लोकसभा के 2019 के सामान्य चुनावों के परिणाम (Results of general elections of the Lok Sabha in 2019) कल 23 मई को सामने आए, लेकिन 19 मई को मतदान के आखिरी चरण के बाद विभिन्न टीवी चैनलों द्वारा दिखाए गए एग्जिट पोल में एक बार फिर भाजपा नीत एनडीए को बहुमत मिलने व मोदी सरकार बनने की संभावना जताई गई थी। लिबरल वाम बौद्धिकों समेत एक बड़ा हिस्सा मोदी सरकार व संघ -भाजपा को देश, लोकतंत्र, लोकतांत्रिक संस्थाओं यहां तक कि सभ्यता संस्कृति के लिए बड़ा खतरा मानते हुए हर हाल में मोदी सरकार को हटाने को प्रयासरत था। लेकिन सामने आए परिणामों से उन्हें धक्का लगा है। कांग्रेस समेत विपक्षी दल कह रहे थे कि एग्जिट पोल, एक्ज़ेक्ट पोल नहीं हैं इसलिए 23 मई का इंतजार करें। उन्हें उम्मीद थी कि एग्जिट पोल गलत साबित होंगे और मोदी सरकार को सत्ता से हटाकर वे नई सरकार बनाने में कामयाब हो जाएंगे।
लेकिन स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने एग्जिट पोल को सही मानते हुए कहा कि कांग्रेस को खत्म हो जाना चाहिए चूंकि वह इस चुनाव में भाजपा को रोकने में नाकाम रही, इससे एक नई चर्चा शुरू हो गई है। कुछ लोग इसके विपक्ष में तो कुछ पक्ष में बोल रहे हैं।
इस पर बात करने के लिए आइये देखें कि आज जिस भाजपा -संघ को देश -लोकतंत्र के लिए इतना बड़ा ख़तरा माना जा रहा है उसका उभार कैसे हुआ ?
हम देखते हैं कि आजादी के आंदोलन में हाशिये पर रहा आरएसएस(संघ), आजादी के बाद आगे
डॉ लोहिया और सोशलिस्टों ने जनसंघ /संघ को दी ताकत
यह समाजवादी आंदोलन के पुरोधा डॉ. लोहिया ही थे जिन्होंने जनसंघ से संयुक्त मोर्चा बनाया और संविद सरकारों में उसे शामिल कर जनसंघ को बड़ी ताकत बनने में मदद की। लोगों ने जब संघ -जनसंघ की साम्प्रदायिकता के खतरे पर सवाल किए तो डॉ. लोहिया ने कहा कि 'कांग्रेस को हटाने के लिए अगर शैतान से भी हाथ मिलाना पड़े तो मिला लो'। वे यहां ही नहीं रुके उन्होंने कहा कि जनसंघ की एक पहाड़ साम्प्रदायिकता से कांग्रेस की एक बूंद साम्प्रदायिकता अधिक खतरनाक है।
1963 के उपचुनाव में डॉ लोहिया ने जनसंघ के साथ मोर्चा बनाया और जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से चुनाव लड़े तो डॉ. लोहिया उनका प्रचार करने गए और चार सभाओं में भाषण दिए।
योगेंद्र यादव जिन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं वे किशन पटनायक भी डॉ. लोहिया की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से सम्बलपुर से लोकसभा सदस्य थे। लेकिन कोई भी ऐसा प्रकरण चर्चा में नहीं है जब उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी और डॉ लोहिया के जनसंघ-संघ से मोर्चे का विरोध किया हो।
सोशलिस्ट और संघ की विचारधारा पर कभी फिर बात करेंगे।
राजनीति की बात करें तो सोशलिस्ट पार्टी और डॉ लोहिया ने जिस गैर कांग्रेसवाद की वकालत की उसमें संघ/जनसंघ को सहयोगी बनाकर उसकी स्वीकार्यता व राजनीतिक ताकत को बढ़ाया।
संघ ने आपातकाल में जहां इंदिरा गांधी से माफी मांग ली थी फिर भी इंदिरा विरोधी मोर्चे में लोहिया के शिष्यों ने संघ-जनसंघ को शामिल ही नहीं किया, बल्कि एकल पार्टी -जनता पार्टी में भी शामिल कर लिया।
