उफ़्फ़ दिसम्बर की बहती नदी से बदन पर लोटे उड़ेलने की उलैहतें ..
इकतीस है हर साल की तरह फिर रीस है ..
घाट पर ख़ाली होगा ग्यारह माह के कबाड़ का झोला ..
साल फिर उतार फेंकेगा पुराने साल का चोला ..
जश्न के वास्ते सब घरों से छूट भागेंगे ..
रात के पहर रात भर जागेंगे ..
दिसम्बरी घाट पर अलाव बलेगा ..
रात भर आज रात का जश्न चलेगा ..
सुरूर भरी आँखों वाली शब जब देखेगी उजाला
समझेगी साल ने सचमुच सब कुछ बदल डाला ..
पैबंद लगी हँसी से सब मुस्करायेंगे
फिर झूठ पर झूठ का मुलम्मा चढ़ायेंगे...
डॉ. कविता अरोरा