तीन कृषि कानूनों और बिजली संशोधन विधेयक की वापसी के मुद्दे पर, सरकार और किसानों के बीच गतिरोध खत्म होने के फिलहाल कोई आसार नहीं हैं। प्रधानमंत्री के विशेष रूप से विश्वस्त, गृहमंत्री अमित शाह के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के बाद, जब यह साफ हो गया कि सरकार, कृषि कानूनों तथा बिजली विधेयक को वापस लेने के लिए तैयार नहीं है और वास्तव में तीन में दो कृषि कानूनों में मामूली फेरबदल करने तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लिखित आश्वासन देने पर विचार करने से आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं है, आंदोलन की कमान संभाल रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने और बातचीत में दिलचस्पी नहीं होने और 12 नवंबर को देश भर में सभी टोल प्लाजा बंद कर तथा 14 नवंबर को देश भर में धरनों का आयोजन कर, संघर्ष और तेज करने का एलान कर दिया।
उधर
पर यह तो होना ही था। इन वार्ताओं को तो विफल होना ही था। कृषि कानूनों व अन्य कुछ मुद्दों पर किसान संगठनों के साथ कुल पांच दौर की और 27 नवंबर से बड़ी संख्या में किसानों के दिल्ली के सिंघू, टिकरी व अन्य बार्डरों पर आकर जम जाने के बाद से, तीन दौर की वार्ताएं क्यों विफल रहीं, इसे किसानों के इस आंदोलन के ही संदर्भ में, नीति आयोग के उपाध्यक्ष की हाल की एक चर्चित टिप्पणी से समझा सकता है।
नीति आयोग, मोदी सरकार की अपनी रचना है, जो उसी प्रकार नेहरू राज की योजना आयोग की विरासत को खत्म करने के लिए रची गयी, जैसे आजादी के बाद से जनतांत्रिक भारत की संसद के भवन की जगह लेने के लिए, मोदी सरकार नया संसद भवन बनवा रही है।
और अमिताभ कांत, प्रधानमंत्री के खास विश्वासपात्रों में हैं। वह शब्दों में न सही, कम से कम भावना में तो मौजूदा सरकार के मन की बात करते ही हैं। उन्होंने इसकी शिकायत की थी कि इस देश में बहुत ज्यादा ही डैमोक्रेसी है। इतनी ज्यादा डैमोक्रेसी कि, सरकार के लिए कड़े सुधार करना मुश्किल है। यही चला तो भारत के लिए चीन के मुकाबले में खड़े होना मुश्किल होगा!
चीन के साथ मुकाबले की लफ्फाजी की बात अगर हम छोड़ दें तो, मोदी सरकार का यह नीतिगत प्रवक्ता संक्षेप में दो बातें कह रहा था। पहली यह कि, जिन कृषि कानूनों आदि के खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें किसी न किसी तरह से लादने में सरकार की दिलचस्पी कोई इसलिए नहीं है कि सही हो या गलत, वह यह समझती है कि ये कदम किसानों के हित में हैं। इन कदमों में मोदी सरकार की विशेष दिलचस्पी इसलिए है कि वह यह मानती है कि ये, ‘कड़े सुधार’ के कदम हैं।
वास्तव में, नवउदारवादी नीतियों के दौर में जब से जनहित की जगह पर कथित ‘सुधार’ को सरकारी नीतियों का लक्ष्य बनाने का चलन चला है, तभी से ‘सुधार’ की इस अवधारणा के साथ, जनता के किसी न किसी तबके पर इनकी मार पड़ने या उसके लिए इन सुधारों के ‘कड़े’ साबित होने की सच्चाई का एहसास भी लगा रहा है। और यह तो होना ही है।
नवउदारवादी रास्ता तो संक्षेप में किसानों समेत तमाम लघु उत्पादकों की तबाही की कीमत पर, बड़ी पूंजी के खेल के मैदान को बढ़ाया जाने का रास्ता ही है। उसके लिए जो सुधार है, वह लघु उत्पादकों की बर्बादी का ही दूसरा नाम है।
अचरज नहीं कि इन कथित सुधारों की पैरवी आक्रामक तरीके से इस कड़ाई की, यह कीमत चुकाए जाने की मांग करती है। जाहिर है कि नीति आयोग के मुखिया, इसी कड़ाई की पैरवी कर रहे हैं। वास्तव में वह मोदी राज को भी इसकी याद दिला रहे हैं कि उसकी तो ख्याति ही विरोध की यानी इस कीमत की परवाह न कर, ‘कड़े’ फै सले या सुधार करने की है, चाहे नोटबंदी हो या एनआरसी-सीएए या धारा-370 का खात्मा, चाहे जीएसटी हो या लॉकडाउन। जाहिर है कि यह सिर्फ कड़ाई का या अंधाधुंध कड़ाई का या अंधी तानाशाही का मामला कभी नहीं होता है। हर मामले में यह कड़ाई जनता या उसके किसी न किसी तबके के लिए ही रही है, जबकि ये नीतियां देसी बड़ी पूंजी से लेकर, उसके बड़े भाई बहुराष्ट्रीय कार्पोरेटों तक पर नरमी की या लाभों की ही बारिश करती रही हैं।
