अगर मैं कोई फिल्म पहले दिन नहीं देखता तो खुद को उस पर समीक्षा लिखने का अधिकारी नहीं समझता हूं, किंतु पीकू इस मामले में अपवाद है। इस पर मैंने इसलिए लिखना चाहा क्योंकि पीकू में दीपिका पादुकोण और अमिताभ बच्चन के अच्छे अभिनय और पटकथा के बारे में विस्तार से बताती समीक्षाओं के अलावा मैंने कोई ऐसी समीक्षा नहीं पढ़ी जो दृश्यों के बीच की अंतर्कथा को इंगित करती हो। किसी शायर का शेर है
बाहर जो देखते हैं, वे समझेंगे किस तरह
कितने गमों की भीड़ है इस आदमी के साथ
‘पीकू’ केवल एक पुराने सनकी विधुर बुड्ढे रईस भास्कर
पीकू एक प्रेम कथा भी है। जिस तरह से उर्दू के प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राना कहते हैं कि क्या जरूरी है कि महबूब कोई युवती ही हो, उनकी महबूब उनकी माँ भी हो सकती है और उन पर भी शे’र कहे जा सकते हैं, उसी तरह फिल्म की नायिका का महबूब उसका विधुर पिता है जिसकी खुशी के लिए वह अपने जीवन की सारी कुर्बानियां कर रही है और आगे