Hastakshep.com-आपकी नज़र-आलोचना-aalocnaa-गणतंत्र-gnntntr-जनसंख्या विस्फोट-jnsnkhyaa-visphott-नरेंद्र मोदी-nrendr-modii-सरदार पटेल-srdaar-pttel-सोनिया गांधी-soniyaa-gaandhii

हर साल की तरह भारत के इस 64 वें गणतंत्र दिवस पर भी तमाम नेता, राजनैतिक-वक्ता, अफसर, मंत्री साहित्यकार, कवि-कलाकार, तथाकथित समाजसेवी और मीडिया वाग्मी- देश की जनता को न केवल शुभकामनाएँ दें रहे हैं अपितु शानदार क्रांतिकारी पैगाम भी दे रहे हैं। मुझे लगा कि मैं भी इस मौके पर देश का, देश के नेताओं का और जनता का वह पक्ष भी रखूँ जो हम सभी जानते हैं किन्तु इस अवसर पर उसे याद कर राष्ट्रीय त्यौहार की उमंग को कम नहीं करना चाहते। इस आशय और मंतव्य के साथ ही निम्नांकित पंक्तिओं के माध्यम से इस अवसर पर मैं भी अपने मित्रों, शुभचिंतकों, समकालिक सहचरों और अपने हम वतन साथियों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें प्रेषित करता हूँ।

वैसे तो तमाम राजनैतिक पार्टियाँ, उनके आनुषांगिक संगठन-उनके प्रवक्तागण, कार्पोरेट लॉबी, बाबा- स्वामी, शंकराचार्य और मीडिया- हर वक्त एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने तथा कभी सही-कभी गलत आरोप- प्रत्यारोप जड़ने की फिराक में रहते हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों आगामी लोक सभा के चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, त्यों-त्यों कुछ खास नेता अपनी लक्ष्मण-रेखा लाँघने पर उतारू हो रहे हैं। अपनी लाइन बढ़ाने के लिये सामने वाले की लाइन मिटाने पर आमादा हैं। अधिकाँश हितग्राहियों के तेवर बेहद आक्रामक, नकारात्मक और अपनी-अपनी औकात प्रदर्शित करने योग्य हैं।

जनता के सवालों पर, बढ़ती जाती आर्थिक असमानता पर, जनसंख्या विस्फोट पर, नदियों के प्रदूषण पर, नारी उत्पीड़न या कन्या संरक्षण पर, साम्प्रदायिकता या जातीय संघर्षों पर, राष्ट्र नव-निर्माण या सकल राष्ट्रीय उत्पादन पर, विदेश नीति बनाम सैन्य अभ्यास पर, अटॉमिक इनर्जी बनाम सम्प्रभुता के संकट पर, नकली करेंसी या उसके विमुद्रीकरण पर, संयुक्त राष्ट्र में भारत की दोयम दर्जे की हैसियत पर या भारत को अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में ससम्मान स्थापित किये जाने जैसे अनेक महत्वपूर्ण सवालों

पर बात करने के बजाय अधिकाँश पूँजीवादी दक्षिणपंथी पार्टियाँ और उनके घोषित-अघोषित 'पी एम् इन वेटिंग' नितान्त वैयक्तिक आरोप याने टुच्ची राजनैतिक बयानबाजी में लिप्त हैं। वे अपने समकक्षों या प्रतिद्वन्दियों की नकारात्मक आलोचना कर जनता को गुमराह या बेबकूफ बनाने पर आमादा हैं।

मोदी को नेहरू-गांधी परिवार से क्या शिकायतें हैं?

