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फासिज्म का नस्ली राजकाज जनता को राहत देने के खिलाफ,
तेल सस्ता होने से बढ़ा सरदर्द!
सबसे बड़ा सवाल : टैक्स होलीडे, कर्ज माफी के बाद अब श्रमकानून खत्म करने वाले अच्छे दिन किस किसके लिए?
दुनिया पर राज करने के लिए बन रहा है सबसे खतरनाक त्रिभुज भारत, अमेरिका और जर्मनी में पुनरूत्थानवादियों का मनुष्यताविरोधी जिहाद।
पलाश विश्वास
तेल का बचा पैसा गया कहां?
भारत में तेल कारोबार पर वर्चस्व किनका है?
संचार पर किसका कब्जा है?
कुछ भी सस्ता क्यों नहीं हो रहा?
अमेरिकी साम्राज्यवाद का हर स्तर पर विरोध के बावजूद अमेरिका का रंगभेद के खिलाफ, धर्मोन्माद के खिलाफ और देशी विदेशी ट्रंप के खिलाफ जो लोकतंत्र और मनुष्यता और सभ्यता की निर्णायक लड़ाई का संकल्प है, उसे समझना हमारा काम है। चूंकि हममें से ज्यादातर का दिलोदिमाग इन दिनों ट्रंप है और दुनिया पर राज करने के लिए बन रहा है सबसे खतरनाक त्रिभुज भारत, अमेरिका और जर्मनी में पुनरूत्थानवादियों का मनुष्यताविरोधी जिहाद।
ओबामा ने साफ कहा, आतंकी संगठन आईएस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता यह एक कट्टरवादी संगठन है।
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देशवासियों से अपील की कि वे ऐसी राजनीति को खारिज करें जो लोगों को धर्म और नस्ल के आधार पर निशाना बनाती है।
धर्मोन्मादी रंगभेद के खिलाफ ओबामा को बजरंगबली का भक्त बनाने वालों की बलिहारी!
इस पर खास ध्यान दें, संभावित अगले अमेरिकी रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की इस्लाम मुक्तभारत के हिंदुत्व एजंडा के माफिक मुसलमानों के लिए अमेरिका का दरवाजा बंद करने की युद्धघोषणा के जवाब में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बुधवार को अपना अंतिम 'स्टेट ऑफ यूनियन' भाषण दिया। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत में हिंसक घटनाओं की कड़ा विरोध जताया साथ ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बताया। उन्होंने दावा किया कि आतंकी संगठन आईएस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता यह एक कट्टरवादी संगठन है। इसके

साथ ही अमेरिका और बाकी दुनिया को भरोसा देते हुए उन्होंने आईएस को तबाह करने का अपना वादा भी दोहराया।
भारत में तेल कारोबार पर वर्चस्व किनका है?
संचार पर किसका कब्जा है?
कुछ भी सस्ता क्यों नहीं हो रहा?
यह जवाब बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें घटने पर तेल कंपनियों को फायदा होता है। भारत सरकार और अर्थशास्त्री भी तेल की बचत के बूते विकास दर का हवामहल बनाते हुए नजर आ रहे हैं। जाहिर है कि यह बचत सरकारी कंपनियों के मार्फत है। तो अंदाजा लगाइये कि तेल के कारोबार से निजी कंपनियों को और किन कंपनियों को क्या क्या फायदा है, जिसके तहत वे तमाम सेक्टर के प्रोमोटर सरगना की हैसियत में हैं।
ताजा खबरों के मुताबिक ईरान के पेट्रोलियम मंत्री बिजन नमदार ज़ांगने ने बताया है कि उनके देश पर लगे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध हटाए जाने के बाद तेहरान ओपेक और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अपनी पूर्व स्थिति बहाल करेगा और शरद ऋतु तक अपने कच्चे तेल का निर्यात बढ़ाकर प्रति दिन बीस लाख बैरल कर देगा।
