मोदी का जातीय कार्ड (Modi's ethnic card) कहीं आरएसएस (RSS) का “बांटो और राज करो” (Divide and rule) की रणनीति का अगला कदम और विचारधारात्मक बदलाव का संकेत तो नहीं ?
महाराष्ट्र के माढ़ा (Madha of Maharashtra) से एक चुनावी रैली (Election rally) में संघ के स्वयंसेवक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने कर्नाटक (Karnataka) में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी (Congress President Rahul Gandhi) के “मोदी” उपनाम वाले बयान पर प्रतिक्रिया देते हुये कांग्रेस पर आरोप लगाया कि मेरे पिछड़ा समुदाय से आने के कारण कांग्रेस मुझे “चोर” कहकर गाली दे रही है। लेकिन जब आप मोदी जी के भाषण को ध्यान से सुनते हैं तो आप देखेंगे कि ये पहले अपनी बात “मोदी” नामक जाति से शुरू करते हैं और बाद में अपने भाषण देने की कला से पूरे पिछड़ा समुदाय को इस घेरे में ढंक लेते हैं और चुनाव में ये खुद जातीयता को उभारने की कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं।
इस बयान से मुझे कांग्रेस नेताओं के दो हालिया चुनावी बयान याद आतें है। जिस पर मोदी और संघ ने जातीय कार्ड खेला हो- पहला 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने मोदी को लेकर बयान दिया कि “नरेंद्र मोदी ने अमेठी में उनके शहीद पिता का अपमान किया है और इस नीच राजनीति का अमेठी की जनता जबाब देगी।” मानों यह प्रियंका गांधी जी का बयान नहीं, मोदी के लिए चुनाव जीतने की जादुई छड़ी थी और अगले ही दिन कांग्रेस से ही भाजपा में सम्मिलित हुए जगदंबिका पाल के लिए चुनाव प्रचार करते हुए डुमरियागंज मे कहा कि “हां, मैं एक नीची जाति में जरूर पैदा हुआ हूँ, लेकिन मेरा सपना एक श्रेष्ठ भारत का निर्माण करना है। इसी चुनावी सम्बोधन में यह भी कहा कि मोदी को
दरअसल मोदी के इस चुनावी भाषण की कोशिश दलितों और पिछड़ों को उनका जातिगत आधार पर परिचय का एहसास कराकर, अपने पक्ष में साधने की थी और नरेंद्र मोदी इसमें सफल भी हुए।
दूसरा बयान, 2017 के गुजरात चुनाव के दौरान कांग्रेस नेता मणिशंकर ने दिया और कहा कि “नरेंद्र मोदी नीच किस्म के आदमी हैं, जिसमें कोई सभ्यता नहीं है।” मोदी जी ने इस बयान को अपनी जाति, गुजराती अस्मिता और इज्जत से जोड़ दिया और इसमें भी मोदी जी कामयाब हो गए।
इन दोनों बयानों में आप देखेंगे कि नरेंद्र मोदी ने जाति और समुदाय का मामला बनाकर और गुजराती अस्मिता तथा इज्जत का सवाल बनाकर चुनावों में वोटों की फसल काट ली और तीसरे को भी (जो महाराष्ट्र में इन्होंने दिया है) जातिगत आधार पर भुनाने की कोशिश कर रहे हैं।
इसके अलावा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (2017) में किसी विशेष पिछड़ी जाति (यादव) और दलित जाति( जाटव) के प्रति अन्य पिछड़ी और दलित जतियों को बरगलाकर और उनके खिलाफ असंतोष पैदा करके भाजपा और आरएसएस ने पिछड़ों और दलितों को विभाजित कर दिया।
अब सितंबर 2018 में विज्ञान भवन में मोहन भागवत द्वारा एक प्रश्न के जबाब में यह कहा गया कि मुस्लिमों के बिना कोई हिन्दुत्व नहीं है और मुस्लिमों के बिना न ही कोई हिंदूराष्ट्र है, जबकि आरएसएस के वास्तविक निर्माता गुरु गोलवलकर जिनसे संघ सबसे ज्यादा प्रभावित है, उन्होंने अपनी पुस्तक “we are our nationhood defined” (1939) में मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक बताया और मुस्लिमों का देश से ठीक वैसे ही सफाया चाहते थे जैसे कि हिटलर ने यहूदियों का जर्मनी में किया था। इन्होंने अपनी एक दूसरी पुस्तक “bunch of thoughts” 1966 मे मुस्लिमों को देश के तीन प्रमुख दुश्मनों मे सम्मिलित किया।