नरेंद्र मोदी को शिकायत है कि देश की आजादी के 67 साल बाद भी कांग्रेस जिन्दा क्यों है ? न केवल जिन्दा है बल्कि संप्रग के नाम से आज भी देश पर राज कैसे कर सकती है ? राहुल का सरनेम 'गांधी' क्यों है ? राहुल को उनकी माता श्रीमती सोनिया गांधी ने मोदी की तरह चुनाव से पूर्व 'पी एम् इन वेटिंग' घोषित क्यों नहीं किया ? उन्हें तो यह शिकायत भी है कि कांग्रेस ने सरदार पटेल के साथ अन्याय किया उन को देश का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया? मानों सरदार पटेल उनके सपने में आये थे और नेहरू की शिकायत के लिये उन्हें केवल मोदी ही मिले।

मोदी को यह शिकायत भी है कि राहुल गाँधी सहज जन्मजात सभ्रान्त और जन्मजात नेता क्यों हैं ? उन्हें यह शिकायत भी है कि राहुल ने कभी मेरी तरह चाय क्यों नहीं बेची ? इसी तरह कुछ लोगों को मोदी से भी शिकायत है कि उन्होंने खेतों में हल क्यों नहीं चलाया ? गेंती फावड़ा लेकर सड़कों या भवन निर्माण मजदूरों की तरह काम क्यों नहीं किया ? नरेंद्र मोदी ने निदाई-गुड़ाई क्यों नहीं की ? घास क्यों नहीं छीली ? 2002 में गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों में 'राजधर्म' क्यों नहीं निभाया ? कुछ लोग तो ये भी कह सकते हैं कि गाँधी-नेहरू या मोदी जैसे सरनेम के लोगों ने गरीबी-भुखमरी-बेकारी क्यों नहीं देखी ?इत्यादि ! इत्यादि! ! आलोचनाओं और अपेक्षाओं का तो कोई पारावार नहीं!

राहुल गांधी और कांग्रेस को शिकायत है कि मोदी फेंकू हैं! उन्होंने राहुल को युवराज और पप्पू क्यों कहा ? मोदी किसी महिला की जासूसी में लिप्त क्यों रहे ? वे शादी शुदा होने के वावजूद अपने-आप को कुआँरा क्यों बताते हैं ? किसी जमाने में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले इस मामूली हिंदुत्ववादी की इतनी हिम्मत कैसे हुयी कि एडोल्फ हिटलर की तरह राज्यसत्ता पर काबिज होने के लिये भाजपा की ओर से पी एम् इन वेटिंग ही बन बैठा ? जो नरेंद्र मोदी-आडवाणी जैसे अपने ही वरिष्ठों का मान मर्दन कर सकता है, जो अपने ही समकक्षों को ठिकाने लगा सकता है वह शख्स- उससे असहमत देश की करोड़ों आवाम के साथ 'गेस्टापो' वाला इतिहास क्यों नहीं दुहरा सकता ? जो कांग्रेस को, अल्पसंख्यकों को और संप्रग समेत तमाम 'गैर संघ परिवार' के राजनैतिक भारत को घृणा की नजर से देखता है, उसे जड़मूल से खत्म करने का सपना रात-दिन देखता है, ऐसा असहिष्णु और कट्टर साम्प्रदायिक व्यक्ति- 'पञ्च शील' के सिद्धान्तों वाले, अहिंसा के सिद्धान्तों वाले, सहिष्णुता के सिद्धान्तों वाले- महान धर्मनिरपेक्ष भारत का प्रधान मंत्री कैसे हो सकता है ?

भाजपा और कांग्रेस से दूरी बनाकर चलने वाले तीसरे मोर्चे को, वाम मोर्चे को और नवोदित 'आप' को तथा 'आप' पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल को शिकायत है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही मीडिया के विमर्श में कार्पोरेट जगत के, देशी-विदेशी पूँजी के पसंदीदा राजनैतिक एजेंट क्यों हैं ? भ्रष्टाचार, महँगाई और कुशाशन से लड़ने के लिये आम आदमी पार्टी को कुछ वक्त क्यों नहीं दिया जा रहा है? केजरीवाल और 'आप' की असफलता के लिये कांग्रेसी और भाजपाई दोनों ही शैतान के गढ़ में घी के दिए क्यों जला रहे हैं ?

वैश्विक सम्पर्क- सूचना संचार क्रांति तथा लूट की खुली छूट वाली आर्थिक- राजनैतिक व्यवस्था के वैश्वीकरण से भारत अछूता कैसे रह सकता है ?

