वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Finance Minister Nirmala Sitharaman) ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस की 'चालबाजी' का खामियाजा वर्तमान मोदी सरकार को भुगतना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि यूपीए सरकार ने 2012 तक 1.44 लाख करोड़ रुपये के जो ऑयल बॉन्ड्स जारी किये थे उसकी वजह से यह सरकार जनता को तेल कीमतों पर राहत नहीं दे पा रही है।
यह बात सही है कि तेल की ऊंची कीमतों का राजकोष पर बोझ न पड़े इसके लिए साल 2005 से 2010 के बीच केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने तेल कंपनियों को ऑयल बॉन्ड्स जारी किये थे। जिससे तत्कालीन सरकार को कंपनियों को नकद सब्सिडी नहीं देनी पड़ी और यह अगले कई वर्षों में किश्तों में चुकाना था लेकिन जून 2010 से जब इसकी जरूरत नहीं रह गई तो ऑयल बॉन्डस जारी करना भी बंद कर दिया गया था।
पैट्रोलियम मंत्रालय के पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल (Petroleum Planning and Analysis Cell -PPAC)
मई 2014 से अब तक तेल पर 12 बार टैक्स बढ़ाये गये हैं। सबसे अधिक बढ़ोतरी पिछले साल मार्च 2020 और मई 2020 में की गई थी। इस बढ़ोतरी से प्रति लीटर पैट्रोल पर 32.9 रुपये और डीजल पर 31.8 रुपये का टैक्स चुकाना होता था। वित्त वर्ष 2015 में प्रति लीटर पैट्रोल पर 9.48 रुपये और डीजल पर 3.56 रुपये का टैक्स लगता था। जबकि राज्यों का इस टैक्स में हिस्सा कम कर दिया गया है। वित्त वर्ष 2015 में डीजल पर केंद्रीय टैक्स का 41 फीसदी हिस्सा राज्यों को मिलता था जो कि अब घटकर 5.7 फीसदी ही रह गया है। यानी कि टैक्स रीस्ट्रक्चरिंग से राज्यों को नुकसान और केंद्र को फायदा हुआ है।
इस प्रकार मोदी सरकार ने साल 2020-21 में 36 बार डीजल के तो 39 बार पैट्रोल की कीमतें बढ़ाईं। जबकि एक बार डीजल और दो बार पैट्रोल की कीमतें कम की गई हैं।
उधर सरकार ने रिजर्व बैंक से कुल 2,75,000 करोड़ का अधिशेष लिया, जो तेल बॉन्ड्स के 1.44 लाख करोड़ का भुगतान करने के लिए पर्याप्त से कहीं अधिक था।
यह सभी जानते हैं कि संघ के सर्वाधिकप्रिय स्वयंसेवक मोदी पहले दर्जे के झूठे हैं, उनकी जुबान का जरा भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। यही नहीं सरकार में उनकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता है तो वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जो कुछ भी कहा है, उसका मतलब देश को गुमराह करने के अलावा कुछ नहीं है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि संघियों के 'परमपूज्य गुरुजी' माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर लिखकर दे गये हैं कि "हम वास्तव में राष्ट्र को और पीछे ले जाना चाहते हैं, एक हजार साल पीछे" (संघ का मुखपत्र- ऑर्गनाइजर 26 जनवरी, 1952)। यही नहीं प्रजाजनों के पास अधिक धन-सम्पत्ति नहीं होनी चाहिये क्योंकि ऐसे में शासकों के लिए उनपर शासन करना और जनविद्रोह की स्थिति में उसे दबाना कठिन हो जाता है।
गोलवलकर से लेकर मोहन भागवत तक संघ लोकतंत्र को यूरोप से आयातित विचार और मनुस्मृति की अवधारणा के विरुद्ध मानते हुए इसके विरोधी रहे हैं क्योंकि लोकतांत्रिक पद्धति शासन में समाज के सभी वर्गों की सहभागिता, सामूहिक निर्णय, समता और लोक-कल्याण की मूल भावना पर आधारित है। जबकि मनुस्मृति जातीय व लैंगिक वर्गभेद, मुट्ठीभर तथाकथित कुलीन श्रेणियों के सत्ता एवं अर्थ-तंत्र पर अधिकार, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की अमानवीय कल्पना को धरातल पर उतारने की जरूरत बताती है।
सरकार आपराधिक माफिया के संगठित गिरोह में बदल गई है। जिसका लक्ष्य लूट-खसोट के अलावा कुछ भी नहीं है। सत्ता के तालिबानीकरण की जो शुरुआत 2014 में हुई, वह अपने चरम पर पहुंच गई है। इसीलिए अब देश में महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, सड़क, भ्रष्टाचार, सत्तावर्ग द्वारा प्रायोजित हिंसा, अन्याय, उत्पीड़न आदि पर कहीं कोई चर्चा नहीं होने दी जाती। यह एक खतरनाक स्थिति है। जिसके परिणाम सिर और सिर्फ तबाही ही होंगे, यह निश्चित है।
—श्याम सिंह रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं