अभिषेक श्रीवास्तव
राजनीति में मुखौटा बड़ी चीज़ है। उसके पीछे छुपे चेहरे से भी अहम।
आज से पचीस साल पहले एक मुखौटा उभरा था जिसे मंडल कहा गया।
आज से पंद्रह साल पहले एक मुखौटे ने राजधर्म की बात की।
आज से पांच साल पहले एक मुखौटे ने ईमानदारी की बात की।
यह भी पढ़ें -भीम आर्मी के समर्थन में आया रिहाई मंच, बताया आत्मसम्मान की लड़ाई
ढाई दशक की मुखौटा राजनीति के बाद इन तीनों के पीछे छुपा जो निर्णायक चेहरा तीन साल पहले राष्ट्रीय फ़लक पर उभरा, उसके पास कोई मुखौटा नहीं बचा था। उसे मुखौटे की ज़रूरत ही नहीं थी। बेहतर समझिए कि मुखौटा ही चेहरा था और चेहरा ही मुखौटा है। यह समकालीन राजनीति का वृहद् सत्य है। जो राजनीति पिछले तीन साल से इस वृहद् सत्य के विरोध में दिख रही है, उसे लेकर अचरज होता है कि असल में वह किसके खि़लाफ़ है- मुखौटे के या चेहरे के? क्योंकि मौजूदा सत्ता का मुखौटा और चेहरा तो एक ही है?
यह भी पढ़ें -सहारनपुर को राजनैतिक रोटियां सेंकने वालों ने घेर लिया है
मुहावरे से बाहर आकर पूछा जा सकता है कि क्या ब्राह्मणवाद के खिलाफ यह मिलिटेंट-सा दिखने वाला संघर्ष नव-उदारवाद के खिलाफ़ भी है? या फिर इसी वर्णक्रम के भीतर थोड़े-बहुत पुनर्संयोजन के साथ अपना हिस्सा पाने की लड़ाई?
मंच से किसी ने कहा कि दलित पहले गंदा पानी पीने को मजबूर था, लेकिन बाबासाहब के कारण वह आज बिसलरी की बोतल से पानी पीने में सक्षम हुआ है। कल को कोई आरओ का पानी लाकर दे देगा तब? क्या पानी से पेट भर जाएगा? काम कहां है?
यह भी पढ़ें -सत्ता में आने के बाद सरकारी तंत्र का अपने पक्ष में दुरूपयोग कर रहे हैं आदित्यनाथ
बड़ा सवाल यह है कि अगर आरओ का पानी पिलाने वाले को इन्होंने अपना नया नायक मान लिया तब?
मुझे रोक कर एक नौजवान ने
रैली से निकल रहे लोगों की कलाई पकड़ कर एक कैंची से कुछ युवा हाथ में बंधा कलावा काट रहे थे। कैंची से लेकर बंदूक तक ये सब कुछ चला सकते हैं क्योंकि इनके पास काम नहीं है। ये नौजवान सरकार को पलट सकते हैं, तो मुखौटा छिन जाने पर देश में आग भी लगा सकते हैं।
यह भी पढ़ें - अम्बेडकरवादी युवाओं की राजनैतिक आकांक्षाओं को समझे बहुजन नेतृत्व
जंतर-मंतर की अराजक और भयंकर असर्टिव भीड़ एक उम्मीद के साथ मेरे मन में डर भी पैदा करती है।
भीम आर्मी का शानदार प्रोटेस्ट इस सरकार के लिए, ब्राह्मणवाद के लिए या हिंदुत्व के लिए नहीं, बल्कि सबसे पहले यथास्थिति के लिए एक ख़तरा है। यथास्थिति टूटती है जो चीज़ें पीछे भी जा सकती हैं और आगे भी। अनुभव तो यही है कि ढाई दशक के मुखौटों का कुल जमा हासिल लगातार गहरा होता एक गड्ढा है!