नव-उपनिवेशवादी विश्व व्यापरियों को भारत एक चरागाह मात्र है, उनके घटिया उत्पादों के लिये बेहतरीन सर्वकालिक बाजार मात्र है। इसलिये इसका सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र भी अधोगामी हो चला है। चूँकि सत्ता पक्ष, विपक्ष और संचार माध्यम सभी दिग्भ्रमित हो रहे हैं, इसीलिये राजनीति के क्षेत्र में घटिया किस्म की नकारात्मक और पूर्वाग्रही आलोचनाओं का दौर जारी है। स्वस्थ और रचनात्मक आलोचना को प्रजातंत्र में अनिवार्य फेक्टर माना जाता है, किन्तु जब राष्ट्र निष्ठा से ऊपर निहित स्वार्थ शुमार होने लग जायें तो सत्ता में बने रहने के लिये झूठ, फरेब और ओछे चारित्रिक आरोप-प्रत्यारोप रूपी जुमलों की अनुगूँज स्वाभाविक है। निहित स्वार्थों की राजनीति है तो प्रजातान्त्रिक गरिमा खण्डित होना स्वाभाविक है। इस विमर्श को जन-चेतना के अभाव में क्रांतिकारी विचारधाराओं के अस्तित्व को खतरे के रूप में लिया जाना चाहिए। इस दौर की माँग है कि राजनैतिक आलोचना का स्वरूप सकारात्मक और रचनात्मक हो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

सार्वजनिक जीवन में सक्रिय अथवा मानवता के लिये कुछ खास बेहतर काम करने वाला कोई भी ऐसा व्यक्ति या समूह इस धरती पर कभी नहीं हुआ जिसकी निन्दा या आलोचना उसके समकालीन प्रतिस्पर्धियों ने न की हो। व्यक्ति या समाज ही नहीं बल्कि मानवता के हित में श्रेष्ठतम महामानवों की विराट परम्परा द्वारा सृजित सुसंस्कारित कला-साहित्य और संगीत भी उसके समकालीनों की ईर्ष्या वश नितान्त निदनीय आलोचना से नहीं बच सका।

यह सुविदित है कि संसार की अन्य सभ्यताओं और उनके शानदार मूल्यों की ही भाँति भारत में भी इंसानियत के बेहतरीन प्रमाण युग-युग में देखने को मिलते हैं। हरिश्चंद्र,शिवि, दधीचि, अगस्त, नल-दमयंती और भीष्म-कर्ण जैसे पौराणिक पात्रों ने जो बलिदान दिये उससे ही कालान्तर में भारतीय मूल्यों की स्थापना हुयी, उन्हीं से आधुनिक परम्पराओं और सामाजिक संस्कारों का जन्म हुआ। किन्तु प्रत्येक दौर के नकारात्मक लोगों ने तो उन वेदों को भी नहीं बख्शा-जो उपनिषदों आरण्यकों, श्रुतियों, संहिताओं, पुराणों, रामायण, गीता और महाभारत जैसे सदगर्न्थों के प्रेरणा स्त्रोत कहे जाते हैं।

तुच्छ लोगों ने हमेशा श्रेष्ठ की आलोचना कर अपने लिये इतिहास में जगह बनाई। इन्हीं भयंकर भूलों और गलत परम्पराओं के कारण आज भी मानव समाज किसी बेहतर क्रांति के लिये नहीं बल्कि अपने-पंथ-मजहब-जात-वर्ण, सत्ता और अपनी कबीलाई मानसिकता के कारण एक-दूसरे के चरित्र हनन पर आमादा हो रहा है। अपनी लकीर बढ़ाने के बजाय औरों की लकीर मिटाने का दौर जारी है।

