सभी चीज़ें कुछ लोगों द्वारा कमाए गए अनैतिक पैसे से आराम और विलासितापूर्ण जीवन बिताने के लिए हैं और कुछ लोग इसे अपने सम्मान का प्रतीक भी समझ सकते हैं, लेकिन मौलिक रूप से देखा जाए तो यह अरबों रुपयों का बजट इस देश में लाखों की संख्या में आत्महत्या कर रहे किसान, कुपोषण के शिकार मजदूर, गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों की बुरी हालत को सुधारने में कोई मदद नहीं कर सकता बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि सारे हालात की जड़ यही है।
यानि जब इसका विश्लेषण किया जाए तो ये साफ होता है कि देश में गरीबी, भुखमरी और बेहाली का मूल कारण व्यवस्था द्वारा देश का ज्यादा से ज्यादा बजट पूँजीपतियों की सुविधा और उनके हित में खर्च किया जाना है। एक ओर उन उद्योगपतियों और पूँजीपतियों को अकूत मुनाफा कमाने की मनमाना छूट दी जाती है और दूसरी ओर देश में गरीब मजदूर और मेहनतकश वर्ग की रोजी -रोटी एवं पारिश्रमिक का उचित निर्धारण एवं सामाजिक सुरक्षा का भी ध्यान नहीं रखा जाता। जिसका परिणाम होता है कि देश की सारी पूंजी कुछ लोगों के पास इकट्ठा हो जाती है जो "पूंजी की तानाशाही" (Dictatorship of capital) के रूप में काम करने लगती है।
दुनिया में पूंजी को लेकर झगड़े बहुत ही ज्यादा हैं। विषय यह है कि "मनुष्य पूँजी के लिए है या पूँजी मनुष्य के लिए।"
हजारों वर्षों से जो व्यवस्थायें चली आ रही हैं वे दिखती चाहे किसी भी रूप में हो लेकिन उसके केंद्र मे पूंजी ही है जिसके लिए सभी तंत्र विकसित किए गए हैं।
एक बहुत बड़ा तबका मूलभूत संसाधनों और सुविधाओं से क्यूँ वंचित है जबकि एक बहुत छोटा तबका इन ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं, प्रतीक चिन्हों एवं भोग विलास की जिंदगी पर इतना इतराता है कि इस देश की बहुत बड़ी आबादी को मनुष्य ही नहीं समझता। ये सारे हालात जो पैदा हुए हैं इसका और कोई कारण नहीं है। सिर्फ और सिर्फ इसके अंदर घुसी घोर भ्रष्ट पूंजीवादी व्यवस्था है। ये सभी जानते हैं कि पूंजी मनुष्य के लिए तभी हो सकती है जब एक बेहतरीन समाजवादी व्यवस्था होगी जो कि हमारा संवैधानिक मूल्य भी है। उसके बावजूद भी देश में जो मानसिक गुलाम हैं उन्हें ये कतई बर्दाश्त नहीं है कि देश में गरीब मजदूर किसान जो सैकड़ों वर्षों से पीड़ित रहा है उसे समाज में सही तरीके से जीने का हक हो इसीलिए अभी भी किसानों, मजदूरों, गरीबों, महिलाओं के सामने कठिन हालात पैदा किए जा रहे हैं जो पूंजीवादी नीतियों के ही परिणाम हैं।
देश में आई कोरोना महामारी के कारण हुए लॉकडाउन (Lockdown caused by corona epidemic) को एक माह से ज्यादा दिन हो चुके हैं। पूरा देश केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के हर आदेश का पालन एवं सहयोग करते हुए जिस हालत में था उसी हालत में अपने-अपने घरों मे बंद हो गया है लेकिन देश में करोड़ों मजदूर छोटे से बड़े शहरों में जिनका अपना ठिकाना नहीं था वो अति विषम परिस्थिति का सामना करते हुए अपने को सुरक्षित रखने में लगे हैं। इस बीच देखा गया कि तथाकथित कॉर्पोरेट मीडिया से लेकर देश के भारी भरकम तंत्र द्वारा उन्हें, जो निश्चित रूप से एक मजदूर हैं, माइग्रेन्ट के रूप में प्रचारित किया गया है। हमें इस पर घोर आपत्ति है। पूंजीपति या उद्योगपति या तथाकथित कॉर्पोरेट मीडिया एवं कुछ खाए-अघाए लोग या जो लोग ये समझते हों कि मेहनत करने वाले मजदूर इनकी मर्सी पर जिंदा हैं ये उनकी धृष्टता है। उन्हें ये समझना चाहिए कि इन तथाकथित लोगों की जो हैसियत है उन मजदूरों की श्रम के लूट के कारण ही है तथा इस देश का निर्माण और स्वाभिमान उस मेहनतकश मजदूर के बलबूते ही है और इस लोकतत्र में जिन्हें सत्ता की ताकत मिली है वह ताकत उनके वोट की ही है चाहे जिस तरीके से ले ली गई हो।