आपातकाल के बाद 1977 में जेपी जेल से छूटे तो उन्होनें मुम्बई की एक सभा में कहा कि 'मैं आत्मसाक्ष्य के साथ कह सकता हूँ कि संघ और जनसंघ वालों के बारे में यह कहना कि वे फासिस्ट लोग हैं, साम्प्रदायिक हैं -ऐसे सारे आरोप बेबुनियाद हैं '
परिणाम यह हुआ कि संघ -जनसंघ को केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदारी मिली। उसके दो प्रमुख नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को केंद्रीय मंत्रालय में विदेश और मानव संसाधन जैसे महत्वपूर्ण विभाग मिले। संघ ने इस अवसर का भरपूर इस्तेमाल किया। और 90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन के जरिये हिंदुओं की व्यापक राजनीतिक गोलबंदी करने में सफल हुआ।
जनता पार्टी के बचे हुए सोशलिस्टों ने जनता दल के नाम से बनाई अपनी पार्टी की सरकार बनाने के लिए जनसंघ के नए अवतार भाजपा से बिना शर्त समर्थन लेने में जरा देर नहीं लगाई और भाजपा /संघ को खुलकर विभाजनकारी साम्प्रदायिक फासिस्ट गोलबंदी करने का पूरा मौका दिया।
छद्म अम्बेडकरवादियों ने भाजपा / संघ का दिया साथ
बाबरी विध्वंस के बाद छद्म अम्बेडकरवादी कांशीराम और मायावती ने उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ सरकार बनाकर संघ/ भाजपा को बहुत बड़ी मदद पहुंचाई। और उसे फिर से प्रदेश की सत्ता में आने का रास्ता साफ किया। केंद्र में भाजपा की वाजपेयी सरकार बनाने में भी इससे मदद मिली। इतना ही नहीं जब गुजरात नरसंहार के बाद मोदी देश में ही नहीं पूरी दुनिया में बदनाम हो गए तो इन्हीं अम्बेडकर के नकली चेलों ने भाजपा का सहयोग किया और मायावती को 2002 के नरसंहार के बाद हुए विधानसभा चुनाव में गुजरात जाकर मोदी का प्रचार करने में शर्म नहीं आई। आज तक मायावती ने इसके लिए जनता से माफी नहीं मांगी।
अन्य तथाकथित अम्बेडकरवादियों की कहानी भी अलग नहीं है। दलित नेता उदित राज सीधे भाजपा में शामिल होकर सांसद बन गए तो महाराष्ट्र के दलित नेता आठवले भी मोदी सरकार में मंत्री बनकर सत्ता के चंद टुकड़ों के लिए संघ / भाजपा के फासीवादी अभियान की सेवा में लग गए। बिहार के एक अन्य दलित नेता रामविलास पासवान भी वाजपेयी सरकार और अब मोदी सरकार में मंत्री बने बैठे हैं। इन्होंने दलित समाज में संघ /भाजपा के जनाधार के विस्तार में बड़ी भूमिका अदा की है।
डॉ. लोहिया के चेलों ने भी दिया संघ /भाजपा का साथ
जनसंघ/संघ के साथ सोशलिस्टों की जो दोस्ती 60 के दशक में डॉ लोहिया ने शुरू की उनके चेलों ने 90 के दशक में उसे आगे बढ़ाया। अब गाड़ी का ड्राइवर बदल गया था।
60 के दशक में डॉ लोहिया नेतृत्वकारी भूमिका में थे लेकिन 90 के दशक में संघ/भाजपा ने नेतृवकारी भूमिका छीन ली। शरद यादव, नीतीश कुमार, जार्ज फर्नाडीज आदि तमाम सोशलिस्ट नेताओं ने लोहिया से जो गैर कांग्रेसवादी राजनीति सीखी थी अब उसकी परिणति संघ/ भाजपा को सत्ता में पहुंचाने हुई।
2002 के गोधरा कांड के समय रेल मंत्री कोई और नहीं समाजवादी नीतीश ही थे। गुजरात नरसंहार के बाद भी लोहिया के ये समाजवादी चेले सरकार में बने रहे। और संघ के दंगाई अभियान को वैधता देते रहे।
वर्तमान में नीतीश भाजपा के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़े और मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए जीजान से जुटे।