याद करें वह वक्त जब कच्चा तेल 160 डालर प्रति बैरल मिल रहा था और महंगाई मुद्रास्फीति से लेकर वित्तीय घाटे की वजह बढ़ती हुई तेल कीमतें बतायी जा रहीं। तेल कीमतों के बहाने कीमतें विनियंत्रित विनियत बाजार के हवाले कर दी गयीं तो रेलवे हवाई यात्रा और सड़क जल परिवहन के भाडा़ किराया में बेतहाशा बढ़ोतरी को तेल के बाबत जायज बताया गया। इसी दलील के तहत सब्सिडी खत्म करने की योजना बनी। सरकारी तेल कंपनियों के विनिवेश का सिलसिला तेल कीमतों की वजह से शुरु हुआ तो ओएनजीसी के पैसों, संसाधनों और उनके वैज्ञानिकों कर्मचारियों के खोजे तेल क्षेत्र किन्हीं खास कंपनी को बाकायदा तोहफे में दे दिये गये।
अब तेल की कीमत बाजार में 30 डालर के आसपास है और गिरावट का सिलसिला जारी है। बीस डालर तो हो ही रहा है बल्कि अर्थशास्त्री दस डालर बहुत जल्द तेल की कीमतें हो जाने यानी मिनरल वाटर से भी सस्ता तेल हो जाने का ऐलान कर रहे हैं।
अगर तेल से कीमते जुड़ीं हैं तो 160 से तीस डालर के हिसाब से बाकी कीमतें खासतौर पर परिवहन और उर्जा खर्च तो सिर्फ पांचाव हिस्से तक पहुंचना चाहिए। लेकिन शून्य मंहगाई के अच्छे दिनों में खाने की चीजों की मंहगाई अब भी सुरसामुखी है।
इसके उलट दुनिया भर में बाजारों मे तेल के साथ साथ कीमतों पर बी असर हुआ है। भारत में जाहिर है कि कोई असर नहीं है। मायने यह कि तेल कीमतों से बचा पैसा देश के नागरिकों के लिए नहीं है।
सवाल यह है कि यब बचत आखिर कहां और किसके जेब में पहुंच रही है। मुक्त बाजार के व्याकरण के हिसाब से तो उपभोक्ताओं को सीधे फायदा होना चाहिए। इसे समझना बेहद जरूरी है कि वैश्विक संकेत सिर्फ विदेशी निवेशकों की आस्था और कारपोरेट हितों के मुताबिक क्यों है।
बिजनेस फ्रेंडली सरकार बनियों के हितों के बारे में भी सोच नहीं रही है और खुदरा कारोबारियों से लेकर छोटे मंझौले उद्योगपतियों का काम तमाम है
गौरतलब है कि कर ढांचे में सुधार के बहाने करारोपण में समाजवाद है। भिखारी भी वही टैक्स भरे जो खरबपति भरें। करों में छूट कर्ज माफ का किस्सा हरिकथा अनंत है। बिजनेस फ्रेंडली सरकार बनियों के हितों के बारे में भी सोच नहीं रही है और खुदरा कारोबारियों से लेकर छोटे मंझौले उद्योगपतियों का काम तमाम है। खेत खलिहान जल जंगल जमीन और गांव तो बचे नहीं है। सिर्फ हिंदुत्व की केसरिया सुनामी और धर्मोन्मादी आस्था बची है।
बजट के लिए फिर कर ढांचे को सरल बनाकर पूंजी को खुला कारोबार का वर्चस्व कायम करने की छूट दी जा रही है एकतरफ तो उत्पादक मेहनतकशों के काम धंधे और रोजगार छीने जा रहे हैं।
मैन्युफैक्चरिंग को मेक इन इंडिया कहा जा रहा था तो वह अब स्टार्ट अप इंडिया में तब्दील है। सारी सेवाएं और सारी जरुरी चीजें मोबाइल से मिलेगीं तो संचार तंर्त सरकारी भी नहीं है। किनका वर्चस्व स्टार्टअप का प्लेटफार्म है, इसलिए कोई आईएसएस जैसी परीक्षा की भी जरूरत नहीं है। बच्चा-बच्चा कह देगा।
स्टार्ट अप को तीन साल के लिए कर्ज माफी मान लेते हैं कि रोजगार बढ़ाने के लिए हैं, लेकिन ये स्टार्ट अप उद्यम श्रम कानूनों के पाबंद नहीं होगे तीन साल तक, इस पर हमारी राजनीति और मेधा खामोश है।
अब भी आप नहीं समझें कि किसानों, मेहनतकशों, कारोबारियों और उद्यमियों तक के काम तमाम करने के बाद किस किसके अच्छे दिनों का यह राजकाज मुक्तबाजारी केसरिया सुनामी है, तो फिर कुछ कहना असहिष्णुता है।