कुछ पुरातन निषेधों और असहमतियों को वर्तमान दौर में प्रतिगामी घोषित किये जाने का भी परिणाम है कि जो अच्छा है वो खतरे में है। जो नकारात्मक और विनाशक है वो परवान चढ़ रहा है। जो पुरातन कूड़ा-धार्मिक आडम्बर, साम्प्रदायिकता,जात-पाँत- अतीत में सामन्तशाही को मजबूत बनाने में इस्तेमाल हुआ करते थे, वे तो इन दिनों पूँजीवाद को और भ्रष्ट राजनीति के पोषक तत्व बन चुके हैं। शोषण की कुल्हाड़ी के बेंट बन उसे मजबूत करने के काम आ रहे हैं।

सकारात्म्क पुरातन मानवीय और वास्तविक मूल्य-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह अब जमींदोज हो चुके हैं। संघ परिवार, स्वामी रामदेव, स्वरूपानंद, आसाराम जैसे लोग इन मूल्यों को एक बाजारी उत्पाद के रूप में गली-गली बेचते रहे हैं। अब 'नमो' भी इसके मुख्य सेल्समैन बन गये हैं। इन सभी ढपोरशंखियों की अतार्किक और आधारहीन वैयक्तिक आलोचनाओं के कारण राज्यसत्ता के खिलाफ सही आन्दोलन सफल नहीं हो पा रहा है। वैज्ञानिक और प्रगतिगामी आलोचना करने वालों को जन-समर्थन नहीं मिला पा रहा है। उन्हें नास्तिक, नक्सलवादी, विदेशी विचारधारा का या अराजकतावादी संज्ञाओं से विभूषित किया जा रहा है। भले ही उनमें से कुछ ऐसे भी हों जो कि विश्व की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी-श्रेष्ठतम-भौतिकवादी द्वन्द्वात्मक याने युगानुकूल वैज्ञानिक चिंतनधारा के समर्थक ही क्यों न हों!

शोषण की व्यवस्थाओं में भी सन्निहित सभ्यताओं की, संस्कृतियों और मानवीय कलात्मक सृजनशीलता की, समष्टिगत या वस्तुगत आलोचना के बरक्स वैयक्तिक आलोचना भी सारे संसार की ही तरह भारत में भी सदैव सशक्त रही है। वैश्विक प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाओं में जनाधिकार के र्रूप में सर्व मान्य- सर्व स्वीकृत आलोचना का अधिकार जब किसी राष्ट्र की सुरक्षा को खतरे में डालने की स्थति में होता है तो उसे प्रतिबन्धात्मक निषेध का सामना करना ही पड़ता है।

जिस तरह रामायणकाल में श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, वशिष्ठ, दशरथ या कैकई जैसे राजसी पात्र ही नहीं बल्कि विश्वामित्र, परशुराम, विभीषण और सुग्रीव तथा हनुमान जैसे समाज को दिशा देने वाले बौद्धिक और मानवता के दिग्दर्शक- महानतम नायक भी तत्कालीन समाज में ही आलोचना के पात्र बन चुके थे, उसी भाँति कालांतर में कृष्ण, बलराम, राधा, रुक्मणि एवं द्वारका का समस्त 'यादव' समाज भी तत्कालीन ऋषियों-महर्षियों की आलोचना का पात्र बन चुका था। केवल कौरव ही नहीं, केवल धृतराष्ट्र ही नहीं, केवल भीष्म पितामह ही नहीं, केवल अश्वत्थामा ही नहीं बल्कि बल्कि धर्मराज युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल एवं सहदेव सहित समस्त पांडव वंश भी तत्कालीन समाज में ही घोर आलोचना का केन्द्र बन चुका था। जनमेजय के नागयज्ञ तक की परिचर्चा में केवल प्रतिहिंसा और आलोचना का ही सिंहावलोकन होता है। अब हजारों साल बाद यदि हम में से कुछ लोग उन्हीं प्राचीन पात्रों को पूजते रहें, उनके द्वारा स्थापित मूल्यों या सिद्धान्तों का स्तुति या मन्त्र के रूप में केवल जाप करते रहें तो यह 'दूर के ढोल सुहावने ' जैसी मिथकीय अवधारणा ही कही जा सकती है। स्थापित परम्पराओं, मूल्यों, आदर्शों और चरित्रों के अनुप्रयोग से वर्ग विशेष के लाभान्वित होने और किसीवर्ग विशेष के शोषित होने की कसौटी ही तय कर सकती है कि 'आलोचना' के निहतार्थ क्या हैं ?

अतीत के नायकों के प्रति इस तरह के व्यामोह से ' सनातन आलोचना' की सेहत पर कोई असर नहीं पढ़ने वाला।

ईश्वर अवतार, पीर, पैगम्बर या देवदूत के रूप में पूजकर किसी भी इंसान को चाहे जितना दैवीय स्वरूप प्रदान क्यों न कर दिया जाये उसके सामने सदैव 'प्रतिनायकवाद' का तथाकथित शैतानियत का या नकारात्मकता का भूत अवश्य ही खड़ा हुआ दिखाई देगा। सुकरात, ईसा, बुद्ध, कार्ल मार्क्स, विवेकानन्द, लेनिन, गांधी, अरविन्द के बरक्स नेपोलियन, चर्चिल, हिटलर, जिन्ना, रीगन, येल्तसिन, लेक बालेशा, जिया- उल-हक, परवेज मुशर्रफ और ईदी-अमीन के समर्थकों की तादाद दुनिया में हमेशा अधिक क्यों रही है ?

आम धारणा है कि आलोचना तभी होती है जब कुछ किया जाता है। कुछ मत करो तो आलोचना का कोई खतरा नहीं। हो सकता हो इसमें आंशिक सच्चाई हो किन्तु राजनीति के क्षेत्र में तो अधिकांशतः आलोचना के निहतार्थ- केवल सत्ता प्राप्ति की अभीष्ट अभिलाषा और प्रतिपक्षी के सर्वनाश की कामना ही प्रकट हुआ करती है।

मेरे इस कथन पर यकीन न हो तो भाजपा के 'पी एम्-इन वेटिंग 'श्री नरेंद्र मोदी के उस वक्तव्य पर गौर करें जिसमें वे कहते पाये गये हैं कि 'भारत को कांग्रेस मुक्त बनाना है।'

बेशक कांग्रेस के नेता, नीतियाँ और कार्यक्रम शायद अब देश के अनुकूल न रही हों। किन्तु यह सदैव याद रखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान की फौजी तख्ता पलट की तरह कांग्रेस सत्ता में कभी नहीं आई। जनता ने बार-बार चुना, यह जनादेश का अपमान ही होगा कि चुनी हुयी सरकारों को सिर्फ इसलिये गाली दी जाये कि 'काश हम सत्ता में क्यों न हुये'? बेशक यदि आपके पास बेहतर नीतियाँ-कार्यक्रम और ईमानदार नेत्त्व क्षमता है तो अपना 'विजन' घोषणा पत्र प्रस्तुत कीजिये। बेशक कांग्रेस को जनता ने पहले भी हराया था और अब भी हारेगी। किन्तु उसे समूल खत्म करने की बात करना प्रजातान्त्रिक भावना नहीं है। यह कदाचार- हिटलर, जिया उल हक़ या ईदी अमीन या रॉबर्ट मुगाबे- जैसा तो हो सकता है किन्तु गांधी, सरदार पटेल या नेहरू जैसे नेताओं का सदाचार कदापि नहीं हो सकता। भले ही उनकी एक नहीं सैकड़ों मूर्तियाँ हिमालय से ऊँची बनाते रहो- त्याग, बलिदान और निजी स्वार्थ को होम किये बिना भगतसिंह जैसे, आजाद जैसे, और अश्फाक उल्लाह खाँ जैसे शहीदों के सपनों का भारत न तो मोदी बना सक सकते हैं, न राहुल बना सकते हैं और न 'आप' के केजरीवाल !

सभी को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर अग्रिम शुभकामनाएं !

क्रांतिकारी अभिवादन सहित ! !

श्रीराम तिवारी,

लेखक जनवादी कवि और चिन्तक हैं. जनता के सवालों पर धारदार लेखन करते हैं।

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