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लखनऊ में बनास जन के विशेषांक का लोकार्पण
 जनतंत्र को बचाने के लिए एकजुट होकर आंदोलनकारी स्वरूप अपनाना पड़ेगा। कॉरपोरेट से स्वयं को बचाते हुए अभिव्यक्ति का भरपूर इस्तेमाल करने और आक्रामकता की ज़रूरत है।
 भावनाओं को प्रकट करने के लिए भाषा चाहिए। सटीक भाषा का आविष्कार करना भी बहुत जरूरी है। अखिलेश का लेखन इसकी अप्रतिम मिसाल है। कहानियों के बाद निर्वासन जैसा उपन्यास लिखकर वे इसे प्रमाणित कर चुके हैं। बनास जन ने सही समय पर एक महत्त्वपूर्ण लेखक को रेखांकित किया है। वरिष्ठ हिन्दी उपन्यासकार रवींद्र वर्मा ने इप्टा लखनऊ द्वारा आयोजित साहित्य-संस्कृति की पत्रिका बनास जन के विशेषांक ';आख्यान में अखिलेश'; के लोकार्पण समारोह में कहा कि इस अंक ने एक बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन किया है। लोकार्पण समारोह में विख्यात कवि एवं समाज विज्ञानी बद्रीनारायण ने अखिलेश को भूमंडलीकरण के संकटपूर्ण दौर का लेखक बताते हुए कहा कि अपनी पीढ़ी के साथ उन्होंने आगे की कई पीढ़ियों को कथा के स्रोतों की जानकारी दी। बनास जन का यह विशेषांक उस समय की री विजिट है। प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि अखिुलेश अपनी पत्रिका के द्वारा सबको प्रकाश में लाते रहे हैं अब उन पर समग्रता के साथ काम हुआ है। विशेषांक के लेख साफतौर पर बताते हैं कि अंक की सामग्री कितनी गंभीर और महत्त्वपूर्ण है। प्रो रूपरेखा वर्मा ने कहा कि अखिलेश के लेखों में सामाजिक परिदृश्यपर बेहतरीन टिप्पणियाँ होती हैं जो हमारे समय और समाज को सही सही देखने में बड़ी मददगार हैं। इस विशेषांक के संपादक और युवा कथाकार राजीव कुमार ने अखिलेश को चुनने का कारण बताया - आज के भूमंडलीकरण के दौर में अखिलेश की कहानियां जनमानस को छूती हैं। संप्रेषण की जटिलता की चुनौतियों को स्वीकार करती हैं। उन्हें सहज बनाती हैं। इस सत्र में कथाकार अखिलेश ने अंक में प्रकाशित एक आत्म कथ्य ';भूगोल की कला'; के