चूंकि तेल उत्पादकों का काम तमाम है और अलकायदा तालिबान आइसिस और अरबिया वसंत बजरिये तमाम तेलकुँओं पर या अमेरिका या फिर इजराइल का वर्चस्व है और तेल का सारा कारोबार भी उन्हीं के शिकंजे में हैं।
इसके खिलाफ तेल उत्पादकों ने बाकायदा नाफरमानी जंग छेड़ दी है, जिससे तेल का उत्पादन अब पहले की तरह नियंत्रित नहीं है और इफरात तेल की वजह से गिरते तेल भाव से डालर के टूटने का खतरा है।
मजा यह है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों में, अविराम तेल युद्ध और 2008 की महामंदी के बावजूद डालर टूट नहीं रहा है और बराक ओबामा ने अपनी आखिरी वक्तृता में पाकिस्तान और चीन का उल्लेख तो किया लेकिन भारत का नाम, या बिरंची बाबा का नाम लिया नहीं है।
कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के चलते सरकार पर दवाब है कि देश में पेट्रोल-डीजल की कीमतों को कम किया जाये। इसके मद्देनजर भारत में "पानी से सस्ता कच्चा तेल" की बहस चल पड़ी है। लेकिन जानकार इस तुलना को सिरे से खारिज करते हैं और कहते हैं कि सस्ता कच्चा तेल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है।
राष्ट्रवाद है लेकिन राष्ट्र नहीं है
डोनाल्ड ट्रंप कयामत की तरह उसी तरह अमेरिका पर छा गये हैं जैसे केसरिया सुनामी में भारत कहीं खो गया है। राष्ट्रवाद है लेकिन राष्ट्र नहीं है। हालात फिर वही है जैसे संविधान सभा में अपने पहले भाषण में बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था कि हम आपस में मारकाट कर रहे अलग अलग कैंप है। तब भारत राष्ट्र के निर्माण के लिए अनिवार्य शर्त उनने आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक समानता की मंजिलें हासिल करने की लगायी थीं।
ट्रंप का एजंडा वही है जो नागपुर के हिंदुत्व मुख्यालय का है
डोनाल्ड ट्रंप की दलील और मुसलमानों के लिए अमेरिका में कंप्लीट शटर डाउन की उनकी घोषणा को हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं में समझना हो तो अनुवाद की कोई जरूरत नहीं है, वह मौलिक रुप में तमाम महापुरुषों, महानारियों के बारंबार उद्गार में उपलब्ध है क्योंकि ट्रंप का एजंडा वही है जो नागपुर के हिंदुत्व मुख्यालय का है।
गौरतलब है कि राष्ट्रपति के रूप में वाइट हाउस में बराक ओबामा का यह अंतिम साल है।
हमने बराक ओबामा को अमेरिका का पहला अश्वेत राष्ट्रपति बनाने के दुनिया भर के तमाम लोगों की मुहिम से खुद को जोड़ा इसीलिए था कि हम जार्ज वाशिंगटन, अब्राहम लिंकन और मार्टिन लूथर किंग की विरासत के मुताबिक अमेरिका में यह अनिवार्य परिवर्तन मान रहे थे। हालांकि बराक ओबामा के दोनों कार्यकाल में अमेरिकी युद्धक विदेश नीति और दुनिया भर में अमेरिका की पुलिसिया गश्त में कोई बदलाव नहीं आया।
इसके बावजूद जर्मनी में नवनाजियों के पुनरूत्थान और अमेरिका में कू क्लक्स क्लान के पुनरुत्थान जो बरमुडा त्रिभुज भारत के पुनरूत्थानवादियों के साथ बन रहा था, जो कयामत इंसानियत और कायनात के खिलाफ मौत की तरह खड़ी थी, उसे टालने के लिए ओबामा का चुना जाना जरूरी है।
