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देशबन्धु में संपादकीय आज (Editorial in Deshbandhu today)

अनियोजित विकास परियोजनाओं के कारण विनाश पर ध्यान देने की आवश्यकता है

विकास-विकास की रट लगाते भारत के कर्णधारों को थोड़ा ध्यान उस विनाश पर भी देने की जरूरत है, जो अविचारित विकास परियोजनाओं की देन (Destruction due to unplanned development projects) है। देश के कई हिस्से इस वक्त भारी बारिश और बाढ़ का कहर झेल रहे हैं और इसके साथ ही सूखे की आशंका बिहार जैसे राज्यों में अभी से दिखाई दे रही है।

धरती का सूखापन कैसे दूर हो?

बिहार में इस बार सामान्य से 40 प्रतिशत कम बारिश हुई है, जिस वजह से दक्षिण हिस्सों में सूखे के हालात पैदा हो गए हैं। बारिश कम होने की वजह से नदी-नालों और नहरों में पर्याप्त पानी नहीं है। इससे धान समेत खरीफ की फसल प्रभावित हुई है। किसानों को सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है। अब सरकार इस बात पर विचार कर रही है कि किस तरह किसानों को हुए नुकसान की भरपाई की जाए। हो सकता है सूखा राहत पैकेज जैसा कोई कदम उठाया जाएगा। किसानों को थोड़ा बहुत मुआवजा मिल जाएगा, लेकिन धरती का सूखापन किसी मुआवजे से खत्म नहीं हो सकता।

बिहार में एक साथ सूखा और बाढ़

बिहार का एक हिस्सा अगर सूखे की चपेट में आता दिख रहा है तो दूसरे हिस्से में बारिश की चेतावनी है और मौसम विभाग ने लोगों को बेवजह घर से न निकलने की सलाह दी है। एक साथ बाढ़ और सूखे की यह विडंबना बिहार अरसे से झेल रहा है। इसकी चपेट में सबसे अधिक गरीब तबका आता है, जो दोनों ही कारणों से बेघर होने या

पलायन करने पर मजबूर होता है।

गरीबों पर ही पड़ती है मौसम की मार

बिहार ही नहीं मौसम की मार हर जगह सबसे अधिक गरीब लोगों पर ही पड़ती है, क्योंकि उनके पास इतनी ताकत नहीं है कि वे मौसम को अपने अनुकूल बना लें। पानी साफ करने की मशीनें, सर्दी में घर को गर्म करने और गर्मियों में ठंडक बनाए रखने की विलासिता भी अमीरों के पास ही उपलब्ध हैं। इसके बाद भी संपन्न तबके की सुख-सुविधा की तृष्णा खत्म नहीं होती, तो अपने आनंद के लिए वे प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की कोशिश करते हैं, और इसका खामियाजा भी एक बार फिर गरीबों को ही भुगतना पड़ता है।

हाल ही में भारी बारिश के कारण जिस तरह के हालात उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बने हैं, उनसे यही बात साबित होती है।

News of bridge breaking and many houses collapsed due to cloudburst in Uttarakhand

हिमाचल प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और उत्तराखंड सहित कई राज्यों में भारी बारिश के कारण तबाही का मंजर बन गया है। बीते शनिवार को ही इन राज्यों में कम से कम 33 लोगों की मौत बारिश और भूस्खलन के कारण हुई है। उत्तराखंड में बादल फटने के कारण पुल टूटने और कई मकान ढहने की खबर है। कई जगहों पर खेत ही बह गए हैं और राज्य के चारों धामों को जाने वाली सभी सड़कें बंद हो गई हैं।

https://twitter.com/AnupamTrivedi26/status/1560835905992019970

मोदी की महत्वाकांक्षी परियोजना ऑलवेदर रोड पहाड़ों का काल बनी

ऑलवेदर रोड नाम वाली ये सड़कें फिलहाल एक सौ से ज्यादा जगहों पर बंद हो गई हैं। ऑलवेदर रोड यानी हर मौसम में चलने वाली ये सड़कें प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक थीं। लगभग 12 हजार करोड़ की लागत की इस परियोजना में पहाड़ों के साथ-साथ बहुत से पेड़ों को भी काटना पड़ रहा था, जिसका कई पर्यावरणविदों ने विरोध किया था। मामला एनजीटी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गया। बाद में इस परियोजना को हरी झंडी मिल गई।

राजनैतिक दलों के लिए यह बड़ी उपलब्धि हो सकती है कि जिस योजना की घोषणा चुनावी मंच से की जाए, उसे पूरा करने का श्रेय भी लेने मिले। लेकिन यह श्रेय किस कीमत पर मिल रहा है, इस पर भी विचार होना चाहिए।

क्या पहाड़ों पर ऑल वेदर घूमा जा सकता है? (Is it possible to travel all-weather on the mountains?)

पहाड़ों की संरचना इस तरह की नहीं होती है कि वहां हर मौसम में घूमा जाए। इसलिए पहले तीर्थाटन भी मौसम और समय के अनुकूल किया जाता था। लेकिन विज्ञान की तरक्की ने इंसान में शायद यह घमंड भी भर दिया है कि वह हर चीज पर विजय पा सकता है। शायद पहाड़ को नीचा दिखाने के लिए हर मौसम में चलने वाली सड़क बनाने जैसे विचार आए होंगे।

https://twitter.com/shubhamtorres09/status/1560811693911187456

प्रकृति पर काबू पाने की ऐसी ही कोशिश पहाड़ी इलाकों में नदियों किनारे बने उन आरामगाहों में देखी जा सकती है, जहां शहरों के अमीर मौज के कुछ दिन बिताने जाते हैं। शुक्रवार, शनिवार को हुई भारी बारिश में देहरादून में बने ऐसे कई रिसॉर्ट्स में पानी भर गया और वहां रुके पर्यटकों को बड़ी मुश्किल से बचा कर बाहर लाया गया।

एसडीआरएफ की टीमों ने बड़ी मुश्किल से पर्यटकों को बाहर निकाला। इनमें से कुछ का कहना है कि रिसॉर्ट में जिस तरह देखते-देखते पानी भर गया और उन्हें किसी तरह जंगल में सारी रात बितानी पड़ी और कई घंटों के बाद मदद मिली, उसने केदारनाथ में हुई तबाही की खौफनाक याद दिला दी।

और कितनी केदारनाथ दुर्घटनाएं?

केदारनाथ की दुर्घटना याद आना तो ठीक है, लेकिन सवाल ये है कि ऐसी और कितनी दुर्घटनाओं को हम याद करना चाहते हैं, जो हमारी अपनी नासमझी के कारण घटी हैं। इस सदी की शुरुआत में जब सुनामी ने तबाही मचाई थी, तब भी उसका अधिक असर वहां हुआ, जहां मैंग्रोव के जंगल काटकर कंक्रीट के ढांचे खड़े किए गए। इस बार भी अगर नदी और जंगल के किनारे रिसॉर्ट न बनाकर उस जगह को प्राकृतिक रूप में रहने दिया जाता तो शायद पानी को निकलने का रास्ता मिलता और वह लोगों के लिए जानलेवा न साबित हुआ होता। लेकिन अफसोस कि साल दर साल ऐसे विनाश के हम गवाह बनते जा रहे हैं और खुद की जिम्मेदारी समझने की जगह प्रकृति पर दोष मढ़ रहे हैं।

आज का देशबन्धु का संपादकीय (Today’s Deshbandhu editorial) का संपादित रूप साभार.

Need to focus on destruction caused by development

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