काई के गुणों की पहचान कर पश्चिमी देशों में इस पर काफी प्रयोग किए जा रहे हैं। यूरोप में शहरों के बीच पेड़ों पर काई उगाने (Growing moss on trees between cities in Europe) से लेकर मॉस वॉल (Moss wall) तक बनाने के प्रयोग किए गए हैं। जापान में काई कई तरह से इस्तेमाल में लाई जाती है।
पाश की कविता “मैं घास हूं” आप सबने जरूर पढ़ी होगी। उनके बोए हुए अमूल्य शब्दों में घास की जगह आप काई को भी रख सकते हैं। इसका मिज़ाज भी कुछ ऐसा ही होता है। बंजर हो या बारिश से भीगी ज़मीन, चट्टान हो या सूखी रेतीली मिट्टी, हर मुश्किल हालात में अपना परिवार बसा लेने वाली काई (जिसे अंग्रेजी में मॉस कहेंगे) आपके गले का हार भी बन सकती है। कानों के बूंदे, उंगली पर किसी का वादा बन चमकने वाली अंगूठी की शक्ल भी ले सकती है।
जिस काई को हम अक्सर अपना दुश्मन मान बैठते हैं, जैसे वे आपके पांव फिसला कर गिरा देने पर अमादा हों। यदि आपके आस-पास उग रही है, तो शुक्र है। उसका होना हमारे
हल्द्वानी में उत्तराखंड वन अनुंसधान केंद्र की शोधार्थी तनुजा ने काई के सौंदर्य को पहचाना। उन्होंने काई से आभूषण (Moss jewelery) और सजावटी वस्तुएं तैयार की हैं। तनुजा बताती हैं “मैंने गूगल में काई के बारे में पड़ताल की। जापान में मॉस से बने आभूषण बहुत ट्रेंड में है। तो मुझे लगा कि हम भी इस तरह का कुछ काम कर सकते हैं।”
वह बताती हैं “इस आभूषण के लिए इपॉक्सी रेज़िन का इस्तेमाल किया है। इपॉक्सी रेजिन और इसके मोल्ड, चेन, लॉकेट, अंगूठी सब ऑनलाइन ऑर्डर किया। 12-13 सौ रुपये में सारा सामान आ गया। मॉस को रेजिन के ज़रिये मोल्ड में फिट किया। इससे 15-20 लॉकेट और अंगूठी तैयार हो गई। बाज़ार में ये अपनी लागत से दो-तीन गुने अधिक दाम पर मिलती हैं।” ये आभूषण स्थानीय महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए आजीविका का साधन भी बन सकते हैं। तनुजा के बनाए हुए इन मॉस आभूषणों को नैनीताल के मॉस गार्डन के इंटरपिटेशन सेंटर में रखा गया है। ताकि लोग काई के सौंदर्य से भी परीचित हों।
मिट्टी को गेंद नुमा बनाकर उस पर मॉस की एक परत चढ़ानी होती है। कई ऐसे प्लांट होते हैं जो घर में छायादार जगहों पर पनपते हैं जैसे कि सेक्यूलेंट। ऐसे पौधों को इस बॉल के ऊपर लगाना होता है। फिर रस्सियों के सहारे उसे घर के किसी कोने में टांगा जा सकता है। मॉस से बने आभूषण और मॉस बॉल दोनों की ही काफी डिमांड होती है”।
उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र (Uttarakhand Forest Research Center) ने नैनीताल के सरियाताल के पास लिंगाधार में करीब 7 हेक्टेअर क्षेत्र में मॉस गार्डन तैयार किया है। जिसमें करीब एक हेक्टेअर में काई की 27 प्रजातियां संरक्षित की गई हैं। बाकी क्षेत्र में मॉस ट्रेल बनायी जा रही है। इस ट्रेल पर पर्यटक कुदरत को करीब से निहार सकते हैं। देश में ये अपनी तरह का पहला मॉस गार्डन है। आईयूसीएन की रेडलिस्ट में शामिल काई की दो प्रजातियां भी आप यहां देख सकते हैं। कैंपा योजना के तहत ये मॉस गार्डन तैयार किया गया है। चारों तरफ घने ऊंचे पेड़ और नम मिट्टी काई के विस्तृत संसार के लिए अच्छा माहौल तैयार करते हैं। कम तापमान और स्वच्छ माहौल काई की अलग-अलग प्रजातियों के पनपने और बने रहने के लिए कुदरती माहौल देते हैं।