यही वह तीसरा विश्वयुद्ध है, जो छेड़ने के लिए यह त्रिभुज बेताब है और इसके जवाब में अमेरिकी राष्ट्रपति ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि इस्‍लामिक स्‍टेट से जारी लड़ाई तीसरा विश्‍व युद्ध नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ हर देश को एकजुट होना जरूरी है। बिना भेदभाव के सारे देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एक साथ चलें। आज भी जब भी कहीं दुनिया में आतंकी हमला होता है तो जान बचाना अमेरिका की प्राथमिकता होती है। इसका साफ उदाहरण है कि आज हर बड़े मुद्दे पर दुनिया मॉस्‍को या बीजिंग की बजाय लोग अमेरिका की ओर देखते हैं। उनका कहना है कि स्पिरिट ऑफ डिस्‍कवरी अमेरिका के डीएनए में हैं। थॉमस एडिसन, राइट ब्रदर्स और जॉर्ज वॉशिंगटन इसके उदाहरण हैं। जो आज पूरी दुनिया में सबसे ऊपर माने जाते हैं।
गौरतलब है कि जर्मनी, अमेरिका और भारत में पुनरूत्थान का यह ग्लोबल त्रिभुज की नींव शुद्धता बाद है जो दरअसल रंगभेद है, जिसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति भारत में जन्मजात जाति व्यवस्था है।
मजे की बात तो यह है कि बाराक ओबामा के रंगभेद, धर्म और नस्ल की राजनीति के खिलाफ अमेरिकी कांग्रेस और अमेरिकी नागरिकों को ऐतिहासिक संबोधन भारत में सुर्खियां नहीं बनीं। भारतीय मीडिया ने बजाय इसके उनकी जेब की तलाशी लेकर उन्हें वक्त बेवक्त मिले उपहारों पर फोकस किया है, जिन्हें ओबामा अपनी संघर्ष यात्रा और दुनिाय भर के लोगों से मुलाकातों की याद बतौर अपने साथ रखते हैं।
ओबामा को मिले ऐसे उपहारों में बजरंग बली की एक मूर्ति भी है। धर्म की स्वतंत्रता और नस्ली रंगभेद, घृणा अभियान के खिलाफ उनके वक्तव्य की एक पंक्ति को भी मुद्दा बनाये बिना बजरंग बली की उस छोटी सी मूर्ति के बहाने डोनाल्ड ट्रंप के अनुयायी भारत में हिंदुत्व का महिमामंडन करने लगे आस्था का हवाले देते हुए।
हमने इसीलिए बराक ओबामा के विदाई भाषण की फ्रेम टू फ्रेम चीरफाड़ की है और जाहिर है कि विदेश नीति और अमेरिका के आंतकविरोधी युद्ध के बारे में उनकी दलीलों को हम अमेरिकी राष्ट्र के सत्तातंत्र की दलीलों की निरंतरता मानते हैं और हम उनसे कतई सहमत नहीं है।
सबसे बड़ी बात है कि आठ साल पूरे होने के बाद उन्हें अमेरिकी जनता और अमेरिकी कांग्रेस को पूरे आठ साल के अपने कामकाज का हिसाब देना पड़ा। नीतियों के बारे में खुलासा करना पड़ा। अर्थव्यवस्था का ब्यौरा देना पड़ा।
हमारे राष्ट्र नेता और जनप्रतिनिधि न जनता और न संसद के प्रति जिम्मेदार है। चुनावी जनादेशमिल गया तो समझ लीजिये फिर संसदीय अनुमति या आम जनता की राय हमारे यहां बेमतलब हैं और हमारे चुनावी मुद्दे भी आर्थिक मुद्दे नहीं होते और न हम घरेलू राजकाज के बारे में कुछ भी कहने को आजाद हैं। विदेश नीति और राजनय तो निषिद्ध विषय है जैसों प्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा। अमेरिकी चुनावों में इन पर खुली बहस और जवाबदेही अनिवार्य है।
इस लिहाज से अमेरिकी साम्राज्यवाद का हर स्तर पर विरोध के बावजूद अमेरिका का रंगभेद के खिलाफ, धर्मोन्माद के खिलाफ और देशी विदेशी ट्रंप के खिलाफ जो लोकतंत्र और मनुष्यता और सभ्यता की निर्णायक लड़ाई है, उसे समझना हमारा काम है। चूंकि हममें से ज्यादातर का दिलोदिमाग इन दिनों ट्रंप है और दुनिया पर राज करने के लिए बन रहा है सबसे खतरनाक त्रिभुज भारत, अमेरिका और जर्मनी में पुनरूत्थानवादियों का मनुष्यताविरोधी जिहाद।

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