Hastakshep.com-देश-Medha Patkar-medha-patkar-new agricultural laws-new-agricultural-laws-आत्मनिर्भर भारत-aatmnirbhr-bhaart-तीनों नए कृषि कानूनों का विश्लेषण-tiinon-ne-krssi-kaanuunon-kaa-vishlessnn-नए कृषि कानून-ne-krssi-kaanuun-बिहार का समाचार-bihaar-kaa-smaacaar-बिहार समाचार-bihaar-smaacaar-बिहार-bihaar-बॉबी रमाकांत-bonbii-rmaakaant-मेधा पाटकर-medhaa-paattkr-समाचार-smaacaar

Not symbolism but embodying Mahatma Gandhi in our lives is vital: Medha Patkar

यूँ तो महात्मा गाँधी प्रतीकात्मक रूप में, हर कार्यालय और किताब में हैं पर उनको धरातल पर उतारना बहुत ज़रूरी हो गया है. यह कहना है वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर का, जो गाँधीवादी विचारधारा को अपने जीवन में शिरोधार्य कर, सामाजिक न्याय सम्बंधित आन्दोलन और सत्याग्रह के लिए समर्पित रही हैं. महात्मा गाँधी के 150वीं जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में, 26 सितम्बर से 2 अक्टूबर 2020 तक, द पब्लिक इंडिया द्वारा आयोजित ऑनलाइन कार्यक्रम में मेधा पाटकर भी एक विशिष्ट वक्ता थीं.

103 साल पहले, बिहार के चंपारण के किसानों की दयनीय स्थिति देख के, जिनमें तन ढंकने के लिए कपड़ों का अभाव भी शामिल था, महात्मा गाँधी ने उन्हें चरखा अपना कर सूत कातने के लिए प्रेरित किया था, जिसके बाद चरखा आत्मनिर्भरता का सन्देश लिए देश में एक बड़े जन-आन्दोलन का हिस्सा बना. आज भी किसान न्याय के लिए संघर्षरत हैं. इस कार्यक्रम

में रोज़ाना 8-9 बजे रात्रि, मैग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ गाँधीवादी कार्यकर्ता डॉ. संदीप पाण्डेय, चरखा चला के सूत कात रहे हैं.

डॉ. संदीप पाण्डेय जो सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं, उनका मानना है कि गाँधीवादी अर्थव्यवस्था ही सही मायने में समाजवादी, सतत, और न्यायपरस्त अर्थव्यवस्था है. उदाहरण के रूप में यदि रोज़गार की चुनौती हल करनी है तो वह बड़े पैमाने के उत्पादन से नहीं होगी बल्कि जनता द्वारा उत्पादन से होगी. हमें इसके लिए अपने जीवन, जीवनशैली और रोज़गार के माध्यम में भी बदलाव लाना होगा क्योंकि प्रकृति में हम सब की ज़रूरत के लिए संसाधन तो हैं परन्तु एक के भी लालच पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसीलिए यह हमें संकल्प लेना चाहिए कि हमारा जीवन, जीवनशैली और रोज़गार, कम-से-कम संसाधनों के दोहन पर निर्भर रहें.

श्रमिकों की अवमानना | Contempt of workers

जिस तरह से कंपनी को दिए गए ठेके को यह व्यवस्था सम्मान देती है, क्या हम उसी तरह से ठेका मजदूर से व्यवहार करते हैं? मेधा पाटकर जी ने कहा कि "हमारे श्रमिकों की अवमानना हो रही है यह कह कर कि उनका रिकॉर्ड नहीं है - पर उनका योगदान देश के सत्ताधीशों के नियोजन के ड्राइंग बोर्ड पर ही नहीं है - इसीलिए उनकी अवमानना और अप्रतिष्ठता हो रही है. श्रमिकों की अवमानना सबसे बड़ी बात है. इसीलिए जब वह रस्ते पर चल रहे थे तब गाँधी जी होते तो क्या करते? यही सोच के हम लोग उपवास पर बैठ गए. श्रमिकों को बाद में परिवहन तो मिल गया पर आज भी उनको रोज़गार नहीं मिला है." व्यवस्था पर जिस तरह से उद्योग वर्ग हावी है, उसी का नतीजा है कि 44 केंद्रीय कानून निरस्त हुए या लागू नहीं रहे, श्रम नीतियां कमज़ोर हुईं. 4 कोर्ट तो हैं पर वह ठेके पर कार्य कर रहे श्रमिकों को अन्य श्रमिकों के बराबर नहीं मानते भले ही वह समान कार्य कर रहे हों. जो समाज के हाशिये पर रह रहे वंचित वर्ग के लोगों के लिए नीति, कानून व्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा थी, वह कु-प्रभावित हो रही है. मेधा जी ने कहा कि एक ओर जब सरकारी सेवाओं का निजीकरण रफ़्तार पकड़ रहा है, तो दूसरी ओर यह भी समझना ज़रूरी है कि किस तरह से ठेके को अंजाम दिया जा रहा है - जो ठेके श्रमिक और रोज़गार देने वालों के बीच हैं और जो ठेके धनाढ्य उद्योगपतियों और सरकार के बीच हैं. मेधा पाटकर ने कहा कि पब्लिक सेक्टर ख़त्म करने का मतलब है आरक्षण भी ख़त्म करना. जब हम पब्लिक सेक्टर (सरकारी सेवाओं) को ख़त्म कर रहे हैं, तो किसी को भी सामान नागरिकता और विशेष ज़रूरतों के आधार पर (जिसे "सकारात्मक भेदभाव" भी कहते हैं), संविधान के अनुसार, विशेष सेवा, विशेष छूट या विशेष स्थान देने के सभी प्रावधान कमज़ोर पड़ रहे हैं.

