नई दिल्ली, 07 मई 2020 (अमलेन्दु उपाध्याय). एक हालिया अध्ययन में यह सामने आया है कि अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं किया गया तो तो दुनिया की लगभग एक तिहाई आबादी को आशियाना देने वाला भूभाग सहारा क्षेत्र के सबसे गर्म हिस्सों जितना गर्म हो जाएगा।
यह शोध ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी एण्ड साइंसेज ’ जर्नल में इस हफ्ते प्रकाशित हुआ है। चीन, अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस अध्ययन के मुताबिक लगातार बढ़ते तापमान के कारण 3.5 अरब लोगों को उस आबोहवा से वंचित होना पड़ेगा, जिसका इंसान पिछले 6000 साल से आदी रहा है।
पुरातत्वविदों, पारिस्थितिकीविदों और जलवायु वैज्ञानिकों के अंतर्राष्ट्रीय शोध दल द्वारा निकाला गया यह निष्कर्ष इस समय अधिक महत्व को हो जाता है क्योंकि पूरी दुनिया में अरबों लोग कोरोना के संक्रमण के मद्देनजर लॉक डाउन में हैं।
इस अध्ययन दल द्वारा निकाले गये तथ्य एक स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि अगर कार्बन का उत्सर्जन जारी रहा तो दुनिया और भी अभूतपूर्व संकट के कगार पर पहुंच जाएगी।
दुनिया की सभी जैव प्रजातियों का अपना एक अनुकूल पर्यावरण होता है जिसमें वोह फलती फूलती और पनपती हैं। तमाम तकनीकी तरक्की ( जैसे एयर कंडीशनिंग , हीटिंग जैसी सुविधाओं) के बावजूद यह कहना सही नहीं होगा कि इंसान इससे अछूता है। अध्ययन में दिखाया गया है कि पिछले एक हजार साल ( मिलेनियम) से इंसान धरती पर मौजूद उसी जलवायु खोल (Climate Envelope) के छोटे से हिस्से में रह रही है, जहां औसत वार्षिक माध्य तापमान (मीन एनुअल टेंपरेचर यानी Mean annual temperature एमएटी) 11 से 15 डिग्री सेल्सियस के बीच है। इसी अनुकूल तापमान में फसलों
अध्ययन कहता है कि तापमान के इस मूलभूत स्वभाव को मानें तो फसलों और पशुधन का मौजूदा उत्पादन काफी हद तक समान स्थितियों तक सीमित हैं और साल-दर-साल बदलाव के विश्लेषण के जरिये देशों के कृषि तथा गैर कृषि आर्थिक उत्पादन के लिये भी यही ऑप्टिमम है।
विभिन्न आबादियां जलवायु में होने वाले बदलावों पर आसानी से नजर नहीं रखेंगी, क्योंकि हालात के हिसाब से ढलकर कुछ चुनौतियों से निपटा जा सकता है और विस्थापन से जुड़े फैसलों पर अन्य अनेक कारणों का असर पड़ता है। फिर भी, अगर लोगों ने अपना ठिकाना नहीं बदला तो एक अनुमान के मुताबिक दुनिया की एक-तिहाई आबादी 29 डिग्री सेल्सियस एमएटी की गर्मी में तपेगी, जो अभी पृथ्वी के कुल धरातल के सिर्फ 0.8 प्रतिशत हिस्से पर ही पड़ रही है। यह ज्यादातर इलाका सहारा रेगिस्तान में है। चूंकि अधिकांश प्रभावित इलाका दुनिया के सबसे गरीब क्षेत्रों में शुमार किया जाता है और वहां मौसम के हिसाब से ढलने की क्षमता कम है, इसलिये इन इलाकों में जलवायु को बेहतर करने के साथ-साथ मानव विकास को भी बढ़ावा देने को तरजीह देनी होगी। ग्लोबल वार्मिंग पारिस्थितिकी तंत्रों के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य, आजीविका, खाद्य सुरक्षा, जल आपूर्ति और आर्थिक विकास को कई तरह से प्रभावित करेगी
मानव आबादी मुख्यत: संकरे जलवायु बैंड्स में बसी है। ज्यादातर लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां सालाना औसत तापमान करीब 11-15 डिग्री सेल्सियस (52-59 डिग्री फारेनहाइट) होता है। वहीं, अपेक्षाकृत कम संख्या में लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां औसत तापमान 20-25 डिग्री सेल्सियस (68-77 डिग्री फारेनहाइट) होता है।
अपने चीनी सहकर्मी नानजिंग यूनिवर्सिटी के झू ची के सहयोग से अनुसंधान के साथ समन्वय करने वाले वेजनिंग्न यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर मार्टेन शेफर के मुताबिक