कुछ अंशों का पाठ किया। उन्होंने कहा कि लम्बे समय तक लिखते रहने के बाद अगर मूल्यांकन होता है तो खुशी मिलती है कि उनके लेखन को समझा जा रहा है। संयोजन इप्टा के महासचिव राकेश ने किया।
आयोजन के दूसरे सत्र में ';वर्तमान चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में साहित्यिक पत्रकारिता'; विषय पर चर्चा हुई। बीज वक्तव्य वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव ने दिया। उन्होंने अपने विस्तृत चिन्तापरक व्याख्यान में कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता की चुनौतियां उन्नीसवीं शताब्दी में भी थी और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भी। आज इक्कीसवीं सदी में यह घोषित चुनौती है। राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र में स्थापित किया जा रहा है। सौ साल पीछे जाने पर पाते हैं कि इस धारणा के विरुद्ध आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ';सरस्वती'; में ';देश की बात'; पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए लिखा था लगान बंद हो जाए तो सारा तंत्र फेल हो जाये। उस समय रूस में क्रांति नहीं हुए थी। आज से सौ साल पहले जून 1915 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना से मुठभेड़ की थी। उन्होंने कहा था ऐसी कल्पना करने वाले राष्ट्र का अर्थ ही नहीं समझते। 1922 में माधवी पत्रिका में ';ईश्वर का बहिष्कार'; विषय पर लेख छपे। बहुत विरोध हुआ। लेकिन पत्रिका चलती रही। 1938 में यशपाल जी की ';विप्लव'; पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं को पढ़ने से ज्ञात होता है कि आज़ादी के आंदोलन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की क्या भूमिकाएं थीं। प्रेमचंद ने ';हंस'; में भीमराव अंबेडकर की तस्वीर मुखपृष्ठ पर छाप कर उनकी भूमिका को स्वीकार किया था। उस दौर में समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा से प्रेरणा लेकर सोच निर्धारित की जाती थी। आज विचारहीनता है। बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने से सामाजिक समरसता के ढांचे को धक्का लगा और भूमंडलीकरण ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पीछे धकेल दिया। धनिक तंत्र की स्थापना हो गई। सामाजिक समरसता और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर लेखक बंटा हुआ है। लूट मची है। अपराधी एक एक करके छूटे जा रहे हैं। बुद्धिजीवी बंद किये जा रहे हैं या हाशिये पर धकेले जा रहे हैं। सोच बनाने वाली सभी स्वायत्तशासी संस्थाओं के शीर्ष पर संकीर्ण सोच के लोग बैठाये जा रहे हैं। लेखक कहने के लिए मजबूर हो गया है कि उसके अंदर का लेखक मर गया है। इमरजेंसी के दौरान पहल जैसी लघु पत्रिका ने आवाज़ उठाई थी। आज प्रगतिशील लेखकों का अधिग्रहण किया जा रहा है। उनका मुखपत्र सामाजिक समरसता की बात करने वाले डॉ अंबेडकर को हिंदू विचारधारा के समर्थक के रूप में प्रस्तुत करता और पेरियार को हिंदू विरोधी। ऐसे में लघु पत्रिकाओं से साहित्यिक पत्रकारिता की ज़रूरत है। अपना इतिहास को खंगालें। जनतंत्र को बचाने के लिए एकजुट होकर आंदोलनकारी स्वरुप अपनाना पड़ेगा। कॉरपोरेट से स्वयं को बचाते हुए अभिव्यक्ति का भरपूर इस्तेमाल करने और आक्रामकता की ज़रूरत है।
कथाक्रम के संपादक और कथाकार शैलेंद्र सागर इतिहास में झांकने पर पाते हैं कि साहित्यिक पत्रिकायें पढ़ी जाती थीं। कुछ साल पहले तक ';धर्मयुग'; और ';साप्ताहिक हिंदुस्तान'; भले ही पूर्णतया साहित्यिक पत्रिकाएं नहीं थीं परंतु साहित्य को पढ़ने के लिए प्रेरित करती थीं। सिर्फ़ साहित्यकार ही नहीं, समाज का हर बुद्धिजीवी चिंतक था। हर दौर का शासक अपने काडर के लोगों को प्रमोट करता है। मगर आज दिक्कत यह है कि काडर के निकृष्ट लोगों को आगे बढ़ाया जा रहा है और अच्छे लोगों को पीछे धकेला जा रहा है। आज की, कल की और उससे भी आने कल की पीढ़ी किस प्रकार का साहित्य और हिंदी पढ़ रही है यह चिंता का विषय है। चिंतन करना है कि साहित्य के प्रति कैसे लोगों को आकर्षित करना है। साहित्य पत्रिकाएं आजकल जिस प्रकार के मुद्दों और विमर्श को उठा रही हैं उसमें किसान आंदोलन नहीं है, आदिवासी जीवन नहीं है। आत्महत्या के कारण नहीं बताये जा रहे हैं। नई पत्रिकाये आ रही हैं, यह शुभ संकेत है। मगर निगेटिव रचनायें छप रहीं हैं। इसका असर यह है कि गुणवत्ता प्रभावित हुई है। लेखक एक्टिविस्ट की भूमिका में नहीं है।

