भारतीय राजनीति में कई नायक और खलनायक हुए हैं। ऐसा कोई नायक नहीं जिसने अपने आपको इस प्रकार पेश किया हो जैसा नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं। आज तक देश में पंद्रह बार संसदीय चुनाव हो चुके हैं और बारह प्रधानमन्त्री काम कर चुके हैं। इनमें मनमोहन सिंह ही अकेले ऐसे प्रधानमन्त्री हुए हैं जो राज्यसभा के सदस्य होते हुए प्रधानमन्त्री के पद पर विराजमान हैं। अन्यथा इंगलैण्ड की संसदीय परम्परा का पालन करते हुए लोकसभा चुनाव के बाद बहुमत प्राप्त पार्टी अपना नेता चुन कर प्रधानमन्त्री पद का दावेदार बनाती आई है।
मानव जीवन और समाज में नये प्रयोग विकास की नई दिशाएं तय करते आए हैं।
परिवर्तन मानव जीवन और भौतिक जगत का अटल नियम है लेकिन परिवर्तन की दिशा एक सम्भावना की तरह प्रत्येक स्थिति में विद्यमान रहती है। इसे परिवर्तन करने वाले नेत्तृत्व के घोषित उद्देश्यों के माध्यम से समझा जा सकता है। इस नज़रिये से जब नरेन्द्र मोदी के चुनाव अभियान का आकलन करते हैं तो कई प्रकार की आशंकाएं पैदा हो रही हैं जिनके बारे खुली बहस के तौर पर यह आलेख तैयार किया गया है।
मोदी के राजनीतिक विरोधी जो मर्ज़ी कहते रहते लेकिन हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए चिन्तित निम्न मध्यम वर्ग पर उनका प्रभाव बिलकुल नहीं पड़ रहा
वास्तव में जिस प्रचार को मोदी समर्थक लहर और आंधी बता रहे हैं वह वास्तव में आम आदमी के मन में सत्ता का आतंक पैदा कर रही है। यह लहर ज़रूर है लेकिन इसमें ज़हर भरा हुआ है जिससे लोगों को सावधान करने के लिए इन संत महात्माओं को ज़रूरत महसूस हो रही है।
मोदी ने अपने सूचना तन्त्र के मायाजाल से विस्मयकारी वातावरण पैदा किया है वह अंततः विस्फोटक सिद्ध होने जा रहा है।
मोदी ने केवल राजनीतिक मर्यादाओं का ही उल्लंघन नहीं किया बल्कि जिस पद की उम्मीदवारी का वह प्रचार कर रहा है उसकी गरिमा के अनुकूल शालीनता का त्याग करके अपने आक्रामक प्रशासक होने की छवि बनाने की जो कोशिश की है उससे इस देश की धर्मानुशासित जनता की भावनाओं को ठेस पंहुची है। इसका प्रमाण इन धर्म और संस्कृति के विद्वानों के बयानों से मिल रहा है।
अगर आप मोदी के प्रयासों की पहले दिन से ही जांच करना शुरु करें तो साफ हो जायेगा कि उन कोशिशों का जो परिणाम 16 मई को निकलना है उसका पूर्वानुमान इन बयानों में झलक रहा है। जिस प्रकार का चूहे बिल्ली का खेल बुजुर्ग और सत्ता तक पंहुचाने वाले नेता लालकृष्ण अडवानी के साथ किया जिस तरह से मुरलीमनोहर जोशी सरीखे वरिष्ठ नेताओं को संघ की धौंस के सहारे दरकिनार किया जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी के फोटो तक अपने फोटो के आगे बौने बनाकर प्रचारित किये, उसका नतीजा है कि चुनाव के आखिरी दौर तक आते-आते देश की सर्वधर्म के प्रति समभाव रखने वाली जनता ने अस्वीकार कर दिया है।
यह जनता गरीब भले ही हो लेकिन अपने सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आज भी संवेदनशील है। उसे यह सारा तमाशा बर्दाश्त नहीं हो रहा। मोदी और उसके समर्थकों को यह समझ लेना चाहिए।
ये बातें राजनीति की हैं जिनके बारे में मोदी की पार्टी को ही सोचना है पर हम जो मतदाता हैं हमें सोचना है कि हमारा प्रधानमन्त्री कैसा हो ?