‘‘आश्चर्यजनक रूप से स्थिर जलवायु सम्भवत: उस मूलभूत रक्षाकवच का प्रतिनिधित्व करती है जो इंसान के जिंदा रहने और फलने-फूलने के लिये जरूरी है।’’
मानव द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के परिणामस्वरूप तापमान में तेजी से बढ़ोत्तरी होने का अनुमान है। ऐसे हालात में जब उत्सर्जन बेरोकटोक बढ़ रहा है, वर्ष 2070 तक एक औसत व्यक्ति द्वारा महसूस किये जाने वाले तापमान में 7.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी। यह अपेक्षित वैश्विक औसत तापमान (3 डिग्री सेल्सियस से कुछ ज्यादा) से कहीं अधिक होगा, क्योंकि महासागर के मुकाबले धरती अधिक तेजी से गर्म होगी। इसकी एक वजह यह भी होगी कि जनसंख्या वृद्धि का सिलसिला पहले से ही गर्म स्थानों में जारी है।
अध्ययन कहता है कि अगर ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोत्तरी इसी तरह जारी रही तो तेजी से बढ़ने वाले तापमान और वैश्विक जनसंख्या से जुड़े अनुमानित बदलावों के कारण अगले 50 साल के अंदर दुनिया की करीब 30 प्रतिशत आबादी को औसतन 29 डिग्री सेल्सियस तापमान में रहना पड़ेगा। इस वक्त ऐसी गर्मी, दुनिया के मात्र 0.8 प्रतिशत हिस्से में ही पड़ रही है। इनमें से ज्यादातर इलाका सहारा रेगिस्तान के सबसे गर्म क्षेत्रों में है। मगर, वर्ष 2070 तक दुनिया का 19 प्रतिशत भूभाग ऐसी गर्मी की चपेट में आ सकता है।
इस अध्ययन के सह-लेखक, आहस यूनीवर्सिटी के जेंस-क्रिश्चियन स्वेनिंग ने कहा
‘‘ऐसा होने पर लगभग 3.5 अरब लोगों के लिये लगभग न रहने लायक परिस्थितियां बन जाएंगी।’’
शेफर ने कहा
‘‘कोरोना वायरस ने दुनिया को इस तरह बदल दिया है, जैसा कि कुछ महीने पहले सोचा भी नहीं जा सकता था और हमारे निष्कर्ष यह बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से भी किस तरह ऐसी ही विपदा आ सकती है। हालांकि यह मुसीबत उतनी तेजी से सामने नहीं आयेगी, लेकिन कोरोना महामारी के विपरीत, तब राहत की कोई राह नहीं दिखायी देगी। धरती के बड़े इलाके उस स्तर तक तपेंगे, जहां इंसान का रहना शायद ही मुमकिन हो पाए। वे भूभाग फिर कभी ठंडे नहीं हो पाएंगे। इसके न सिर्फ प्रत्यक्ष विध्वंसकारी प्रभाव होंगे, बल्कि इससे भविष्य में किसी नयी महामारी से लड़ने की हमारे समाज की क्षमता भी कम होगी। ऐसा होने से रोकने के लिये कार्बन के उत्सर्जन को कम करना ही एकमात्र रास्ता है।’’
अध्ययन कहता है कि अधिकांश वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि मानव गतिविधि "ग्लोबल वार्मिंग" के लिए जिम्मेदार है, जिसका अर्थ है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी अब भी जारी है। आशियानों का नष्ट होना, प्रदूषण, और ग्लोबल वार्मिंग के साथ अन्य कारण पौधों और जानवरों की प्रजातियों के एक बड़े पैमाने पर विलुप्त होने की वजह बन रहे हैं।
‘‘यह अच्छी खबर है कि अगर इंसान ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में कामयाब रहा तो इन मौसमी प्रभावों को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। हमारी गणना के मुताबिक वैश्विक तापमान में मौजूदा स्तर से एक डिग्री की वृद्धि होने से मोटे तौर पर एक अरब लोग उस आबोहवा से बाहर हो जाएंगे, जिसमें वह अब तक रहते आये हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के फायदों को सिर्फ मौद्रिक हिसाब से कहीं ज्यादा मानवता की रक्षा के लिहाज से भी व्यक्त कर सकते हैं।’’