गाँधी जी का सुझाया सहकारिता का रास्ता | community is the real cooperative

मेधा जी का मानना है कि सबका-साथ-सबका-विकास का सपना साकार करने के लिए, सबके सतत विकास के लिए, एवं न्यायपूर्ण मानवीय व्यवस्था के लिए, महात्मा गाँधी का सुझाया हुआ सहकारिता (cooperative) का रास्ता ही आज के परिप्रेक्ष्य में सही रास्ता है. गाँधी जी का मानना था कि स्थानीय समुदाय स्तर पर ही असली सहकारिता हो सकती है इसीलिए उन्होंने ग्राम स्वराज्य की बात रखी. सहकारिता को आगे बढ़ाने से ठेके-वाले मजदूरी की व्यवस्था को ख़त्म किया जा सकता है. पर अब तो ठेके पर कृषि की बात हो रही है. एक ओर तो किसान के हित में जो कानून आदि थे वह शिथिल हुए हैं दूसरी ओर तालाबंदी के चलते हुए 3 अध्यादेश लाकर ठेके-पर-किसानी को बढ़ाने की कोशिश की जा रही है. कई मायनों में चंपारण जैसी स्थिति है और इसीलिए हर मुद्दे पर अँगरेज़ और भारतियों के बीच में या अंग्रेजी हुकूमत के समय ज़मींदार और भूमिहीन मजदूरों के बीच में जो रिश्ता था जिसके खिलाफ हर मोर्चे पर गाँधी खड़े हुए, उसी प्रकार से आज के सत्याग्रही एवं आन्दोलनकारी को जो आंदोलनों की राजनीति और रणनीति में हैं, उनको खड़े होना पड़ेगा जहाँ भी अन्याय है.

मानवीय न्याय | Human justice

मेधा पाटकर ने कहा कि जब कहीं गुंडागर्दी चलती है और आप क्रिमिनल लॉ (आपराधिक कानून) की धमकी देते हैं तो क्या गुंडे मानते हैं? आज सत्ताधीशों की जो मनमानी चल रही है उसको देखते हुए हमको भी कहना चाहिए कि हमें कानूनी न्याय के ऊपर मानवीय न्याय चाहिये. कानूनी अधिकार से भी ऊपर होते हैं मानवीय अधिकार. इसीलिए गांधीजी की सत्याग्रह की रणनीति ही हमें प्रेरणा दे सकती है और कोई भी प्रकाश नज़र में नहीं आता है. गाँधी जी की प्रेरणा से ही लोहिया जी ने भी कहा था कि 'गाँधी मेरे गुरु हैं'. जो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी (जो आज सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के स्वरुप में सक्रीय है) वह कांग्रेस से अलग हो कर समाजवाद का रास्ता ले रही थी - उसमें लोहिया जी की अगुवाई थी, नेत्रित्व था और वह गाँधी को गुरु मानते थे. हम यह भी समझें कि गाँधी और आंबेडकर, और गाँधी और भगत सिंह के बीच ऊपरी दृष्टि से फर्क तो ज़रूर था और कुछ मुद्दों पर रास्ते कुछ अलग थे, लेकिन यह तीनों लोग अहिंसा के ही पुजारी थे. जस्टिस सिंघवी के फैसले में भगत सिंह ने कहा है कि 'शोषण को हम हिंसा से तो नहीं रोक सकते'. आज के ठेके वाली व्यवस्था जो हर जगह शोषण का आधार है, इसका जवाब अहिंसा से देने वाले गाँधी भी थे, और बाबा साहब भी थे, भगत सिंह, मार्क्स, लोहिया आदि भी थे. हमें भी इन्हीं से प्रेरणा लेनी होगी.

