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नये गोडसे और नये गांधी New godse and new gandhi

इसे अगर संयोग भी मानें तब भी बहुत इसे बहुत अर्थपूर्ण संयोग कहना होगा। महात्मा गांधी की शहादत (Martyrdom of mahatma gandhi) की 72वीं बरसी पर, खुद को ‘रामभक्त’ गोपाल बताने वाले एक नौजवान ने, 2020 की 30 जनवरी को, 1948 की 30 जनवरी की नाथूराम गोडसे की करतूत दोहराई।

2020 के गोडसे के दुर्भाग्य से, उसके पास न तो अपने पूर्ववर्ती जैसी गोली चलाने की तैयारी थी और न उसके जैसा अचूक हथियार था। नतीजे में 2020 का गोडसे, सात दशक पहले के अपने पूर्ववर्ती का प्रहसन जैसा भी नजर आ सकता है, बशर्ते उसके खतरनाक निहितार्थों को अनदेखा कर दिया जाए।

बेशक, उसने गोली चलाई और देश की राजधानी दिल्ली में ही गोली चलाई और एक से ज्यादा बार गोली चलाई। लेकिन उसकी गोली का शिकार हुआ जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के छात्र, खतरे से बाहर बताया जाता है।

2020 के गोडसे के ‘शहादत’ हासिल करने के मंसूबों का तो और भी प्रहसन बनता नजर आता है।

अमित शाह की पुलिस ने उसे कट्टा लहराते हुए तथा गोली चलाते हुए अपना वीडियो फेसबुक पर लाइव प्रसारित करने के लिए पर्याप्त मोहलत देते हुए पकड़ा जरूर, लेकिन उसे छात्रों के गुस्से से बचाने का ही काम ज्यादा किया।

और इसके मुश्किल से घंटे भर में ही संघ-भक्त सोशल मीडिया सेना उसके बचाव के लिए रणनीतिक तरीके से इसका प्रचार शुरू कर चुकी थी कि वह तो मुश्किल से सत्रह साल का बच्चा था और उसके परिवार वालों के अनुसार उसकी मानसिक दशा ठीक नहीं थी।

उधर, राजा से बढ़कर राजा के वफादार, द रिपब्लिक जैसे झूठ प्रचार चैनल ने, पहले इस गोलीबारी के जामिया के छात्रों

के सीएए-एनआरसीविरोधी आंदोलन (Anti-CAA-NRC movement of Jamia students) के ‘हिंसक हो जाने’ के सबूत के तौर पर पेश करने विफल कोशिश की और बाद में इसके दावे करने शुरू कर दिए कि ‘सरफिरे किशोर’ की इस हरकत के लिए, सीएए-एनपीआर-एनआरसी विरोधी ही जिम्मेदार हैं। गोपाल ने जो कुछ किया, वह महीने भर से ज्यादा से जारी, ‘शाहीनबाग के उकसावे’ की प्रतिक्रिया थी!

‘उकसावे की प्रतिक्रिया’ का यह तर्क हम पहले भी तो सुन चुके हैं। गोधरा की प्रतिक्रिया, गुजरात-2002!

बहरहाल, गोडसे के इस नये जन्म में नया सिर्फ यही नहीं है कि आज, सोशल मीडिया से लेकर परंपरागत मीडिया तक में, उसके हिमायतियों की पूरी की पूरी फौज खड़ी हो चुकी है। बेशक, नाथूराम गोडसे भी कोई अकेला ही नहीं था। उसका साथ देने वाले सिर्फ उतने ही नहीं थे, जितने को गांधी की हत्या के मुकदमे में कटघरे में खड़ा किया गया था, जिनमें सावरकर भी शामिल थे, जिन्हें शायद इसलिए भी बहुत से लोग आग्रहपूर्वक ‘वीर’ साबित करना चाहते हैं।

गोडसे का साथ देने वालों में हिंदू महासभा और कथित रूप से उसका पूर्व-दीक्षादायी संगठन आरएसएस भी शामिल था, जिसके साथ नाथूराम के अंत तक जुड़े होने तथा आरएसएस को हत्याकांड के नतीजों की आंच से बचाने के लिए ही नाथूराम के अदालत में उससे बाद में अलग होने की बात कहने का दावा किसी सेकुलर ने नहीं, खुद गोडसे बंधुओं में से एक ने किया था।

इन संगठनों से भी आगे तक, हालांकि  सबसे बढ़कर इन संगठनों की करनियों से ही, नफरत और द्वेष का एक पूरा का पूरा ईको-सिस्टम बना था, जिसने गोडसे को गोडसे बनाया था। तब के देश के गृहमंत्री सरदार पटेल ने, न सिर्फ इस तरह के ‘वातावरण’ को अनेक हत्याओं के लिए और सबसे बढ़कर गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया था, इस वातावरण को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए आरएसएस पर पाबंदी भी लगाई थी। जाहिर है कि नये गोडसे को भी वैसे ही ‘वातावरण’ ने पैदा किया है। लेकिन, एक गुणात्मक फर्क यह है कि इस नये गोडसे के सामने, कोई सरदार पटेल दूर-दूर तक नजर नहीं आता है।

बेशक, ऐसा नहीं है कि देश के गृहमंत्री की कुर्सी खाली हो। ऐसा भी नहीं है कि गृहमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाला, खुद को सरदार पटेल के समकक्ष कहलवाने के लिए उत्सुक नहीं हो। पर नया गोडसे तो मूल गोडसे का नया अवतार है, पर नया सरदार पटेल, पुराने सरदार का विपरीत नहीं भी हो तो, मूल-रूप से निषेध जरूर है।

