स्मृति: वीरेन डंगवाल
एक कवि के सही बने रहने की कवायद
सुधीर विद्यार्थी
अपनी लंबी तकलीफ भरी कैंसर जैसी बीमारी को झेलते हुए वीरेन डंगवाल जब जिंदगी की उम्मीद के साथ ’ग्रीष्म की तेजस्विता और गुठली जैसा छिपा शरद का ऊष्म ताप’ अपनी कमजोर आंखों में छिपाये दिल्ली से अपने शहर बरेली लौटे तब हम काफी आष्वस्त थे। तुर्कू (फिनलैंड) के साथी सईद शेख ने मुझसे दो बार उनकी वापसी की तस्दीक की थी जिसके लिए हम लंबे समय से प्रतीक्षारत भी थे। लेकिन बरेली आने के दो दिन बाद ही जब वे फिर से आईसीयू में जा पहुंचे तब चिंता की कीलों ने हमें बुरी तरह घेर लिया। इसके बाद जो कुछ हुआ वह इतना भयावह था जिसके लिए आषंकित होते हुए भी हम किसी तरह तैयार नहीं थे। खास तौर से बीते दो सालों में वीरेन मौत के जबड़े से बार-बार अपने को बाहर निकाल लाए थे, सो हम आष्वस्त थे कि इस बार भी वे यह ’मोर्चा’ जीत ही लेंगे। लेकिन 28 सितम्बर को मुंह अंधेरे जब मैं पश्चिम बंगाल के बर्नपुर से ’अग्निवीणा’ के कवि क़ाज़ी नज़रूल इस्लाम के गांव चुरूलिया जाने की तैयारी कर रहा था, मुझे वीरेन के न रहने की खबर मिली। यह सूचना मित्रों को पहुंचाना सचमुच बहुत भारी था मेरे लिए। फिर भी उदास मन से मुझे यह कहना पड़ा कि इसी दुनिया का राग गाने वाला हिंदी का यह चहेता कवि हम सभी को अलविदा कह कर आज किसी और दुनिया में चला गया है। वीरेन कहते भी थे ’एक दिन चलते-चलते यों ही ढुलक जायेगी गरदन/सबसे ज्यादा दुख सिर्फ चश्मे को होगा।’
अब कहां रखा होगा वीरेन का वह चश्मा जिसे पहन कर उन्होंने अपने शुरूआती कवि जीवन में ही कहा था, ’तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह/तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगली हो/किसका उठा हुआ हाथ/किसके
केदारनाथ सिंह की उपस्थिति में उन्होंने जिस जीवंतता के साथ अपनी कविताओं का पाठ किया, उसने सभी को चौंका दिया था। उसके इस साहस को देखकर हम सभी खुश थे। साथी अजय सिंह के काव्य संग्रह ’राष्ट्रपति भवन में सूअर’ के विमोचन में भी वे बहुत उत्साह से सम्मिलित हुए। उनके तीन-तीन ऑपरशन के दिनों में ही मैंने ’बरेली: एक कोलाज’ पुस्तक रची जिसे मैं उनकी बस्ती का शहरनामा कह सकता हूं। अफसोस है कि इसे मैं खुद उनके हाथों में सौंप नहीं पाया और अपनी अनंत यात्रा पर चले जाना जब उन्होंने तय किया तब मैं भौगोलिक रूप से मैं उनसे बहुत दूर था। याद आते हैं बरेली कालेज में उनके पढ़ाने के दिन। तब वे ’अमर उजाला’ के स्थानीय संस्करण का संपादन भी देख रहे थे। खालिस्तानियों के हाथों पाश की हत्या हो चुकी थी। हमने शाहजहांपुर में ’भगतसिंह और पाश’ पोस्टर प्रदर्शनी लगाने के साथ ही दो दिवसीय आयोजन में वीरेन का कविता पाठ भी रखा जिसमें उन्होंने भगतसिंह के साथी क्रांतिकारी जयदेव कपूर की उपस्थिति में ’राम सिंह’ सहित अपनी अनेक रचनाओं का पाठ किया।
बाद को उस प्रदर्शनी को उन्होंने बरेली कालेज में भी लगवाया। बरेली में रहकर उन्होंने ’अमर उजाला’ की पत्रकारिता को एक विशिष्ट तेवर और धार दी। उन दिनों साहित्य के उसके साप्ताहिक परिशिष्टों का स्वरूप वीरेन ही तय करते रहे। लेकिन उनके संपादक रहते जब एक बार उस अखबार ने साम्प्रदायिकता के पक्ष में खड़े होकर अपने प्रचार-प्रसार को बढ़ाने की नीति अपनाई तब उस जिम्मेदारी को छिटकने में वे जरा भी नहीं हिचके। वीरेन ने उन दिनों कहा भी था, ’यही तो एक पक्ष है, इसे भी बिसरा दूंगा तो कहां जिंदा रहूंगा।’
वीरेन कितने शहरों में कितनी बार रहे। 1948 में टिहरी गढ़वाल में जन्मे, इलाहाबाद में पढ़े और एमफिल् करने बाद वे बरेली कालेज में पढ़ाने लगे। एक समय सहारनपुर और कानपुर भी उनके रहने की जगहें बनीं। उनके पास अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता का सघन अनुभव था। पीलीभीत के न्यूरिया और बदायूं में हिंसक साम्प्रदायिक दंगों के दौरान उन्होंने खुद वहां जाकर रिपोर्टिंग की थी। इसी तरह मेरठ में टिकैत के किसान आंदोलन में भी वे ललक के साथ शामिल हुए थे। ’जन संस्कृति मंच’ से उनका सक्रिय जुड़ाव अंतिम दिनों तक बना रहा। बरेली शहर को अपनी उपस्थिति से उन्होंने साहित्यिक भूगोल पर जो जगह दी उस पर हम सदैव गर्व करते रहे। मैंने अपनी एक कविता में कहा भी था, ’चिकनी और चौड़ी सड़कों से नहीं बनते बड़े शहर/बहुमंजिली इमारतों और रेस्त्राओं से भी नहीं/चमचमाती गाड़ियां, पार्क और हवाई अड्डे भी किसी शहर को बड़ा नहीं बनाते/ शहर को बड़ा बनाती है वीरेन डंगवाल की कविता।’
वीरेन की अनुपस्थिति से हिंदी का काव्य जगत बहुत सूना हुआ है। जनवादी कविता धारा को उन्होंने अपने सृजन कर्म से निरन्तर सषक्त और सम्पन्न किया। उनके पास भीतर तक बेधने वाली भाषा थी। ’रघुवीर सहाय सम्मान, ’श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ’षमषेर सम्मान’ और उसके बाद ’साहित्य अकादमी पुरस्कार’ पाने वाले कवि वीरेन डंगवाल ने जैसे कविता में ही जीना-मरना सीख लिया था। वही उनका कुरूक्षेत्र था। उनकी कविताओं के अंग्रेजी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए। उन्होंने स्वयं भी पाब्लो नेरूदा, बर्तोल्त ब्रेख्त, मीदोस्लाव होलुव, तदेऊष रूजोविच और नाजि़म हिकमत की कविताओं के अच्छे अनुवाद किए थे। जानना होगा कि वे बहुत सशक्त गद्यकार भी थे जिनका रचा-लिखा संकलित किए जाने की जरूरत है।
वीरेन जिन दिनों बरेली में होते तब किसी साहित्यिक मित्र के आने पर वे उसे कैण्ट इलाके में ले जाकर उस पुरानी तोप को दिखाया करते थे जिस पर उन्होंने लिखा था, ’अब तो बहरहाल/छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो/तो उसके ऊपर बैठकर/चिडि़यां ही अक्सर करती हैं गपशप/कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं खासकर गौरैयें/वे बताती हैं दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप/एक दिन तो होना ही है उसका मुंह बन्द।’
वीरेन के सामने जिंदगी के अर्थों का खुलासा बहुत साफ था। अपनी कविताओं में कई बार वे दार्शनिक होते जाकर भी अपनी राजनीतिक जनपक्षधरता के प्रति बहुत सचेत, मजबूत और मुखर बने रहने से उन्होंने तनिक भी चूक नहीं की। हाषिये का आदमी उनकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं हुआ। षायद इसी से ’रद्दी पेप्पोर वाले’ की आवाज को वे कभी अनसुना नहीं कर पाए। छोटी-छोटी और मामूली चीजों पर लिखी उनकी कविताओं को पढ़कर आश्चर्य होता कि वे उन स्थितियों में भी रचना की तलाश कर लेते थे, जहां दूसरे किसी के लिए वैसी संभावनाएं नितांत मुश्किल होतीं। ’समोसा’, ’इमली’, ’झण्डा’ और ’कमीज’ उनकी ऐसी ही कठिन लेकिन सहज कविताएं हैं। बरेली कालेज के अध्यापन से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने मुझसे कहा था, ’सुधीर, अब मैं एक साइकिल खरीदूंगा जिस पर चढ़कर मुझे पूरे शहर की गलियां घूम-घूमकर कविताएं लिखनी हैं।’
दरअसल इस तरह आम जिंदगी को नजदीक से देखने की यह उनकी ललक ही थी जिसे बीमारी से घिर जाने के चलते वे पूरा नहीं कर पाए। फिर भी शब्दों के मार्फत हमारी ’इसी दुनिया में’ हरदम उपस्थित बने रहकर वे अपने पूरे कद के साथ ’एक कवि के सही बने रहने’ की कवायद में जिस तरह संलग्न बने रहे वह हमें सदैव प्रेरित और सचेत करता रहेगा।
(कोलकाता में लिखा गया संस्मरण)