नये कृषि कानून तथा बिजली विधेयक आदि, किसानों के लिए अगर कड़े हैं, तो इसलिए कि वे कार्पोरेटों तथा बहुराष्ट्रीय एग्री-बिजनस पर विशेष रूप से नरम या उनके लिए रास्ता खोलने वाले हैं। इन कृषि कानूनों का मुख्य उद्देश्य भारतीय कृषि में, बड़ी पूंजी के इन खिलाड़ियों की पैठ के लिए रास्ता बनाना है और यह तो तभी साफ कर दिया गया था, जब जून के महीने में कोविड महामारी के चलते, ‘जरूरत से ज्यादा डैमोक्रेसी’ के लगभग स्थगन का फायदा उठाकर, अध्यादेशों के रूप में तीन कृषि कानूनों को, जाहिर है कि बिना किसी विचार-विमर्श के थोप दिया गया था। मिसाल के तौर पर आवश्यक वस्तु कानून में संशोधन कर, सभी कृषि मालों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर किए जाने को उचित ठहराते हुए तभी कहा गया था, ‘पैदा करने, रोक कर रखने, हटाने, वितरण तथा आपूर्ति करने की स्वतंत्रता, बड़े पैमाने की अनुकूलताओं का लाभ लिए जाने और कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र/ विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के आकर्षित होने की ओर ले जाएगा।’
कृषि में निजी क्षेत्र/ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करना ही है, जो मोदी सरकार की नजरों में चाहे कितना भी कड़ा हो, बहुत ही जरूरी ‘सुधार’ है, जबकि किसानों की नजरों में यह उनकी मौत का परवाना है। याद रहे कि इन कथित सुधारों को अपनी मौत का परवाना मानने वालों में अपेक्षाकृत संपन्न किसानों से लेकर, भूमिहीन किंतु कृषि पर निर्भर, खेत मजदूरों तक, सभी शामिल हैं। इसकी वजह यह है कि सरकार कुछ भी कहती रहे यह रास्ता भारत में किसानी खेती को खत्म कर, विकसित पश्चिम की तर्ज पर कार्पोरेट खेती लाने का रास्ता है। जाहिर है कि यह रास्ता, कृषि पर निर्भर देश की आधी से ज्यादा आबादी के लिए और इसलिए, देश की अर्थव्यवस्था के लिए ही बर्बादी का ही रास्ता है। लेकिन, यह कृषि व्यवसाय में पांव फैलाने के लिए उत्सुक, अडानी-अंबानी जैसे कार्पोरेटों के लिए तो और खुशहाली का ही रास्ता है।
पश्चिमी देशों की हद तक तो नहीं, फिर भी भारतीय कृषि के एक बड़े हिस्से पर कार्पोरेट/ बड़ी पूंजी के नियंत्रण का तो, ग्रामीण भारत को पुराना अनुभव भी है, भले ही यह अनुभव आजादी से पहले के दौर का है। इस अनुभव में एक ओर नील की खेती का अनुभव है, जिसके खिलाफ चम्पारण से महत्मा गांधी ने आवाज उठायी थी। और इसमें ब्रिटिश हुकूमत में बार-बार पड़े अकालों का और खासतौर पर उन्नीस सौ चालीस के दशक के पूर्वाद्र्घ में पड़े बंगाल के भीषण अकाल का अनुभव भी है, जिसमें दसियों लाख लोगों ने भूख से सिर्फ इसलिए जान दे दी थी कि देश में कृषि पैदावार में कोई कमी नहीं होने के बावजूद, उसकी प्राथमिकताएं और वितरण, विदेशी हाथों में थे। और इसमें, ब्रिटिश हुकूमत के अंतिम पचास वर्षों में भारत में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में, भारी शुद्घ कमी यानी भारतीयों की भूख में भारी बढ़ोतरी का अनुभव भी शामिल है।
इसी सारे अनुभव को ध्यान में रखते हुए और जाहिर है कि तीस के दशक से उठे जोरदार किसान आंदोलनों के दबाव में भी, आजादी के बाद के पहले कई दशकों में पूरा जोर, किसानी-खेती को मजबूत करने पर रहा था और इसमें देशी-विदेशी बड़ी पूंजी की कृषि में घुसपैठ को नियंत्रित करना भी शामिल था। लेकिन, नवउदारवाद के दौर में आत्मघाती तरीके से कृषि में बड़ी पूंजी की घुसपैठ के लिए रास्ते खोले जाते रहे हैं और अब मोदी सरकार, जिसके लिए आजादी से पहले के दौर के अनुभवों का कोई अस्तित्व ही नहीं है, इन कृषि कानूनों के जरिए ये दरवाजे चौपट ही खोल देना चाहती है। जाहिर है कि उसे इसकी कोई परवाह नहीं है कि ठीक यही एजेंडा साम्राज्यवाद का है, जो विश्व व्यापार संगठन में कृषि संबंधी वार्ताओं में भारत में एमएसपी पर किसानों से खरीद, कृषि सब्सीडियों तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को खत्म कराने के भारी दबाव के रूप में, बराबर सामने आता रहा है। नील की खेती, पश्चिम की जरूरतों के हिसाब से उत्पादन के लिए भारत की खेती की जमीनों को आरक्षित/ नियंत्रित करने का काम, प्रत्यक्ष औपनिवेशिक नियंत्रण की मदद से करती थी, साम्राज्यवाद अब बिना प्रत्यक्ष नियंत्रण के, व्यापार के जरिए करना चाहता है। पर मकसद वही है। हमारी जमीन, व्यावहारिक मानों में उनकी हो जाए।
देश के किसान इसी बड़े खतरे को पहचान कर, लड़ाई में उतरे हैं। किसानी के खतरे में आम तौर पर अर्थव्यवस्था तथा खासतौर पर खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे को पहचान कर, मेहनतकशों के अन्य तबके भी उनका साथ दे रहे हैं। यह लड़ाई लंबी चलेगी। इस लड़ाई (Farmers Protest) में किसानों की जीत में ही देश की जीत है। किसान आज अगर हार गया तो भारत का आत्मनिर्भर होना तो दूर, आजादी के बाद पहली बार देहात तक पर-निर्भर हो जाएगा।
राजेंद्र शर्मा