वाराणसी में बोले कि उसे गंगा मैया ने बुलाया है।
उसे न किसी ने भेजा है और न अपने आप से आया है। मतलब साफ है कि भगवान भी उसे भारत का प्रधानमन्त्री बनाना चाहता है और गंगा मैया को भी वही पसंद है।
यह वाराणसी की धर्म में आस्था रखने वाली जनता के लिए ईश्वर के प्रतिनिधि का आदेश है कि वे उसे चुने अन्यथा उन्हें ईश्वर और गंगा मैया के प्रकोप का भागी बनना होगा।
यहां उसे इस देश की सांझी संस्कृति याद आई लेकिन भूल गये कि जिस प्रदेश के वह अभी भी मुख्यमन्त्री हैं वहां इस सांझी संस्कृति के साथ कैसा साम्प्रदायिक खिलवाड़ किया जा रहा है।
विदेशी समाचार पत्र द इण्डिपैन्डेट यूके के 25 अप्रैल 2014 के अंक में छपी रिपोर्ट के माध्यम से पता चला है कि भावनगर के हिन्दूबहुल क्षेत्रों में जो मुसलमान पहले से रह रहे हैं वे तो रहें कोई और मुसलमान वहां सम्पत्ति खरीद कर बस नहीं सकते। यदि बसने की कोशिश करें तो तोगड़िया का फरमान है कि उन्हें वहां से खदेड़ दिया जाये।
न भाजपा का उम्मीदवार प्रधानमन्त्री इस बारे बता रहा है और न ही खबरची चैनलों के वाचाल उद्घोषक किसी नेता से इन घटनाओं के बारे में सवाल पूछे जा रहे हैं।
हैरानी तो इस बात की है कि धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाली काग्रेस के नेता गाली गलौज का मुकाबला करने में इतने व्यस्त हैं कि मोदी के विकास मॉडल की असलियत जानने और उसे लोगों तक पहुंचाने में फेल हो रहे हैं।
नरेन्द्र मोदी मनमोहन सरकार को कमज़ोर बताते हुए प्रायः पाकिस्तान और चीन के साथ सीमा विवाद के संदर्भ में देश में एक मज़बूत सरकार के नाम पर वोट मांगते हैं।
इनसे पूछा जाना चाहिये कि मज़बूत सरकार से उनका क्या अभिप्राय है?
क्या देश की मज़बूती सिर्फ सैनिक मज़बूती मात्र होती है या इसके लिए जनता मज़बूत होनी चाहिए जो दुश्मन का मुकाबला कर सके ?
जिस देश में बच्चे कुपोषण का शिकार हों उसके सैनिक बहादुर कहां से आयेंगे ?
क्या बाहरी आक्रमण का सामना कुपोषित बच्चों वाला समाज सफलतापूर्वक कर सकता है?
क्या कुपोषित, अशिक्षित और अकुशल मज़दूरों के बूते सकल घरेलू उत्पाद की दर में वृद्धि हो सकती है ?
क्या शिक्षा को निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए खुला छोड़ देने से भारत जगद्गुरु का रुतबा हासिल कर सकता है?
क्या स्वास्थ्य सुविधाओं को बाज़ार के हवाले कर देने से हम स्वस्थ भारत का निर्माण कर सकते हैं?
क्या देश से प्रतिभापलायन राकने की कोई योजना मोदी सरकार के पास है?
पड़ोसी देशों के प्रति युद्धोन्माद पैदा करके आर्थिक और सामाजिक विकास की मंजिल तक पंहुच सकते हैं ?
माओवाद जैसे खतरे से निपटने के लिए मोदी सरकार के पास क्या योजना है ?
क्या आप सोचते हैं कि विकास और साम्प्रदायिकता साथ-साथ चल सकते हैं? ऐसे बहुतेरे सवाल हैं जिनके संतोषजनक जवाब तो नहीं मिले उलटे कुछ महत्त्वपूर्ण प्रति प्रश्न ज़रूर सिर उठाते नज़र आये। सबसे बड़ा सवाल था कि क्या कुपोषण अशिक्षा और चिकित्सा के बुनियादी मसलों से निपटने के लिए देश की सीमाओं की सुरक्षा उपेक्षित की जा सकती है ?
यहीं से जवाब भी मिल रहा है कि हमें ऐसी सकार की ज़रूरत है जो जनता की मूलभूत ज़रूरतों के साथ सुरक्षा के प्रति अपनी जवाबदेही तय करे।
आज नेता एकतरफा बात कर रहे हैं। यह उनके लिए सुविधाजनक भले ही हो लेकिन देश जिस परिवर्तन की बाट जोह रहा है वह दोतरफा जवाबदेही का है।
(सुन्दर लोहिया, लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। आपने वर्ष 2013 में अपने जीवन के 80 वर्ष पूर्ण किए हैं। इनका न केवल साहित्य और संस्कृति के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है बल्कि वे सामाजिक जीवन में भी इस उम्र में सक्रिय रहते हुए समाज सेवा के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं। अपने जीवन के 80 वर्ष पार करने के उपरान्त भी साहित्य और संस्कृति के साथ सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिकाएं निभा रहे हैं। हस्तक्षेप.कॉम के सम्मानित स्तंभकार हैं।)