उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh assembly elections) के पहले सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है। इस बार के चुनाव में सभी दलों को पता है कि सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है। शायद इसीलिये सभी गैर भाजपा दल अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक साबित करने के चक्कर में लगे हुए हैं। जब टेलिविजन की खबरों का ज़माना नहीं था तो एक खास विचारधारा के लोग अफवाहों के सहारे चुनाव के ठीक पहले राज्य के कुछ मुसलिम बहुल इलाकों में साम्प्रदायिक दंगा करवा लेते थे और उनकी अपनी सीट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण (communal polarization) के नाम पर निकल जाती थी। लेकिन टीवी न्यूज की बहुत बड़े पैमाने पर मौजूदगी के चलते अब अफवाहों की बिना पर दंगा करवा पाना बहुत मुश्किल हो गया है।
इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जिम्मेदार विचारधारा वाले तो अब मुसलमानों के ध्रुवीकरण (polarization of Muslims,) की उम्मीद छोड़ चुके हैं। लेकिन बाकी तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज होने के सपने देख रही हैं। इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं।
राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने
समाजवादी पार्टी को 1991 से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की प्रिय पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है। इसमें सच्च्चाई भी थी। जब भी समाजवादी पार्टी को मौका मिला उसने मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने की कोशिश की। कभी राज्य में उर्दू को बढ़ावा दिया तो कभी पुलिस जैसी सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को बड़ी संख्या में भर्ती किया। लेकिन पिछले लोक सभा चुनाव के ठीक पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सज़ा पा चुके नेता कल्याण सिंह को सम्मान सहित पार्टी में भर्ती करके समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को बहुत निराश किया था। उसका नतीजा भी लोकसभा चुनाव में सामने आ गया था।
समाजवादी पार्टी 2004 में करीब 40 सीटें जीतकर लोक सभा पंहुची थी वहीं 2009 में बीस के आस पास रह गयी। हालांकि मुसलमानों ने पूरी तरह तो साथ नहीं छोड़ा था लेकिन कल्याण सिंह के प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी मुसलमानों की प्रिय पार्टी नहीं रह गयी थी। कल्याण सिंह के भर्ती होने के बाद पैदा हुई समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराजगी को कांग्रेस ने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी। कांग्रेस पार्टी को भी मुसलमानों के बीच 6 दिसंबर 1992 के बाद पसंद नहीं किया जाता था। उसके कई कारण थे। सबसे बड़ा तो यही कि 1992 में बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए कांग्रेस पार्टी भी कम जिम्मेदार नहीं थी।
छह दिसंबर १९९२ के दिन दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस का कब्जा था, पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह पर भरोसा किया था कि वे बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करेंगे।
अजीब बात है कि कांग्रेस ने कल्याण सिंह पर भरोसा किया जबकि हर सरकारी अफसर को मालूम था कि बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने की योजना बन चुकी थी और उस साजिश में कल्याण सिंह बाकायदा शामिल थे . . कांग्रेस की इस मिलीभगत के कारण मुसलमानों और सेकुलर जमातों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था। लेकिन जब से राहुल गांधी ने मैदान लिया है उन्होंने मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में थोड़ी बहुत सफलता हासिल की है। जानकार बताते हैं कि उनकी कोशिश का ही नतीजा था कि लोक सभा २००९ में कांग्रेस को बीस से ज्यादा सीटों पर सफलता मिली। उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस 6 दिसंबर १९९२ के अपने म के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है।
कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमानों की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक कदम है।
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है। मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमानों का अपीजमेंट किया जाता है. लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है। इतना ही नहीं, कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी। अब सभी गैर बीजेपी पार्टियां रंगनाथ मिश्रा कमीशन की बात करने लगी हैं और उस तरफ कुछ काम भी हो रहा है। मसलन जब यूपीए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओबीसी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी। कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमानों का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई।
जबकि सच्चाई यह है कि इस साढ़े चार प्रतिशत वाली बात से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है। क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई, जैन और बौध समाज से कम्पटीशन करना पडेगा। जाहिर है यह सारा का सारा साढ़े चार प्रतिशत इन्हीं अल्पसंख्यक समुदायों के हिस्से में जाएगा जो शैक्षिक रूप से आगे हैं। लेकिन कांग्रेस के नेताओं के भाषणों के हवाले से बाद में सामाजिक न्याय की पक्षधर जमातें कांग्रेस को मजबूर कर सकती हैं कि वह शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों का कुछ प्रतिशत अलग से रिजर्व कर दे।
