आज सुबह सुबह बसंतीपुर से पद्दो का फोन आया। पहली बार तो लगा किसी कंपनी का होगा, इसलिए काट दिया। दोबारा उसके रिंगियाने पर मोबाइल से संपर्क साध लिया।
छूटते ही पद्दो ने कहा कि आज दिनेशपुर में तुझे प्रेमचंद सम्मान दिया जा रहा है।
मैंने कहा कि मैं कोई सम्मान लेता नहीं। पुरस्कार भी नहीं। मेरी ओर से माफी माँग लेना।
इस साल डायवर्सिटी मैन आफ दि ईअर के लिए प्रिय मित्र एचएल दुसाध का फोन आया, तो मैंने तब भी मना कर दिया था कि पुरस्कार और सम्मान में मेरी दिलचस्पी है नहीं और इस भेड़ धंसान में मैं शामिल नहीं हूँ।
विनम्रता पूर्वक सभी भद्रजनों से दरख्वास्त है कि भविष्य में अन्य योग्य लोगों को ही पुरस्कृत करें, सम्मानित करें। मेरे नाम की सोचें ही नहीं। न मुझे कालजयी बनना है और न प्रतिष्ठित। मैं जिस सतह से उठते लोगों की संतान हूँ, वहाँ मेरा जो वजूद है, वह उसी शक्ल में कायम रहे, इसी की लेकिन मेरी जद्दोजहद है। मैं एक कामगार का बेटा हूँ। सफेद कॉलर से कोई भद्र नहीं हो गया और भद्र समाज के तामझाम से मुझे दूर रहने दें।
पहले तो सविता ने कहा कि अपने लोग हैं। वे सम्मानित करते हैं तो बुरा क्या है। यह उनका प्यार भी है। मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार यह है कि जीआईसी के दिनों की तरह मेरे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी अब भी मेरा लिखा पढ़ते जाँचते हैं और खामियों के लिए अब भी कान उमेठ देते हैं।
मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार यह है कि बसंतीपुर, दिनेशपुर, तराई और पहाड़ में मेरे अपने लोग, मेरे परिजन मेरा लिखा पढ़ते हैं। इसके अलावा मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।
सविता और मैंने तय किया है कि यह मामला हमेशा के लिए बंद कर दिया जाये और कोई सम्मान पुरस्कार हम
देश दुनिया का जब यह हाल, जब हमारे लोग बेमौत मारे जा रहे हैं, तो भद्र गतिविधियों में खपने का कोई औचित्य नहीं है।
इसके बाद हमेशा की तरह सबसे पहले इकोनामिक्स टाइम्स खोला तो पता चला कि श्रम कानूनों का बंटाधाऱ हो गया। संविधान की धारा 12 से लेकर मैटरनिटी लीव संबंधी धारा 42 तक के कायदे कानून खत्म करने में इस केसरिया कारपोरेट सरकार को कितना वक्त लगता है, इंतजार इसी का है। मेरे लिए यह काला दिन है।
हमने किसी को ईद मुबारक कहा नहीं है। पर्वों और त्योहारों पर शुभकामनाएं मैं टाँगता नहीं। गाजा में चल रहे नरसंहार के मध्य, यूपी में झुलस रही इंसानियत के मध्य, पंजाब, गुजरात, कश्मीर, मध्य भारत पूर्वोत्तर में इंसानियत और कायनात पर कयामत बरपने के दिन किसी रब के आगे सजदा करने की तमीज मेरी नहीं है।
बचपन में किसी के पाँव न छूने के कारण घर में बेहद मार खायी है। मैराथन मार। ताऊजी, पिताजी, चाचाजी मार-मार कर थक गये, लेकिन मैं ने कभी किसी का चरण स्पर्श नहीं किया। चरण स्पर्श न करने की बदतमीजी जारी रहने की वजह से लगातार मारें पड़ती रही हैं। किसी धर्मस्थल पर सजदा के लिए सर झुकाने की तहजीब मेरी है ही नहीं। किसी देव देवी के दरवाजे मेरी न कोई मन्नत है और न ख्वाहिशें हजार।
आज जब खेत सिरे से तबाह हैं, कामगारों के हाथ पाँव कटे हैं, प्रकृति और मनुष्यता का दसों दिशाओं में सर्वनाश ही सर्वनाश है, मेरे शब्दकोश में न कोई शुभकामना है, न कोई सम्मान है और न ही कोई पुरस्कार।
पलाश विश्वास।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।