पत्रकारिता का उद्देश्य यह भी है कि अपने वर्तमान को इतिहास से परिचित करायें
'लमही'; के संपादक विजय राय ने बताया कि आज़ादी पूर्व की तत्कालीन पत्रकारिता पर कहा गया था कि कुछ समय बाद यहां मशीन होगी। व्यक्ति भी वैसा ही होगा। खिंची हुई लकीर पर चलना रह जाएगा। आज की पत्रकारिता भिन्न नहीं है। साहित्य हड़बड़ी में लिखा जा रहा है। ई-बुक्स का दौर है। नई तकनीक है। पुराने सामाजिक मूल्य ध्वस्त हो रहे हैं। नए परिवेश स्थापित हो रहे हैं। पत्रकारिता मनोरंजन हो गयी है। मीडिया के नए संसाधन, नयी तकनीक, चैनल और यांत्रिक विकास है। दो राय नहीं कि पुरानी रूढ़ियां को इसने तोड़ा है। मगर भाषा पर बुरा असर डाला है। पत्रकारिता का उद्देश्य यह भी है कि अपने वर्तमान को इतिहास से परिचित करायें। मगर उपेक्षा की जा रही है। आज पुस्तक मेले साहित्य को प्रचारित करने की महती भूमिका निभा रहे हैं। सोशल मीडिया की विश्वसनीयता सीमित है। वो लुग्दी साहित्य को फोकस करते हैं। और जनसामान्य तक नहीं पहुंच पाया है। मीडिया चैनल महज 500 शब्दों के शब्दकोष पर चल रहे हैं। लघु पत्रिकाओं के संपादक मिल-जुल कर प्रतिरोध करें।
दिल्ली से आये अंग्रेज़ी शिक्षक डॉ आशुतोष मोहन का विचार था कि पत्रिका चाहे छोटी हो या बड़ी, अगर उसका उसका लक्ष्य साफ़ हो, फ़ोकस हो तो वार खाली नहीं जा सकता। अंग्रेजी में तो इसका सर्वथा अभाव है। उसका ज्ञान चेतन भगत तक सीमित है। इस पर उसे गर्व भी है। इसका मतलब है कि कहीं कुछ कमी है। अच्छा और जागरूक साहित्य क्या होता है, यह बताने का माध्यम आज नहीं है। ज़रूरत अच्छी और इंफार्मेटिव पत्रिकाओं की है।
';बनास जन'; के संपादक पल्लव ने कहा कि पत्रकारिता में वह शक्ति है जो पाठक का दिमाग ही बदलने की क्षमता रखती है। उन्होंने बताया कि लखनऊ में एक चौराहे पर महाराणा प्रताप की मूर्ति देख चित्तौड़गढ़ निवासी होने पर उन्हें गर्व हुआ। लेकिन यह देखकर दुःख होता है कि उन्हें संकीर्ण धार्मिक प्रतीक के रूप में दर्शाया जाता है जबकि वे महान स्वतंत्रता प्रेमी थे। शायद लोगों को यह नहीं मालूम कि हल्दी घाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप का सेनापति एक मुस्लिम था और अकबर का सेनापति हिंदू था। यह न पढ़ने का परिणाम है। उन्होंने याद दिलाया कि एक बार अपने एक भाषण में नेहरू ने महाराणा प्रताप को बहुत ऊंचा स्थान देते हुए कहा था कि बाबर आक्रमणकारी था, लेकिन अकबर यही पैदा हुआ और यहीं रह गया। बाज़ारवादी शक्तियों ने हमारी रुचियों को विकृत कर दिया है। वही तय कर रही हैं कि हमें क्या खाना और पहनना है, और क्या पढ़ना है। साहित्य आदमी को अकलमंद बनाता है। वस्तुत: यह उदारीकरण का नहीं अनुदारीकरण का दौर है। उन्होंने कहा कि नए लोगों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ना चाहिए। साहित्य में कैरियरवाद से बचें। लघु पत्रिकाओं को खरीदें और पढ़ें।

 साहित्य मुक्ति का माध्यम है।
वरिष्ठ कथाकार और 'निष्कर्ष' के संपादक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव की नज़र में आर्थिक सुधारीकरण ने पूरे समाज के हर अंग को बुरी तरह से जकड़ लिया है। राजनीतिक भ्रष्टाचार बढ़ा है। कोई बचा सकता है तो साहित्य। साहित्य चेतना पैदा करता है। साहित्य के माध्यम से चेतना में स्थायी परिवर्तन संभव है। प्रेमचंद ने रचनाओं के माध्यम से लंबी लड़ाई लड़ी। उन्होंने कहा कि राजनीति नहीं, साहित्य मशाल है। साहित्य मुक्ति का माध्यम है। आज मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। साहित्य इस यथार्थ को पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत करे। आज साहित्य पाठक को प्रभावित नहीं कर पा रहा है। पाठक की कल्पनाशीलता को पहचानना ज़रूरी है, तभी उसकी चेतना को प्रभावित किया जा सकता है। भूमंडलीकरण स्थानिकता, संवेदना, सहानुभूति को ख़त्म करना चाहती है। परिवार को ख़त्म करना चाहती है। हर लेखक समाज को बदलने के लिए कमिटेड होता है। अंतर्विरोधों की तलाश करें। प्रतीकों के माध्यम से चेतना को प्रभावित करें। इस संबंध में मोहन राकेश की कहानियां पढ़ी जानी चाहियें। मनुष्य और समाज को अलग करना संभव नहीं है। अपने दृष्टिकोण को ईमानदारी से प्रस्तुत करें अन्यथा अप्रासंगिक हो जायेंगे। प्रेमचंद की कहानियां समाज को दिशा देती हैं। इस सत्र का संचालन युवा कथाकार सूर्य बहादुर थापा ने किया।

वीर विनोद छाबड़ा, लखनऊ द्वारा तैयार रिपोर्ट के सौजन्य से

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