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'3 दिसंबर: विश्व विकलांग दिवस' पर विशेष

यह अजब इत्तेफ़ाक़ है कि छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव नरसिंहपुर की रहने वाली सुकिया का जन्म जिस अस्पताल में हुआ उसके प्रांगण में उस दिन विश्व विकलांगता दिवस कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा था। जिसमें विकलांगता से जुड़ी बातें और इस संबंध में सरकार की योजनाएं बताईं जा रही थीं।

जन्म से ही शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम सुकिया अब 6 साल की हो चुकी है। लेकिन आजतक उसने स्कूल का मुंह नहीं देखा है। क्योंकि गांव के एकमात्र प्राइमरी स्कूल में उसके जैसे बच्चों के लिए कोई सुविधा नहीं है। घर में भी उसे अपनों के बीच उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। रही बात सरकारी योजनाओं की तो जब गांव के स्वस्थ और सक्षम लोगों को अपने हितों से जुड़ी योजनाओं का पता नहीं है तो सुकिया की सुध कौन ले?

सुकिया अकेली ऐसी बच्ची नहीं है जो विकलांगता के साथ साथ उपेक्षा का दंश झेल रही है।

सिर्फ भारत में ही लाखों ऐसे बच्चे हैं जो शारीरिक अथवा मानसिक रूप से अक्षम हैं। ऐसे बच्चों को विशेष ट्रीटमेंट की आवश्यकता होती है। चिकित्सकीय दृष्टिकोण से विकलांगों के लिए विशेष स्कूल की व्यवस्था की जाती है।

दरअसल सरकार अशक्त बच्चों की शिक्षा और उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में अब भी करीब चार लाख असामान्य बच्चे ऐसे हैं जो स्कूली शिक्षा से वंचित हैं।

गौरतलब है कि 2009-10 में देश में विकलांग, आदिवासी और दलित बच्चों को समावेशी शिक्षा देने की योजना लागू की गई। इसमें असामान्य बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किये गए हैं। लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका क्रियान्वयन

बहुत कम नज़र आता है। विशेष रूप से सुदूर और ग्रामीण क्षेत्रों के निशक्त बच्चे ऐसी योजनाओं से वंचित ही रह जाते हैं।

हमारे देश में विकलांगों के हितों के लिए बहुत से कानून और अधिनियम बनाये गए हैं जैसे निःशक्त व्यक्ति अधिनियम, 1995 के अंतर्गत विकलांग व्यक्तियों के अधिकार, राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999 के अंतर्गत विकलांगता से ग्रस्त व्यक्तियों के अधिकार, भारतीय पुनर्वास अधिनियम, 1992 के अंतर्गत निःशक्त व्यक्तियों के अधिकार और मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों को मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 महत्वपूर्ण है।

 निःसंदेह शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग बच्चे का जन्म किसी भी अभिभावक के लिए अत्यधिक पीड़ादायक होता है।

मध्यमवर्गीय और गरीब घरों में जन्म लेने वाले ऐसे बच्चों को परिवारजन अभिशाप से कम नहीं समझते हैं। उनकी सबसे ज़्यादा उपेक्षा होती है। कई बार ऐसा देखा गया है कि स्वयं माता-पिता ऐसे बच्चों की परवरिश से मुंह फेर लेते हैं और उन्हें उनके हाल पर छोड़ देते हैं, जो निहायत ही शर्म की बात है। कई बार ऐसे बच्चों का घर और बाहर शारीरिक रूप से शोषण होने तक के मामले सामने आये हैं। लेकिन यह अपनी बात किसी से शेयर नहीं कर पाते हैं। हालांकि ऐसे बच्चे विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हैं। जिसे केवल पहचानने और निखारने की ज़रूरत है।

दुनिया में ऐसे कई खिलाड़ी, वैज्ञानिक और सामाजिक क्षेत्र से जुड़े लोग हैं जो जन्मजात विकलांग हैं लेकिन उन्होंने इस कमी को अपनी प्रतिभा पर कभी हावी नहीं होने दिया और विश्व के लिए सदैव प्रेरणास्रोत बन गए।

समाज का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ विकलांगों ने अपनी प्रतिभा का लोहा नहीं मनवाया है। जब-जब इन्हें अवसर प्राप्त हुआ है इन्होंने दो क़दम आगे बढ़कर ही परिणाम दिया है। इस बात को साबित किया है कि वह सक्षम हैं केवल हमें उनके प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है। प्रकृति यदि उनसे एक क्षमता छीन लेती है तो बदले में इतनी प्रदान कर देती है कि सामान्य रूप से एक सक्षम को भी मात दे सके।

दरअसल विकलांगता एक ऐसा शब्द है जिसका नाम आते ही हम व्यक्ति को अलग दृष्टिकोण से देखने लगते हैं। उनके लिए अलग भावनाएं जाग्रित होने लगती हैं।

शर्म की बात यह है कि विकलांग को उपहास का पात्र बनाया जाता है। कई मौक़ों पर उनकी अक्षमता को हंसी में उड़ाकर उनके मनोबल पर प्रहार किया जाता है। ऐसा करने वाले वास्तव में विकलांग होते हैं जो विकलांगों की प्रतिभा के सामने खुद को पिछड़ा हुआ पाते हैं। ज़रूरत है अपना नजरिया बदलने की।

आज भी हमारे आसपास ऐसे कई विकलांग मिल जायेंगे जिन्होंने अपनी क्षमता से अक्षमता को मात दिया है। जो अपनी विकलांगता को पीछे छोड़कर सफलता की ऊंचाइयों पर पहुँच चुके हैं। जिन्होंने साबित किया है कि वह दया की भीख नहीं समान अधिकार के हक़दार हैं। इसमें कोई शक़ नहीं है कि विकलांगता एक जटिल समस्या है। लेकिन पहला फ़र्ज़ हमारा बनता है कि हम मज़ाक उड़ाकर उनके जीवन को अभिशाप न बनने दें और न ही हमदर्दी जताकर उन्हें एहसास के बोझ तले दबने को मजबूर करें। इस विकलांगता दिवस पर प्रण कीजिये उन्हें हौसला देने का, हमदर्दी नहीं।

शम्स तमन्ना