देश की सरकारें और इस देश के तथाकथित समझदार लोग उन्हें पढ-लिख कर समझदार नहीं होने देना चाहते। इनकी चालाकी भरी कुटिलता को वे समझ जाएंगे तो अपने श्रम की कीमत समझने लगेंगे जिसके कारण पूरे तंत्र के द्वारा उनका जो शोषण हो रहा है वो मुश्किल हो जाएगा और उनके श्रम के बल पर विलासितापूर्ण जीवन जी रहे लोगों के लिए मुश्किलें पैदा होंगी। इस लॉकडाउन के दौरान अचानक हजारों मजदूर मुंबई में बांद्रा रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए ये खबर पाकर की ट्रेने जा रही है। अफरातफरी मच गयी और भीड़ को भगाने के लिए पुलिस के मुताबिक सौम्य बल का प्रयोग किया गया। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि एक चैनल का पत्रकार जो पीत पत्रकारिता के लिए जाना जाता है उसने चीख चीख कर कहा कि, “ये मजदूर (माईग्रेंट वर्कर) नहीं थे। ये पिकनिक मनाने आए थे। दिल्ली की भाषा में वेल्लापंती करने आए थे।”
यहाँ तक कि मजदूरों को चिन्हित करके आरोप लगाया गया कि ये कोरोना फैलाने मे सहायक हैं। साथ ही इस महामारी को हिन्दू-मुस्लिम के नजरिए से देखा जाना भी दुर्भाग्यपूर्ण है।
निश्चित है कि ये लॉकडाउन उन मजदूरों के लिए दोगुना कष्टकारक है क्योंकि एक तरफ कोरोना का डर है तो दूसरी तरफ पेट की आग है। देश के बड़े शहरों में जो मजदूर फंसे हैं उनके पास निश्चित रूप से किसी किस्म का इंतेजाम नहीं होगा जिसके कारण व कहीं-कहीं लॉकडाउन को तोड़कर भीड़ के रूप में निकल जा रहे हैं।
यह तय है कि कोरोना वायरस महामारी देश के लिए एक बड़ी आपदा है लेकिन लॉकडाउन इस देश के गरीबों मजदूरों किसानों के लिए और भी बड़ा संकट है।
मंदी के दौरान देश के उद्योगपतियों का मुनाफा कम होने की उम्मीद थी। भारत सरकार ने एन. पी. ए. राइट ऑफ करने से लेकर, कॉर्पोरेट कर पर छूट तथा रिजर्व बैंक पर धारा सात का इस्तेमाल करते हुए अर्थव्यवस्था और पूँजीपतियों को बूस्टर डोज़ देने का काम किया। कुल मिलाकर लाखों करोड़ का बजट जो जनता का ही पैसा टैक्स के रूप में लिया गया है उसे उद्योगपतियों को देने में कोई हिचक नहीं हुई और उनका मुनाफा सामान्य हालत से ज्यादा बढ़ गया। देश के खजाने में तथा देश के उद्योगपतियों के पास जो अकूत धन गया है वह किसी न किसी रूप में टैक्स या मुनाफे के तौर पर जनता से ही लिया गया है वह जनता का ही है। और देश की अन्नदाता या श्रम दाता या देश के निर्माणकर्ता के नाम से वोट के लिए जिनके बीच में अपील की जाती है आज वे ही मालिक मजदूर-किसान के रूप में बेहाल हैं और ये बेहाली महामारी टलने के बाद और जोर पकड़ेगी क्योंकि पहले से ही अर्थव्यवस्था के चरमरा जाने की सूचनायें देश और दुनिया के अर्थशास्त्रियों के माध्यम से आ रही हैं। उनकी भी चिंता इस बात की है कि जबतक अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आएगी और देश में जितने भी रोजगार के साधन हैं सुचारु रूप से नहीं चलते हैं तब तक देश का मेहनतकश मजदूर किसान जो लगातार उत्पादन कार्यों मे लगा हुआ है उनकी हालत बिगड़ती जाएगी। उनके लिए ठोस जीने का साधन तब तक के लिए उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। जिसके लिए बि.पी.एल परिवारों, छोटे-बड़े किसानों और सभी किस्म के मजदूरों को मुफ़्त राशन तथा अन्य खर्चों के लिए एक मुश्त धनराशि और सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
शिवाजी राय
अध्यक्ष- किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा