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संघर्ष-2014 का आह्वान
नहीं चाहिए कम्पनी राज
हमें चाहिए जनता राज

ज़ालिम को जो ना रोके वो शामिल है ज़ुल्म में,
कातिल को जो ना टोके वो कत्ल के साथ है ।
अशोक चौधरी और रजनीश

देश में राष्ट्रीय चुनाव की प्रक्रिया ज़ोर शोर से चल रही है और धीरे-धीरे अपने अन्तिम दौर की ओर भी बढ़ रही है। आज़ादी के बाद देश में जितने भी चुनाव हुए हैं, उन सब में यह चुनाव सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे राष्ट्रीय आजादी के आन्दोलन में अथक संघर्ष के बाद जिन विदेशी शक्तियों से हमारे पूर्वजों ने देश को आज़ाद करवाया था। आज वही विदेशी शक्तियां हमारी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों के माध्यम से रास्ता बनाकर हमारे देश में फिर से स्थापित होने की साजिश में लगी हुई हैं। इस चुनाव का परिणाम ये तय करेगा कि आने वाले दिनों में देश के अपार प्राकृतिक संसाधन, देश के नागरिको के स्वतंत्र और संवैधानिक अधिकार, सार्वजनिक क्षेत्र के कल-कारखाने, दफ़्तर, अस्पताल, स्कूल और विश्व विद्यालय आदि देश के आम लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए चलेंगे या महज देशी-विदेशी कम्पनियों की मुनाफाखोरी के लिए चलेंगे। मामला बहुत साफ है, कि एक तरफ पूॅजी और सत्ता से ताकतवर देशी-विदेशी कम्पनियों के मालिकगण हैं और दूसरी तरफ देश के 120 करोड़ से अधिक अमन पसंद और निहत्थे लोग, जो सम्मान से जीने के लिए हर दिन हर पल संघर्षरत हैं।
इस चुनाव में इन दोनों शक्तियों के बीच सीधी टक्कर है और इस टक्कर में बहुत सारी रंग-बिरंगी पार्टियां अपना खेल खेल रही हैं। कोई ये कह रहा है कि ‘‘भारत को एक मज़बूत राष्ट्र बनाएंगे’’ ताकि शासक लोग देश के लोगों के ऊपर अपना प्रभुत्व कायम रखते हुए उसे और मज़बूत कर सकें और इसके साथ-साथ अन्य देशों के ऊपर भी अपना कब्जा जमा सकें। कोई ये भी कह रहा है कि ‘‘वो गरीब जनता

की देखभाल करेंगे’’ और तरह-तरह के लुभावने वायदे भी कर रहा है। लेकिन कोई ये नहीं कह रहा है कि वो आम जनता को दुनिया के सबसे बड़े प्रजातन्त्र में ताकतवर बनायेंगे या नहीं। अलबत्ता ये साफ़ है कि वे मुट्ठी भर अमीरों और उनकी कम्पनियों को ज़रूर ताकतवर बनाएंगे और शासकवर्ग इन्हें जनता के आक्रोश से बचाने का पूरा इंतज़ाम करेगा। देश में कम्पनियों का राज चलेगा और आम जनता अपने अधिकारों से वंचित होती रहेगी। आज़ादी के बाद पिछले 67 साल से देश में यही कहानी तो चल रही है, लेकिन अभी तक ये काम पर्दे के पीछे से चल रहा था, लेकिन अब ये खेल बिना लुकाछिपी के खुला चल रहा है। हालांकि इससे पहले भी हर सरकार ने इन कम्पनियों की तरफदारी ही की है व जनसंसाधनों और जनसुविधाओं को कम्पनियों के हित में इस्तेमाल किया है लेकिन इस बार यह सब खेल खुलकर खेला जा रहा है, इसलिये गरीब तबकों के लिये लुभावने वायदे तो किये जा रहे हैं, लेकिन कोई ठोस नीति सामने नहीं रखी जा रही है। जबकि कम्पनियों के लिए खुले आश्वासन दिये जा रहे हैं कि जो प्रोजेक्ट जनआंदोलनों या सुप्रीम कोर्ट आदि के आदेशों के कारण रुके हुए हैं, उन रुकावटों को भी दूर किया जाएगा। ये साफ है कि इस चुनाव के बाद जनांदोलनों पर दमन तेज़ होगा और कानून को ताक पर रख दिया जायेगा। इस लिये ज़रूरी है कि ऐसी ताकतों को रोकना होगा, कम्पनी राज को रोकना होगा। संवैधानिक और प्रजातांत्रिक राज को बचाने के लिए संघर्ष को तेज़ करना होगा। यह प्रकिया चुनाव के बाद भी जारी रहेगी, इस संघर्ष में जनसंगठनों की भूमिका अहम् होगी, क्योंकि कोई भी राजनैतिक पार्टी खुलकर जनसंघर्षों को समर्थन देने की बात नहीं कर रही है। कुछ विरोधी पार्टियां इस मस्ले को उठा तो रही हैं, लेकिन जनांदोलनों के प्रति अपनी भूमिका स्पष्ट नहीं कर पा रही हैं। धर्मनिपेक्षता की लड़ाई साम्प्रादायिकता को केन्द्र में रखकर अब तक हो रही है, अब इस लड़ाई को इससे आगे बढ़कर देखना होगा। क्योंकि साम्प्रदायिक शक्तियां पूॅजीवादी शक्तियों का आधार मज़बूत करने के लिए एक छद्म राष्ट्रवाद का नारा दे रही हैं, अर्थात इनका मानना ये है कि पूॅजीवादी शक्तियां मज़बूत होंगी तो राष्ट्रवाद भी मज़बूत होगा। हमारी संवैधानिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जो जनता को मज़बूत करने की बात थी उसको दबा कर पूूॅजीवादी शक्तियों को मज़बूत करने के लिये ऐसा मज़बूत राष्ट्र बनाने की बात कर रहे हैं, जो देश के अन्दर और देश के बाहर भी अपनी ताकत का इजहार करेंगे और दुनिया में सुपर पावर बनाने का ख़्वाब दिखा रहे हैं। जैसे अमेरिका या किसी ज़माने में ब्रिटिश सुपर पावर थे, जिन्होंने दुनिया के अन्य देशों के लोगों का शोषण करके अपने आप को ताकतवर बनाया।
हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की परम्परा जो कि साम्राज्य वाद विरोधी आंदोलन से निकली है और हमारा संविधान ऐसी अवधारणाओं के सख्त खिलाफ है। जानबूझ कर देश को महायुद्ध के सामने डालने की बात है। आर्थिक रूप से भी ऐसी अवधारणाऐं देश को खतरनाक स्थितियों में ले जायेंगी। अभी तक हमारी अर्थनीति आयात पर निर्भर है ना कि निर्यात पर, इसलिए-----तरह की सुपर पावर बनने की राजनैतिक इच्छा देश की आर्थिक स्थिति को एक गंभीर आर्थिक संकट में ले जायेगी और जिसका सारा बोझ देश के आम नागरिकों पर ज़्यादा पड़ेगा और राजनैतिक स्थिति समाज को गृहयुद्ध की तरफ ले जाएगी। इस खेल को और मज़बूती से चलाने के लिए प्रजातांत्रिक व्यवस्था में आम जनता का समर्थन भी चाहिए इसलिए चुनाव में वे हम गरीब जनता का समर्थन मांग रहे हैं। अर्थात उन्हें जनता का समर्थन लेकर जनता को ही लूटने का लाईसेंस चाहिए, इसलिए इस चुनाव में महत्वपूर्ण मुद्दा ये है कि देश के 120 करोड़ लोग अपने आप को लुटाने के लिए इन लूटने वालों को समर्थन देंगे या नहीं? क्या जनता इन्हीं के इशारों पर चलेगी या अपना कोई रास्ता खुद भी तय करेगी? अगर जनता अपना कोई रास्ता खुद तय करना चाहती है तो ऐसा करने के लिए जनता को अपने मुददों की भी पहचान करनी होगी।

इस चुनाव में लोगों पर एक दबाव बनाकर आतंकित किया जा रहा है, लेकिन आम जनता को इन परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए अपनी मांगों को सामने लाना होगा, क्योंकि जब चुनाव होता है तो लोगों की एक राजनैतिक ताकत भी बनती है और राजनैतिक दलों के साथ समझौते भी होते हैं, इसलिये इस वक्त ज़रूरी है कि आम जनता को मज़बूती के साथ अपनी मांगो को सामने लाना होगा। लेकिन हमारे प्रमुख राजनैतिक दल इन मुददों का सामना नहीं करना चाह रहे है और वे इनसे बच रहे हैं और उन्होंने पूरे चुनाव को व्यक्तिगत लड़ाई में तब्दील करके रख दिया है। वे अरबों-खरबों रू0 खर्च करके बस एक ही तरह का प्रचार चला रहे हैं, कि हमें समर्थन दीजिए, हम सबकुछ ठीक कर देंगे। वे लोगों को भविष्य के सुनहरे रंगीन ख़्वाब तो दिखा रहे हैं, लेकिन ये नहीं बता पा रहे कि वे ये सब कैसे करेंगे। वे झूठ पर झूठ बोल रहे हैं और अशोभनीय शब्दावली से एक-दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोपों को जड़ रहे हैं। लेकिन उनके एजेंडे से असली मुद्दे सिरे से गायब हैं, जिनसे करोड़ों लोगों की जि़न्दगी सीधे तौर पर मरने जीने के सवाल से जुड़ी हई है। इस चुनाव में आम जनता के सामने चुनौती ये है कि इन मुद्दों को पहचान कर, इन दलों को कैसे सीधी चुनौती दें, क्योंकि इन मुददों केा उठाने के लिए सामाजिक सांगठनिक शक्ति की जरूरत है जिसका मुख्य आधार दलित आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय, वनाश्रित समुदाय और अन्य वंचित तबके विशेषकर महिलाएं ही हांेगे। इसके लिए इन सभी वंचित तबकों का एक अपना मोर्चा होना चाहिए, इसी ज़रूरत को समझते हुए देश के विभिन्न स्वतंत्र ट्रेड यूनियनों, जनसंगठनों व सामाजिक संगठनों ने मिलकर इसकी शुरूआत संघर्ष 2014 से की है।

