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अशोक कुमार पाण्डेय

आज जनसत्ता में लक्ष्मीधर मालवीय का भयावह आत्मश्लाघा और प्रवंचना से भरा लेख है अज्ञेय की शीलरक्षा अभियान के तहत…सवालों का जवाब देने की जगह सवाल करने वालों की औकात पूछने का गुरुर इतना कि वे घोषणा करते हैं कि 'समयांतर' पता नहीं क्या चीज़ है! अज्ञेय के जासूस होने का जवाब है कि वे रिहार्द जोर्गे की कोटि के जासूस नहीं थे (किसकी कोटि के थे इसका कोई ज़िक्र नहीं)। यशपाल पर आरोप पत्र है लेकिन इस बात का कोई जवाब नहीं कि भरपूर कीचड़ उछालने के बाद उनका जवाब दिनमान में छापने से अज्ञेय ने इंकार क्यूं कर दिया? अमेरीकी संस्थाओं से जुड़ाव के सवाल पर वे मुहावरे गिनाते हैं तो डालमिया-साहू जैन पुरस्कार अज्ञेय को ही क्यूं मिला इस पर तंज करते हैं कि वे इसे शमशेर को दिलाने में असमर्थ थे। उनकी घोषणा स्पष्ट है कि - 'मरणान्तानि वैराणि' यानि मरने के बाद वैर ख़त्म हो जाना चाहिये। इस रीति से आप मुसोलिनी या हिटलर के बारे में कुछ कहेंगे तो भी मालवीय जी के कोपभाजन के शिकार होंगे। जय जानकी यात्रा बाबरी मस्ज़िद तक कैसे पहुंचती है वह भी उनके लिये मुहावरे का सवाल है। उनसे कौन यह पूछेगा कि आज़ादी 15 अगस्त 1947 को आसमान से नहीं टपकी उसके पीछे 200 बरस की लड़ाई थी तो बाबरी भी 6 दिसंबर को किसी संयोग से नहीं टूटी। लेकिन वे कैसे सोच पायेंगे इतना…सवाल उन्हें चिंतित नहीं करते गुदगुदाते हैं। वाद के नाम से जो बादी के शिकार (प्रयोग उन्हीं का) होते हैं उनसे ऐसे ही लंगड़े विमर्श की उम्मीद की जा सकती है…वह चाहे मालवीय हों या भारत भारद्वाज!