सत्याग्रह के अलावा कोई और विकल्प है ही नहीं | Only option now is satyagraha,

मेधा पाटकर जी ने कहा कि

"मुझे लगता है कि सत्याग्रह के अलावा कोई और विकल्प है ही नहीं क्योंकि शासक ही हिंसक हो रहे हैं. यह हिंसा, विकास के नाम पर भी है, सत्याग्रही और न्यायप्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ झूठे आरोप लगा कर जेलबंदी के रूप में भी हमारे सामने है, राज्य के जनतंत्र के हर स्तम्भ में जो दीमक लगी है उसके द्वारा भी हमको दिख रही है क्योंकि वह एक-एक स्तम्भ ध्वस्त कर रहे हैं, एक-एक संस्था ध्वस्त कर रहे हैं ... और न्यायपालिका तक या माध्यमकर्ताओं तक जो हस्तक्षेप सत्ता का है वह भी एक प्रकार से हमला है उन संस्थाओं पर."

"पर इन सबका जवाब देने के लिए, गांधीजी ने जो सत्याग्रह का अस्त्र दिया है, यदि हम वह इस्तेमाल नहीं करेंगे तो हम लोग जो मंजिल चाहते हैं उस मंजिल पर बराबर विरोधी दिशा में हम चलेंगे. हम हिंसा का जवाब यदि हिंसा से देंगे तो हम हिंसा का जवाब ही नहीं दे रहे हैं, यह मानना पड़ेगा. इसीलिए हमने हमारे आंदोलनों में यह पाया कि अगर हम एक पत्थर भी उछालते तो हम जल्दी ही ख़त्म हो जाते. नर्मदा बचाओ आन्दोलन को देखें तो महिलाओं और आदिवासियों की जीवटता और दृढ़ता, और किसान मजदूरों की एकता एक मिसाल है. ऐसा ही हमने अन्य आंदोलनों में देखा जैसे कि घर बचाओ घर बनाओ आन्दोलन जिसमें मुंबई में 75000 घरों को तोड़ने के बाद, जाति-मज़हब-पन्त-प्रांत भूल कर लोग एकजुट होकर खड़े हुए. अहिंसा और सत्याग्रह के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है पर रूप नए लेने पड़ेंगे. आज जो ऑनलाइन संवाद हो रहा है वह हमें पसंद नहीं है मगर ज़रूरी है और मजबूरी भी है, लेकिन हम लोग संपर्क-संवाद नहीं तोड़ सकते हैं - सरकार सत्ताधीश यह चाहती है कि ऐसा संवाद न बन के रहे जिससे कि जन शक्ति उभर आये और उसकी युक्ति से सरकार को झुकाया जा सके. किसान जो रास्ते पर उतरे हैं, लॉकडाउन होते हुए भी जो श्रमिक रास्ते पर उतरे हैं - यह सत्याग्रह के नए नए रूप हैं. यात्राओं का रूप गाँधी जी के रणनीति में भी था क्योंकि वह न सिर्फ एक को एक से जोड़ता था बल्कि वह विरोधकों के सामने एलान भी रखता था. इसीलिए हमने भी यह पाया कि उपवास या सत्याग्रह से, हम लोगों का एक एलान पहुँचता है. समाज के उन तबकों तक भी, जो समझते हैं इन मुद्दों को पर हिम्मत नहीं रखते उन तक भी एलान पहुँचता है. समाज के उन तबकों तक जो एक हद तक समझते हुए भी पार्टीबाजी में धर्मभेद या लिंगभेद पर किसी मुद्दे पर एकसाथ आकर लड़ने के लिए तैयार नहीं होते उनतक एलान पहुँचता है. इसीलिए एक उपवास या सत्याग्रह काम में नहीं आएगा लेकिन लम्बी दूरी तक चलना जीवटता के साथ हिम्मत के साथ यह ज़रूरी होता है", कहना है मेधा पाटकर का.

बॉबी रमाकांत

विश्व स्वास्थ्य संगठन महानिदेशक द्वारा 2008 में पुरुस्कृत, बॉबी रमाकांत स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय से जुड़े हुए मुद्दों पर लिखते रहे हैं और सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) और आशा परिवार से जुड़े हैं.

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