इस अध्ययन के लेखकों का मानना है कि जलवायु में इसी तरह बेरोकटोक परिवर्तन होता रहा तो उससे प्रभावित होने वाली 3.5 अरब जनसंख्या का एक हिस्सा दूसरे स्थानों पर अपना ठिकाना ढूंढ सकता है, मगर जलवायु परिवर्तन के अलावा और भी अनेक कारण होते हैं जो किसी के विस्थापित होने के फैसलों पर असर डालते हैं। विस्थापित होने का दबाव कुछ हद तक जलवायु के हिसाब से ढलकर भी सहन किया जा सकता है।
शेफर के मुताबिक
‘‘जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाला विस्थापन (Displacement due to climate change) कितना तीव्र होगा, इसका अभी अंदाजा लगाना अब भी एक चुनौती है। लोग विस्थापित होना पसंद नहीं करते। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सीमाओं के अंदर रहकर स्थानीय स्तर पर अनुकूलन की सम्भावनाएं भी हैं, लेकिन ग्लोबल साउथ में इसके लिये तीव्र मानव विकास को बढ़ावा देना होगा।’’
Why a holistic approach is necessary to prevent climate change
शेफर के मुताबिक
‘‘यह अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि आखिर क्यों जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिये एक समग्र दृष्टिकोण जरूरी है, जो ऐसी दुनिया बनाने के लिहाज से महत्वपूर्ण है, जिसमें सभी इंसान पूरी गरिमा के साथ रह सकें। इस दृष्टिकोण में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के हिसाब से ढलना, सामाजिक मुद्दों का समाधान करना, सुशासन लाना और विकास को मजबूत करने के साथ-साथ उन लोगों के लिये सहानुभूतिपूर्ण तरीके से कानूनी रास्ते निकालना, जिनके घर प्रभावित हुए हैं।’’
झू ची के मुताबिक
‘‘सच कहूं तो शुरुआती परिणामों ने तो हमारे होश ही उड़ा दिये। चूंकि हमारे निष्कर्ष बेहद चौंकाने वाले थे लिहाजा हमने सभी अनुमानों और गणनाओं को ध्यानपूर्वक जांचने के लिये एक साल का और समय लिया। हमने पारदर्शिता बरतने के लिये सम्पूर्ण डेटा और कम्प्यूटर कोड्स को प्रकाशित कराने का फैसला किया, ताकि अन्य लोगों को उसके आगे का काम करने में मदद मिल सके। यह परिणाम चीन के लिये भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने कि किसी अन्य देश के लिये। स्पष्ट है कि हमें एक वैश्विक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है ताकि हम अनुमानित बदलाव के कारण उत्पन्न होने वाले बहुत व्यापक सामाजिक टकरावों से अपने बच्चों को बचा सकें।’’
वॉशिंग्टन स्टेट यूनीवर्सिटी, पुलमैन में पुरातत्वविद् टिम कोलर के मुताबिक
‘‘नयी प्रौद्योगिकी और विश्वव्यापी समन्वित प्रयासों ने मानवता के अतीत को समेटने की हमारी शक्ति में वृद्धि की है। अब यह जलवायु पर हमारी गहरी निर्भरता को तलाशने में मदद कर रहा है और यह आश्चर्यजनक रूप से निरन्तरता भरा है, जो समय के साथ बना हुआ है। हमारे पास ऐसे अनेक पुरातात्विक उदाहरण हैं, जब जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों को विस्थापित होना पड़ा है।’’
बेहद गर्म इलाकों का लगातार बढ़ना जलवायु से जुड़े परिदृश्य की एक आम बात है। वर्तमान समय में सालाना माध्य तापमान (>29 डिग्री सेल्सियस) सहारा क्षेत्र के छोटे गहरे रंग के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। अनुमान है कि वर्ष 2070 में आरसीपी परिदृश्य के बाद पूरे छायांकित इलाके में ऐसे ही हालात बन जाएंगे। जनसांख्यिकीय विकास के एसएसपी3 परिदृश्य के हिसाब से अगर लोगों ने वह इलाका नहीं छोड़ा तो वर्ष 2070 तक वहां साढ़े तीन अरब लोग रह रहे होंगे। पृष्ठभूमि के रंग वार्षिक तापमानों के मौजूदा माध्य को दर्शाते हैं।
इस अध्ययन पत्र में मुख्य रूप से आरसीपी 8.5 परिदृश्य का इस्तेमाल किया गया है, जो ऐसे भविष्य का प्रतिनिधित्व करता है जिमसें ग्रीनहाउस गैसों की वायुमंडलीय सांद्रता बहुत ज्यादा है।