मॉस गार्डन में प्रथम विश्वयुद्ध में घायल आयरलैंड के सैनिकों की पेन्टिंग दिखेगी। जिसमें काई से सैनिकों का इलाज (Treating soldiers with moss) किया जा रहा है। काई में औषधीय गुण भी होते हैं। आयरलैंड के घायल सैनिकों के जख्मों पर खास किस्म की काई का मरहम लगाया गया था। जिससे उनकी चोट ठीक हुई।
इसी तरह यहां आपको विशालकाय डायनासोर की पेन्टिंग भी दिख सकती है। ये बताने के लिए कि काई डायनासोर के समय से अब तक धरती पर बनी हुई है।
काई की ताकत | Moss strength
वनस्पति विज्ञान में एमएससी करने वाली शोधार्थी तनुजा कहती हैं कि एक इंच से भी छोटे कद की काई दरअसल बहुत ताकतवर होती है। “बंजर ज़मीन हो या सुनामी आने, आग लगने जैसी वजहों से ज़मीन खराब हो गई हो। काई ऐसी ज़मीन पर भी उगने की क्षमता रखती है। ऐसी ज़मीन पर सबसे पहले काई ही आती है।
अलग-अलग ज़मीन पर अलग-अलग तरह की काई आती है। कुछ पानी वाली होती हैं। कुछ पत्थर वाली। कुछ रेत पर आती हैं। ये हैबिटेट स्पेसिफिक (Habitat Specific) होती हैं। जैसा माहौल होता है, वहां वैसी ही काई पनपती है। जैसे कि कुछ काई ऐसी होती हैं जो जंगल की आग के बाद ही आती हैं। वही सबसे पहले अपना परिवार बढ़ाती हैं।
काई का जीवन चक्र (Moss life cycle) पूरा होने के बाद मिट्टी दूसरे पौधों के उगने लायक बनती है। उस पर लाइकन-फर्न के पौधे (Lichen-fern plants) आते हैं। फिर बड़े पौधे उगते हैं। ऊंचे क्षेत्रों में सख्त पत्थरों-चट्टानों पर भी काई उगती है। जिससे वो टूटते हैं और वहां दूसरे पौधे के उगने का माहौल तैयार होता है।
प्रदूषण कम करने में काई का कमाल Moss 's work in reducing pollution
काई कुदरत का इंडिकेटर भी है। आसपास का वातावरण अच्छा होगा तो वहां काई होगी। इसकी मौजूदगी से जंगल की सेहत (Forest health) का पता चलता है। इसका होना स्वच्छ हवा, पानी की उपलब्धता, मिट्टी में जरूरी पोषक तत्वों की मौजूदगी दर्शाता है।
ये नन्हा पौधा वायु प्रदूषण से लड़ता है और हवा की गुणवत्ता में सुधार लाता है। हवा में मौजूद प्रदूषणकारी तत्वों को ये कुदरती तौर पर फिल्टर करता है। नदी-तालाब के पानी को भी ये कुदरती तौर पर फिल्टर करता है और उनमें प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों को सोख लेता है।
काई के इन गुणों की पहचान कर पश्चिमी देशों में इस पर काफी प्रयोग किए जा रहे हैं। यूरोप में शहरों के बीच पेड़ों पर काई उगाने से लेकर मॉस वॉल (moss wall india) तक बनाने के प्रयोग किए गए हैं। जापान में काई कई तरह से इस्तेमाल में लाई जाती है।
तो अगली बार जब आप पुरानी इमारतों, दीवारों, हरे पेड़ों या गीले मैदानों पर पसरी काई देखें तो इस नन्हे पौधे की ताकत जरूर पहचानें। प्रकृति का ये हरा रंग आपके गले या उंगली पर बहार बनकर टिका रह सकता है।
वर्षा सिंह
मूलतः न्यूज़ क्लिक में प्रकाशित लेख का संपादित रूप साभार