साथियो! बनावटी “मोदी लहर“ और प्रयासित “राहुल लहर“ को ध्याान में रखते हुये स्वतंत्र ट्रेड यूनियन एंव जनआंदोलनों ने यह तय किया है की कम्पनियों का पक्ष लेने वाली पार्टियों का पुरजोर खंडन करना ज़रुरी है, जिनकी समानांतर आर्थिक नीतियों के चलते ग्रामीण भारत में व्यापक भूखमरी, बेरोजगारी और जनता में गरीबी बढ़ी है। देश भर में पूॅजीवादी, सामंतवादी , फासीवादी और सांप्रदायिक ताकतों के चलते जातीय और संाप्रदायिक हिंसा तथा मजदूर वर्ग पर हमले लगातार बढ रहे हैं।

इन मुद्दों को लेकर विगत 10 वर्षों में देश के हर कोने से आम जनता अपने आप संगठित होकर अपने मुद्दे उठा भी रही है। दिनांक 23 व 24 मार्च 2014 देश की राजधानी दिल्ली में शहीद-ए-आज़म भगतसिंह, शहीद सुखदेव व शहीद राजगुरु के शहीद दिवस पर देश के विभिन्न राज्यों से आए जनआंदोलनकारी संगठनों व सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों की और से खुले मंच से उपरोक्त सभी मुद्दे सामने आए व जिनके आधार पर संघर्ष-2014 के बैनर तले बनारस व इसके आसपास के 10 लोकसभा क्षेत्रों में चुनाव के दौरान साम्रज्यवाद, कम्पनीवाद व साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान चलाना तय किया गया, जिसके तहत बनारस के आस-पास के 10 लोकसभा क्षेत्रों चंदौली, जौनपुर, मछली शहर, मिर्जापुर, पलामू, सासाराम, राॅबटर््सगंज, आजमगढ व लालगंज में कार्यक्रम करते हुए यह अभियान बनारस पर केन्द्रित किया जाएगा, ताकि फासीवादी एंव सांप्रदायिक ताकतों को रोका जा सके और देश की धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र को बरकरार रखा जा सके।

साथियों संघर्ष-2014 का यह कार्यक्रम महज इस चुनाव व महज बनारस तक ही सीमित नहीं है, इसे चुनाव के बाद भी व्यापक राष्ट्रीय स्तर पर आगे ले जाया जायेगा, जिससे इन साम्राज्यवादी, पॅूजीवादी व साम्प्रदायिक शक्तियों का अमूल-चूल रूप से नाश किया जा सके व एक सही प्रजातांत्रिक समाजवादी व्यवस्था को कायम किया जा सके। हम दिनांक 25 अप्रैल 2014 को बनारस पहुंच कर आपसी विचार-विमर्श के लिए एक बैठक करेंगे व तत्पश्चात 26 अप्रैल से तय किये गये बनारस के आस-पास के लोकसभा क्षेत्रों में 3 मई तक कार्यक्रम करेंगे, 4 मई को बनारस में एक बैठक करके वहां मित्र संगठनों से ताल-मेल बनाते हुए 10 मई 2014 तक बनारस में ही अभियान चलाया जायेगा। आप सभी से अपील है कि अपने देश को सभी लोगों के लिये भयमुक्त, सुरक्षित, गैर साम्राज्यवादी व समान अधिकार वाले देश के रूप में स्थापित करने के लिये चलाये जा रहे इस अभियान में बड़ी संख्या में जुड़कर अपनी भागीदारी निबाहें।
कभी वो दिन भी आयेगा, जब हम स्वराज देखेंगे
जब अपनी ही ज़मीं होगी, जब अपना आसमाॅ होगा
-श0 रामप्रसाद ‘‘बिस्मिल’’
क्रांतिकारी अभिवादन के साथः-
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन, न्यू ट्रेड यूनियन इंनिशिएटिव, राष्ट्रीय मछुआरा संघ ,नेशनल हाॅकर फेडरेशन, नेशनल हैण्डलूम वीवर्स फेडरेशन, आॅल इंडिया ट्राईबल यूथ मूवमेंट-गुजरात , दिल्ली समर्थक समूह, दिल्ली यंग आर्टिस्ट फोरम, दलित शक्ति संगठन-बिहार, श्रमिक अधिकार मंच-उडीसा, ज़मीन जंगल अधिकार उड़ीसा, संघर्ष वाहिनी-उड़ीसा, शिक्षा अधिकार मंच, आॅल इंडिया कबाड़ी मज़दूर महासंघ, आॅल इंडिया फोरम फाॅर राईट टू एजुकेशन, डोमेस्टिक वर्कर यूनियन-दिल्ली, आदिवासी वन-जन श्रमजीवी यूनियन-गुजरात ।

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