उत्तर प्रदेश के लोहिया के एक और चेले मुलायम सिंह यादव सीधे तौर पर भाजपा सरकार में शामिल तो नहीं हुए, लेकिन अनेकों अवसरों पर संघ / भाजपा की मदद करने और मदद लेने में पीछे नहीं रहे। गुजरात जनसंहार के लिए कुख्यात मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें अपने घर सैफई में शादी समारोह में बुलाने में मुलायम सिंह को जरा भी शर्म नहीं आई।
2003 में प्रधानमंत्री वाजपेयी और भाजपा के गैर संवैधानिक सहयोग से अल्पमत की सरकार बनाने मुख्यमंत्री बनने और बसपा को गैरकानूनी तौर पर तोड़कर अपना बहुमत साबित करने में मुलायम सिंह को कोई संकोच नहीं हुआ।
वाजपेयी और संघ/भाजपा ने क्या मुलायम सिंह को अल्पमत होने पर भी यूं ही मुख्यमंत्री बना दिया था ? जाहिर है आज संघ /भाजपा का जो उभार है और जो खतरा आज देश- लोकतंत्र के सामने है उसके लिए खाद पानी किसी और ने नहीं डॉ लोहिया, सोशलिस्टों और उनके चेलों के साथ डॉ आंबेडकर के छद्म अनुयायियों ने मुहैया कराया है।
इतना जरूर है कि अयोध्या में राम मूर्ति रखवाने और ताले खुलवाने आदि के जरिये कांग्रेस ने संघ/भाजपा के मंदिर आंदोलन को डिफ्यूज करने की जो रणनीति बनाई थी वह गलत साबित हुई। उससे संघ /भाजपा को राम मंदिर आंदोलन के जरिये साम्प्रदायिक हिन्दू गोलबंदी करने में मदद मिली।
शाहबानो केस में राजीव गांधी द्वारा मुस्लिम कट्टरपंथी शक्तियों के सामने समर्पण से संघ,/भाजपा को साम्प्रदायिक हिन्दू गोलबंदी करने में सहायता मिली और वे यह आसानी से साबित कर सके कि सेक्युलरिज्म के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण (Muslim appeasement in the name of secularism) हो रहा है। केंद्र की सत्ता में होते हुए भी 1992 में बाबरी विध्वंस को रोक पाने में असफल रहना कांग्रेस की बड़ी विफलता रही जिससे संघ और उसकी दंगाई ब्रिगेड के हौंसले बुलंद हुए। आर्थिक सामाजिक नीतियों के मामलों में भी काँग्रेस की नीतियों का भी समर्थन नहीं किया जा सकता बल्कि इन नीतियों ने भी संघ/भाजपा के उभार के लिए उर्बर जमीन मुहैया कराई है।
स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव दरअसल उसी लोहियावादी सोशलिस्ट धारा से आते हैं जिसमें उनके गुरु किशन पटनायक (Kishan Patnaik) हुआ करते थे उसने गैर काँग्रेसवाद (Non-Congressism) की जो राजनीति शुरू की थी, योगेंद्र यादव उसके हैंगओवर से निकल नहीं पाए हैं। वे यह भूल जाते हैं कि परिस्थिति बदल चुकी हैं। अब भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद का नहीं गैर भाजपावाद का युग शुरू हो चुका है।
डॉ लोहिया (Dr. Lohia) निश्चित ही योगेंद्र यादव की तरह काँग्रेस मस्ट डाई (Congress Must Die ) नहीं कह रहे होते बल्कि अपने तथाकथित समाजवादी चेलों के खिलाफ खड़े होते और आज यदि लोहिया होते तो वे संघ /जनसंघ के साथ मोर्चे के प्रयोग की अपनी भूल को जरूर स्वीकार करते और वे देश समाज में सामाजिक राजनीतिक शक्तियों की पहचान कर उनको गोलबंद कर देश में गैर भाजपावादी राजनीति की अगुआई करने के लिए प्रयासरत होते।
जाहिर है योगेंद्र यादव का बयान राजनीतिक बयान न होकर एक हताशा से उपजा मिडल क्लास रिएक्शन से ज्यादा कुछ नहीं है।
---अजीत यादव
(लेखक योगेंद्र यादव के स्वराज अभियान के राष्ट्रीय नेता हैं )