Hastakshep.com-Uncategorized-

आप 41 सुरक्षाकर्मी शहीद कराकर नवाज़ की दावत खाएं तो कूटनीति ? और...
तेरी, और ‘मेरी सेना’ की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’!
पुष्परंजन
अमेरिका में सेना से कोई सवाल न पूछने के लिए ‘डोंट आस्क, डोंट टेल’ (डीएडीटी) कानून बना।
इस कानून की मियाद 20 सितंबर 2011 को समाप्त हो गई थी। लेकिन उससे चंद महीने पहले मई 2011 में ‘ज्यूडिशियल वाच’ नामक संस्था ने सूचना की स्वतंत्रता कानून के तहत कोलंबिया की जिला अदालत में अपील की कि ओसामा बिन लादेन को मार गिराने वाले ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की तस्वीरें उसे देखने को मिले।
बिन लादेन 2 मई 2011 को मारा गया था, और अदालत में यह अपील 9 मई को दायर की गई थी।
अमेरिकी प्रतिरक्षा मंत्रालय ने उन तस्वीरों को दिखाने से मना कर दिया।
मई 2013 में तीन जजों की पीठ ने फैसला सुनाया कि पोस्टमार्टम के 52 ऐसे इमेज, जो ‘टॉप सीक्रेट’ की श्रेणी में आते हैं, उन्हें नहीं दिखाया जा सकता। अगस्त 2013 में इस फैसले के रिव्यू के वास्ते सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई, जिस पर जनवरी 2014 में अमेरिका की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि हम इस पर सुनवाई नहीं कर सकते।
लगभग चार साल तक अमेरिका में गाहे-बगाहे बहस चलती रही कि ओसामा वध की तस्वीरें देश के नागरिक क्यों नहीं देख सकते।

सीनेट में चुप्पी होती, तो सड़क पर बहस होने लगती। पर ऐसा नहीं कि जो सरकार और सेना से असहमत थे, उन्हें देशद्रोही करार दिया जाए, या टीवी पर उनके कपड़े फाड़ दिये जाएं।
फोटो के अभिलाषी तर्क यह दे रहे थे कि हम अफवाह फैलाने वालों को क्यों मौका दें, जो कह रहे हैं कि आतंक का आका ओसामा अभी जिंदा है?
इस दरम्यान राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दो टूक कह दिया कि ‘एबटाबाद सर्जिकल स्ट्राइक’ की तस्वीरें हम सार्वजनिक नहीं करेंगे, क्योंकि वह हौलनाक है, और उससे विश्वव्यापी हिंसा

बढ़ने का खतरा है।
मगर, उससे पहले राष्ट्रपति ओबामा आंतरिक सुरक्षा, अदालत, विदेश मामले, आर्म्ड फोर्सेज कमेटी के सदस्यों, विपक्ष के चुनिंदा सांसदों, सीनेटरों को बिन लादेन को मार गिराने से जुड़ी 15 तस्वीरें दिखा चुके थे।
11 मई को विजुअल्स दिखाये जाने की घटना को याद करते हुए सीनेटर जिम इंहोफ ने कहा कि इनमें तीन तस्वीरें ऐसी थीं, जो बिन लादेन के जीवित रहने के पहले की थीं, जिससे कि वह पहचाना जा सके।
सीनेटर जिम इंहोफ ने जानकारी दी कि ओबामा के शव को समुद्र में कैसे दफन किया गया, उससे संबंधित तीन अन्य तस्वीरें उस अवसर पर मौजूद सभी सदस्यों ने देखी थीं।
राष्ट्रपति ओबामा ने ऐसा रास्ता चुना, जिससे राजनीति का गलियारा शांत था, और सेना के लोग भी सुरक्षित महसूस कर रहे थे।
बाद में बिन लादेन के आखिरी वक्त की एकाध तस्वीरें, वीडियो क्लिप वायरल हुईं।
इस काम में पेंटागन के कुछ अधिकारी शामिल थे। अंतत: लोग इससे शांत हो गये।
मगर, ऐसा कुछ यहां क्यों नहीं हो रहा है?
अलबत्ता, प्रधानमंत्री मोदी चाहते, तो ऐसा कर सकते थे।  लेकिन, हो इससे उलट रहा है।
प्रतिपक्ष भी ‘अल्ट्रा राष्ट्रवाद’ के आगे किंकर्तव्यविमूढ़ है। तभी सोनिया गांधी का बयान कुछ आया, और राहुल गांधी, संजय निरूपम, व सुरजेवाला का कुछ और।
टीवी पर सेना के अवकाशप्राप्त अफसरों ने मोर्चा संभाल रखा है, तो सोशल मीडिया पर गालियों की ऐसी बौछार हो रही है, जिसे देखकर निष्पक्ष बात करने वालों ने किनारा कर लिया है।
संभवत: पीएम मोदी, मोहन भागवत, और अमित शाह इस तरह के ‘वैचारिक गृह युद्ध’ देखकर मौज ले रहे हों। मगर, सिविलियन तथा सेना के अवकाशप्राप्त अफसरों को आमने-सामने करना, और असहमति के स्वर को ताकत के बल पर दबा देना आपातकाल से भी अधिक खतरनाक है।
सरकार यह कह रही है कि हम ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की तस्वीरें सार्वजनिक नहीं करेंगे। सही है। फिर सरकार इस पर अडिग रहे, और आगे ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे तस्वीरें दिखाने ‘व्हाइट हाउस’ चली जाएं।
पठानकोट में पाकिस्तानियों को ‘टेरर टुरिजम’ कराने की क्या आवश्यकता थी?
रणनीतिक गोपनीयता की इतनी ही चिंता थी, तो पठानकोट में पाकिस्तानियों को ‘टेरर टुरिजम’ कराने की क्या आवश्यकता थी?
2015 में कश्मीर फ्रंट पर हमारे 41 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए थे, फिर भी आप ‘सरप्राइज़ विजिट’ पर लाहौर गये, और देश के दुश्मनों से बगलगीर हुए।

आप करें तो ‘कूटनीति’, कोई पाक कलाकारों के समर्थन में कुछ कहे तो उसकी राष्ट्रभक्ति पर सवाल खड़ा किया जाता है।
राष्ट्रभक्ति दिखाने का इतना ही जज्बा है, तो तय कर लीजिए कि नवाज़ शरीफ के यहां शादी क्या, मैयत पर भी नहीं जाएंगे। संकल्प कीजिए कि जब तक एनडीए सरकार है, भारत-पाकिस्तान के बीच कोई क्रिकेट मैच नहीं होगा, पाकिस्तानी शायर, सूफी संगीतकार, नगमानिगार, भारत नहीं आएंगे।
सुनिश्चित कीजिए कि आतंक का निर्यात करने वाले पाकिस्तान के साथ व्यापार नहीं होगा।
पाकिस्तानी कैसेट और किताबों को स्वाहा कर दीजिए, जो बंटवारे के बाद भारत लाये गये।
जो कोई पाकिस्तानी शायरी, वहां का संगीत सुनता हुआ पाया जाए, उसे ‘राष्ट्रद्रोह’ के केस में जेल में डाल दीजिए।
संकल्प यह भी कीजिए कि आपके मंत्री, नेता, नुमाइंदे नई दिल्ली स्थित पाक उच्चायोग में चपली कबाब खाने नहीं जाएंगे।
राष्ट्रभक्त पत्रकारों का ध्यान इस पर नहीं गया है कि पाक उच्चायोग में राजनयिकों के लिए बकरे के मांस की सप्लाई होती है, या ‘बड़े’ का। यदि वे बीफ खाते हैं, तो बंद कराइये उनका हुक्का-पानी!
26/11 के बाद बॉलीवुड में नफरत का वह माहौल नहीं बना था, जो इस समय है।
मंगलवार को चैनलों पर ओम पुरी बयान दर बयान देते रहे, ‘माफी नहीं, मुझे सजा दो! क्योंकि मैंने सलमान खान के बयान का समर्थन किया है, और यह भी कहा था कि सेना में लोग अपनी मर्ज़ी से आते हैं।’

इस देश में एक महान कलाकार की इतनी दुर्गति होगी, यही देखना रह गया था।
सी ग्रेड फिल्मों में काम करने और गाहे-बगाहे कश्मीरी पंडितों के दुख को भुनाने वाला एक दूसरा कलाकार जब यह कहने लगे कि ‘सर्जिकल स्ट्राइक की तस्वीर मांगना अपनी मां से असल बाप के बारे में सुबूत मांगने के बराबर है’, वास्तव में मानसिक गिरावट की पराकाष्ठा है।
हर रोज अवार्ड वापसी वाले सईद मिर्जा, महेश भट्ट, मीता वशिष्ट जैसी शख्सियतें ढूंढी जा रही हैं, जिन्हें टीवी पर बेइज्जत करके दहशत का माहौल पैदा किया जाए।
क्या न्यूज ब्राडकॉस्टर एसोसिएशन को इसकी परवाह है कि लाइव शो में उन्माद पैदा करने, असहमति के स्वर कुचलने, और आत्म वंचना करने वाले अहंकारी एंकरों को कैसे लगाम लगाया जाए?
क्या ब्राडकास्ट मीडिया निष्पक्ष है?
ब्रॉडकास्ट मीडिया में एक से एक समझदार संपादक हैं, लेकिन इस समय सरकार की चाकरी का जबरदस्त मैराथन चल रहा है, चाहे इसके लिए सामाजिक ताने-बाने की चिंदी-चिंदी हो जाए।

टीवी उद्योग भयानक भाषाई चिकुनगुनिया से ग्रस्त है।
जिसे देखिये वह ‘नेशन वांट्स टू नो’, ‘पूरा देश देख रहा है’, का गर्जन कर रहा है। मगर पिद्दी, और पिद्दी के शोरबे को पता नहीं है कि एक अरब, पौने चौंतीस करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ 15 करोड़, 35 लाख लोग टीवी देखते हैं। यह आंकड़ा ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च कौंसिल (बीएआरसी) का है।
क्या ‘नेशन’ को यह जानकारी देना जरूरी नहीं कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय पांच छोटे-बड़े सर्जिकल स्ट्राइक सीमा पार पाकिस्तान जाकर भारतीय सैनिक कर चुके हैं।

भूटान में वाजपेयी सरकार के समय क्या भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक नहीं किया था?
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जून 2008, अगस्त 2011, जनवरी 2013, अगस्त 2013 में भारतीय सैनिकों ने सीमा पार लक्ष्यभेदी कार्रवाई की थी। इनमें से केवल मार्च 1998 की सर्जिकल स्ट्राइक को पाकिस्तान ने आधिकारिक रूप से माना था, और उसके विरूद्ध संयुक्त राष्ट्र में शिकायत की थी।
26-27 मार्च 1998 को पीओके के छंब सेक्टर के बंडाला गांव में भारतीय सैनिकों द्वारा 22 लोगों को मारे जाने की घटना को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार हनन से जोड़ने का प्रयास किया था। उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी को गद्दी संभाले सप्ताह दिन ही हुए थे, मगर उन्होंने इस सर्जिकल स्ट्राइक पर छप्पन इंच का सीना नहीं फुलाया था।
अब सेना के रिटायर जनरल बक्शी कहते हैं, ‘इस वाले हमले में यूएवी, सेटेलाइट, ड्रोन, और पैरा कमांडो का इस्तेमाल हुआ था, इसलिए यह संपूर्ण रूप से टेक्टिकल (सामरिक) स्ट्राइक था।
बकौल जनरल बक्शी, ‘पहले जो कुछ हुआ, वह मामूली ‘सब टेक्टिकल ऑपरेशन’ था।’ इसे कहते हैं, शब्दों से खेलना!

इस समय सेना की कुर्बानी के नाम पर भय का भयानक वातावरण पैदा किया गया है।
इस देश में हर साल सैकड़ों सिविलियन आतंक के शिकार होते हैं। क्या वे कीड़े-मकोड़े हैं? क्या इस देश की चौकसी में पुलिस, आम नागरिक का कोई योगदान नहीं है?
खतरनाक यह है कि सर्जिकल स्ट्राइक की राजनीति में सेना के कुछ सेवानिवृत अफसरों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल में इससे संबंधित पोस्टर, आगरा रैली में प्रतिरक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर जिस तरह सम्मान स्वीकार कर रहे थे, उससे ऐसा लगता है, मानों वे स्वयं सर्जिकल स्ट्राइक में भाग लेकर लौटे हों।
अरे भाई! सेना की इतनी ही फिक्र है, तो उस सर्जिकल स्ट्राइक में भाग लेने वाले एक-एक सैनिक को बुलाकर सम्मान क्यों नहीं देते? कभी देश के लिए सिर कटाने वाले सैनिक हेमराज के गांव जाकर देख आइये कि किये गये वायदे कितने पूरे हुए हैं।

राजनीति ने ‘तेरी सेना’ और ‘मेरी सेना’ का माहौल बना दिया है।
शरद पवार बोलते हैं, ‘मैंने प्रतिरक्षा मंत्री रहते चार बार सर्जिकल स्ट्राइक कराया, पर ढोल एक बार भी नहीं पीटा।’
कृपया, सेना को राजनीति से दूर रखिये। और जो अवकाश ग्रहण कर चुके सेना के अफसर हैं, उन्हें ढाल की तरह इतना इस्तेमाल मत कीजिए कि वे आपकी विदेश नीति तय करने लगें। इसका परिणाम आप अपने पड़ोस म्यांमार में देख चुके हैं। दुआ कीजिए, कि पाकिस्तानी सेना की सत्ता में वापसी न हो। यदि ऐसा हुआ तो यह लोकतंत्र के मुंह पर करारा तमाचा साबित होगा!
साभार - देशबन्धु

Loading...