इसीलिए तो, गांधी के शहादत दिवस पर, मानव शृंखला बनाकर, गांधी के सपनों के धर्मनिरपेक्ष भारत की रक्षा का संकल्प जताने के लिए शांति वन जाना चाह रहे जामिया के छात्रों पर गोली चलाकर, ‘आजादी’  के नारे का जवाब देने वाले नये गोडसे की करतूत पर, दिल्ली पुलिस के नियंत्रक की हैसियत से गृहमंत्री, अमित शाह ने रस्मी तौर पर यह तो कहा कि  ‘दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा’ और उन्होंने पुलिस को पूरी घटना की जांच के आदेश दे दिए हैं।

लेकिन, जाहिर है कि उन्हें उस ‘वातावरण’ की ओर नजर तक डालना गवारा नहीं हुआ, जो उनके राज में ऐसे नये गोडसे पैदा कर रहा है। उन्हें तो यह तक देखना गवारा नहीं हुआ कि कैसे उनका एक मंत्रिमंडलीय साथी, दिल्ली की अपनी चुनाव सभाओं में ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ के जो नारे लगवा रहा था, उन्हीं को अमल में लाने के लिए खुद को रामभक्त बताने वाला नया गोडसे, कथित गद्दारों को गोली मारने जामिया पहुंच गया था!

लेकिन, यह किस्सा इसी पर खत्म नहीं हो जाता है कि 2020 के नकली सरदार को, न वह वातावरण दिखा और न उसे बनाने वाले, जो नये गोडसे पैदा कर रहे हैं। इससे आगे बढ़कर, वह खुद वही जहरीला वातावरण बनाने में लगा है।

जामिया गोलीकांड के चंद घंटे बाद ही अपनी एक चुनावी सभा में, अमित शाह ने फिर दोहराया कि  दिल्ली का चुनाव, पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक कर के आतंकवादियों का खात्मा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी और शाहीन बाग में हो रहे विरोध प्रदर्शन का समर्थन करने वालों के बीच मुकाबला है।

छतरपुर में सभा में शाह ने कहा:

‘8 तारीख को आप को तय करना है कि वो जो ताकतें आमने-सामने खड़ी हैं, एक ओर नरेंद्र मोदीजी हैं जो सर्जिकल स्ट्राइक और एअर स्ट्राइक कर के पाकिस्तान के घर में घुस कर आतंकवादियों का सफाया कर रहे हैं और दूसरी ओर वो लोग हैं जो शाहीन बाग का समर्थन कर रहे हैं।’

शाहीन बाग के समर्थन को एक तरह से आतंकवाद ही ठहराने के जरिए, अमित शाह अपने मंत्रिमंडलीय साथी के शाहीन बाग का समर्थन करने वालों समेत भाजपाविरोधियों को ‘गद्दार’ घोषित करने का ही अनुमोदन कर रहे थे। बस देश के गृह मंत्री ने सरदार पटेल की कुर्सी की लाज रखते हुए, खुद ‘गोली मारो’ का आह्वान नहीं किया। शायद नये गोडसे के लिए इस आह्वान की जरूरत भी नहीं है। उनकी मौन स्वीकृति या अति-वाचाल प्रधानमंत्री का अति-मुखर मौन ही काफी है। और हां! इसका आश्वासन भी कि अंतत: उनके आधीन प्रशासन यह साबित कर के रहेगा कि, ‘हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता है।’

यही चीज है जो गोडसे के नये अवतार को और खतरनाक बना देती है।

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।
Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

बेशक, बहत्तर साल पहले भी गोडसे का निशाना एक समुदाय पर ही था, जैसे नये गोडसे का है। उसके भी मन में अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति वैसी ही नफरत भरी हुई थी, जैसे नये गोडसे के मन में है, जो उसके फेसबुक पेज से टपकती है, हालांकि आज उस नफरत के पीछे कोई रत्तीभर वास्तविक शिकायत नहीं है। लेकिन, बहत्तर साल पहले गोडसे को अल्पसंख्यकों पर हमला करने के लिए, जिस गांधी की लाश से गुजरना पड़ा था बल्कि कहना चाहिए कि जिस गांधी ने नाथूरामों का रास्ता अपनी कमजोर काया से और अंतत: अपनी लाश से रोका था, वह गांधी आज दूर-दूर तक नजर नहीं आता है। गांधी हैं नहीं और सरदार की कुर्सी पर, गोडसाओं के हिमायती बैठे हैं। गांधी के सर्वोच्च बलिदान के 72 साल बाद, एक धर्मनिरपेक्ष, जनतंत्र का उनका सपना और भी अरक्षित है।

हां! सीएए-एनपीआर-एनआरसी के खिलाफ आवाज उठाने के लिए सड़कों पर उतर रहे लाखों लोगों में और विशेष रूप से देश भर में सैकड़ों शाहीनबागों में सत्याग्रह दे रही दसियों हजार महिलाओं में, उनकी धर्मनिरपेक्ष भारत की रक्षा की चिंताओं तथा जिद में, थोड़ा-थोड़ा गांधी भी नया जन्म ले रहा है। यह मोर्चा अब हजारों-लाखों थोड़े-थोड़े गांधी संभाल रहे हैं, संभालेंगे। और ये थोड़े-थोड़े गांधी ही मोदी-शाह जोड़ी को हरियाणा, महाराष्ट्र तथा झारखंड के बाद अब दिल्ली में भी हराकर यह बताएंगे कि हत्या के बहत्तर साल बाद भी गांधी, भारत में गोडसाओं पर भारी है और रहेगा।

राजेंद्र शर्मा

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