मसलन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने अधिक संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को जाहिर करने की कोशिश की है। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को दिखाने की कोशिश की है। लेकिन मुसलिम नौजवानों का मौजूदा वर्ग इस बात से प्रभावित नहीं हो रहा है। वह सवाल पूछ रहा है कि कुछ संपन्न और ताकतवर मुसलमानों को एमपी, एमएलए बनाकर कोई भी पार्टी आम मुसलमान को कैसे संतुष्ट कर सकती है? अब मुसलमान कुछ सत्ता प्रेमी मुसलमानों को मिली हुई इज्जत से खुश होने को तैयार नहीं है। वह इंसाफ की मांग करने लगा है। उसे शिक्षा चाहिए, उसे सरकारी नौकरियों और निजी औद्योगिक क्षेत्र में अपना हक चाहिए।
कुछ मुसलमानों के सामने टिकट की खैरात फेंक कर आम मुसलमान को संतुष्ट कर पाना अब नामुमकिन है। इसीलिये देखा यह जा रहा है कि सच्चर और रंगनाथ मिश्रा को जिस सम्मान की नजर से मुस्लिम समाज में देखा जाता है, वह इज्जत किसी भी मुस्लिम राजनेता को मयस्सर नहीं है। वैसे भी मुसलमान हर उस आदमी की इज्जत करता है जो उसके लिए न्याय की बात करता है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो भी मुसलमान राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेता है वह मुसलमानों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव 2012 के पहले जो माहौल बन रहा है वह इस देश के आम मुसलमान के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होगा। मसलन कांग्रेस अपने साढ़े चार प्रतिशत के अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताने की कोशिश में जब नाकाम हो गयी तो अपने एक मुस्लिम मंत्री से बयान दिलवा दिया कि अब मुसलमानों को 9 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। इस बात को मीडिया का इस्तेमाल करके गरमाने की कोशिश भी की जा रही है .. कांग्रेस की इस कोशिश को आम मुसलमान गंभीरता से ले रहा है।
उधर समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए 18 प्रतिशत रिजर्वेशन की बात करना शुरू कर दिया है। समाजवादी पार्टी की इस बात को चुनावी स्टंट ही माना जा रहा है। यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता इतनी ज्यादा है कि उनकी बात को लोग हल्का नहीं मानते, लेकिन लोगों को यह भी मालूम है कि फिलहाल मुसलमानों को 18 प्रतिशत रिजर्वेशन देना राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है।
इस चुनाव की एक और दिलचस्प बात यह है कि भावनात्मक मुद्दों को उठाने की कोई कोशिश काम नहीं आ रही है। कल्याण सिंह का हिन्दू हृदय सम्राट वाला चोला बिलकुल बेकार साबित हो रहा है। अपने इलाके में अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के अलावा वह किसी के हृदय सम्राट नहीं बन पा रहे हैं। जाहिर है वे चुनावों में कोई खास भूमिका नहीं निभा पायेंगे .. बाबरी मस्जिद केस में उनकी सह अभियुक्त उमा भारती को भी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यूपी में अहम भूमिका देने की कोशिश की है लेकिन उनकी मौजूदगी भी कट्टर हिन्दूवादी वोटरों पर वह असर नहीं डाल पा रही है जो 1992 के बाद के चुनावों में थी। यही हाल बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वाले मुसलमानों का भी है। उस वक्त के ज्यादातर नेता तो पता नहीं कहाँ चले गए हैं .. जो एकाध कहीं नज़र भी आ रहे हैं उनकी मुसलमानों के बीच कोई खास औकात नहीं है.. दरअसल इस चुनाव में यह बात बिकुल साफ हो गयी है कि अब मुसलमान जज्बाती मुद्दों को अपनाने को तैयार नहीं है, उसे तो इंसाफ चाहिए और अपना हक चाहिए। उसे विकास चाहिए और समान अवसर चाहिए।
अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान इस बार इन मुद्दों को चुनाव की मुख्य धारा बनाने में कामयाब हो गया तो देश का और मुसलमान का मुस्तकबिल अच्छा होगा। अब सभी मानने लगे हैं कि मुसलमान जज्बाती होकर फैसला नहीं करने वाला है। वह किसी भी दंगाई की बात में नहीं आने वाला है। यह संकेत 2007 में ही मिलना शुरू हो गया था। जब 2007 के विधान सभा चुनाव के ठीक पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे कुछ होर्डिंग लगा दिए गए थे, सीडी बांटी गयी थी और मुसलमानों को और तरीकों से भड़काने की कोशिश की गयी थी तो मुसलमानों ने आम तौर पर उस कोशिश को नज़र अंदाज़ किया था। उसके बाद के किसी भी चुनाव में भड़काऊ बयान या चुनाव सामग्री का बाज़ार नहीं चल पाया। शायद इसीलिये मौजूदा चुनाव भी विकास के मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नज़र आ रहा है और सभी दलों को मालूम है कि इस बार मुसलमानों की निर्णायक मदद के बिना सरकार नहीं बनने वाली है।
मुसलमानों की संख्या के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां उनकी मर्जी के लोग ही चुने जायेंगे। इन जिलों में करीब सवा सौ सीटें पड़ती हैं। रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बरेली, बलरामपुर, अमरोहा, मेरठ, बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं। गाजियाबाद, लखनऊ, बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद, पीलीभीत, आदि कुछ ऐसे जिले हैं जहां कुल वोटरों का एक चैथाई संख्या मुसलमानों की है।
जाहिर है जहां मुसलमानों के वोट के लिए तीन अहम पार्टियां जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहां यह वोटर इंसाफ की जद्दो जहद में एक जबरदस्त भूमिका निभा सकते हैं। ऐसा लगता है अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के जज्बात को भड़काकर राजनीति करना मुश्किल होगा। अब राजनीतिक पार्टियों को असली मुद्दों को संबोधित करना पड़ेगा।
शेष नारायण सिंह