अब इधर हम देखते हैं कि विभिन्न चुनावों में आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी, “जाति” के कार्ड को धर्म के कार्ड के एकदम समानान्तर लेके चल रही है। जैसा कि हमें 2019 के चुनाव में मोदी के द्वारा असली “पिछड़ा कौन” की बहस मध्यम वर्गीय लोगों में छोड़कर, पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यक समुदाय में एक रेखा खींचने की कोशिश की जा रही है, तो साध्वी प्रज्ञा और योगी आदित्यनाथ को चुनावी मैदान में उतारकर धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की भी कोशिश की जा रही है। जबकि शुरू से ही भारतीय सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना रहा है कि आरएसएस और उसकी राजनीतिक संस्था, भारतीय जनता पार्टी धर्म की राजनीति करती रही है और इसी राजनीति के बल पर इन्हें चुनावी सफलता मिलती रही है, और जब-जब राजनीति में जाति के मुद्दे प्रमुखता से उठते हैं तब-तब उसे चुनावी रण में मात खानी पड़ती है। और अब तक यह माना जाता रहा है कि आरएसएस-बीजेपी की विराट हिंदू एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा “जाति” ही रही है जिसके कारण आरएसएस विभिन्न अवसरों पर सामाजिक समरसता अभियान चलाता रहा है और आरएसएस जाति का उन्मूलन चाहता है।
हम पहले की चुनावों का अध्ययन करें तो हम समग्र में पाते हैं कि धर्म के ध्रुवीकरण की राजनीति ही भारतीय जनता पार्टी को जिताती है और जाति के खेल में यह हमेशा से असफल होती आई है।
तो क्या आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी की जाति कार्ड एक नई चुनावी रणनीति है या विचारधारात्मक बदलाव ?
हमें यह याद रखना चाहिए कि ये वहीं नरेंद्र मोदी हैं जो विभिन्न अवसरों पर स्वयं को संघ का सच्चा स्वयंसेवक बताते रहे हैं और यहीं संघ है जो बाबासाहेब के अनुयायियों को अपने पक्ष में करने के लिए बार – बार चीख कर कहता है कि बाबा साहब के रास्तों पर चलकर वह जातियों का उन्मूलन करना चाहता है।
इधर हम पहले देखते थे कि आरएसएस की तमाम सोशल इंजीनियरिंग के बावजूद, भाजपा मूल रूप से सवर्णों और बनियों की पार्टी बनी हुई थी। लेकिन 2014 के उपरांत इसकी जातिगत राजनीति निचले स्तर पर बहुत सारे एससी और ओबीसी की जतियों को भाजपा और संघ ने एक रणनीति के तहत अपनी तरफ आकर्षित किया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में तो यह “जाति” का कार्ड खुलकर खेल रही है। जिसके माध्यम में यह पिछड़ी जातियों में एक बहस पैदा कर दी है कि वास्तविक पिछड़ा कौन है। इस बहस के कारण पिछड़ी जातियाँ भी आपस में बटने के कगार पर पहुँच गई है। जिसका फायदा आरएसएस के अनुषंगिक राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को मिलने की पूरी उम्मीद है।
तो क्या अब आरएसएस अपने अनुषंगिक राजनीतिक संगठन के माध्यम से जाति उन्मुलन के लक्ष्य को छोडकर, जाति की राजनीति (Caste politics) करने को अपने आप को तैयार कर रहा है।
अब हमें यह बात समझना होगा कि आखिर क्यों मुस्लिमों का कट्टर दुश्मन संगठन आज उनके प्रति नरमी दिखा रहा है और क्यों जातिगत आधार पर राजनीति कर रहा है ?
दरअसल यह इस बदलते परिवेश में यह सिर्फ भारतीय जनता पार्टी का एक चुनावी मुहिम नहीं है बल्कि यह ब्राह्मणवादी संगठन आरएसएस का एक गुप्त एजेंडा भी है, जो अपने फायर ब्रांड नेता मोदी को पिछड़ा साबित करते हुये उनके कंधे पर ब्राह्मणवाद की बंदूक रखकर चला रहा है और भारतीय समाज में जातीय व्यवस्था को जिंदा रखते हुए उन्हें विभिन्न वर्गों या जतियों में बाटकर ही अब उन्हे हिन्दुत्व के झंडे के नीचे लाने की कोशिश कर रहा है ।
राजेंद्र कुमार यादव
एम .फिल .(शोध क्षेत्र - आर.एस.एस.)
गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग
अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय (वर्धा )