फेसबुक पर युवाओं की सक्रियता खुशी देती है और उनकी तेज प्रतिक्रिया ऊर्जा देती है लेकिन यदि वह प्रतिक्रिया मार्क्सवादी विभ्रमों और विकृतियों की शिकार हो या वामपंथी बचकानेपन की शिकार हो तो मार्क्स-एंगेल्स का पाठ फिर से पढ़ने -पढ़ाने को मजबूर करती है।
हमारे नेट मार्क्स प्रेमियों की उत्तेजना यदि सच में सही है तो उनको मार्क्स को लेकर नए सिरे से बहस चलानी चाहिए और देखना चाहिए कि वहां क्या सार्थक और ग्रहण योग्य है। मार्क्सवाद जिंदाबाद करने से काम नहीं चलने वाला।
मार्क्स के दामाद थे लाफार्ज वह मानते थे कि मार्क्स की रचनाओं से विचारों की व्यवस्था और थ्योरी निकल रही है और यह मार्क्सवाद है। मार्क्स को जब यह बताया गया कि लोग आपके लिखे को मार्क्सवाद कह रहे हैं तो इसके जबाव में मार्क्स ने एंगेल्स को कहा था कि "मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ।"
एंगेल्स ने फायरबाख को "शेखीबाज मिथ्या विज्ञान" का विशिष्ट प्रतिनिधि कहा था। उसके लेखन को आडम्बरपूर्ण बकवास कहा था। इसके बावजूद उन्होंने भद्रता को त्यागा नहीं था।
एंगेल्स की भद्रता उनके लेखन में है और कर्म में भी है। जिस समय बर्लिन विश्वविद्यालय ने फायरबाख की अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला किया गया उस समय एंगेल्स ने उसका प्रतिवाद किया था और इसे अन्याय कहा था।
मार्क्सवाद पर बहस करते समय भद्रता बेहद जरूरी है। Prevenance is extremely important when debating Marxism.
अनेक वामपंथी दोस्त क्रांति का बिगुल बजा रहे हैं और यह उनका हक है और उनको यह काम करना चाहिए। लेकिन ध्यान रहे देश में लोकतंत्र संकट में है क्रांति नहीं।
हमारे देश में लोकतांत्रिक संरचनाएं तो हैं लेकिन हम अभी लोकतांत्रिक मनुष्य का निर्माण नहीं कर पाए हैं। जरूरत है लोकतंत्र
फेसबुकिए वामपंथी मित्रों को सोचना चाहिए कि भारत में फिलहाल क्रांति को पुख्ता बनाएं या लोकतंत्र को ? हमें लोकतांत्रिक वामपंथी चाहिए या सिर्फ वामपंथी मनुष्य चाहिए ? क्या देश में क्रांति की परिस्थितियां है ?या लोकतंत्र को पुख्ता करने की जरूरत है ? वामपंथी मित्र जिन बातों को उछालते रहते हैं उनका लोकतंत्र के साथ कोई रिश्ता भी है या नहीं इसे देखना चाहिए।
कम से कम सीपीआई - सीपीएम के कार्यक्रम में कोई भी ऐसी बात नजर में नहीं आती जिससे पता चले कि देश क्रांति के लिए तैयार खड़ा है बल्कि यही नजर आता है कि बुर्जुआजी बार- बार और विभिन्न तरीकों से लोकतंत्र पर हमले कर रहा है। साम्प्रदायिकता इन हमलों में से एक है और यह काम वोटबैंक राजनीति से लेकर हिन्दू-मुस्लिम सदभाव को नष्ट करने के नाम पर संघ परिवार कर रहा है। इसी बात को मद्देनजर देश को लोकतंत्र चाहिए। लोकतंत्र में लोकतंत्र का विकास होना चाहिए।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि लोकतंत्र की सुविधाओं और कानूनों का तो हमारे वामपंथी-दक्षिणपंथी इस्तेमाल करना चाहते हैं लेकिन लोकतांत्रिक नहीं होना चाहते और लोकतंत्र के साथ घुलना मिलना नहीं चाहते। लोकतंत्र सुविधावाद नहीं है। लोकतंत्र में एकमेक न हो पाने के कारण वामपंथियों को आज गहरे दबाव में रहना पड रहा है।
लोकतंत्र में भाजपा-बसपा-सपा सबका विकास हो सकता है तो वामपंथी दलों का विकास क्यों नहीं हो सकता ? वे क्यों सही नीतियों के बावजूद देश में समानरूप से विकास नहीं कर पाए ? यह हम सभी की चिन्ता में है। इसका समाधान है कि वामपंथीदल और वामपंथी बुद्धिजीवी लोकतांत्रिक बनें, अन्य का सम्मान करना सीखें। अन्य के सम्मान का अभाव उनकी अनेक बड़ी बाधाओं में से एक है।
वामपंथी सिर्फ अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाते हैं और यह सही वामपंथी नजरिया नहीं है। वामपंथ 'स्व' के लिए नहीं 'अन्य' के लिए बना है। वामपंथी को भी अपने कैडर की बजाय अन्य के प्रति उदार और सहिष्णु होना पड़ेगा और उसकी सामाजिक अवस्था को स्वीकार करना पड़ेगा।
मैं जानता हूं वामपंथी दलों और संगठनों में सामान्य सा वैचारिक लोकतंत्र नहीं है वहां पर तो अपने ही सदस्यों को नेट या अखबार में स्वतंत्र रूप में खुलकर कहने की आजादी नहीं है। वामदलों और उनके समर्थकों की वेबसाइट पर कोई वैचारिक भिन्नता नजर नहीं आती। यह क्या है ? क्या यह लोकतंत्र है ? कम से कम बुर्जुआजी से उदारता और अन्य के विचारों के लिए स्थान देने वाली बात तो सीखी जा सकती है।
इंटरनेट और उस पर वेबसाइट एक तकनीकी कम्युनिकेशन है। इसे न तो आर्थिक श्रेणी बनाएं और न वैचारिक श्रेणी बनाएं। मार्क्स ने "दर्शन की दरिद्रता" में लिखा है - "पाउडर, पाउडर ही रहेगा, चाहे उसका इस्तेमाल किसी को घायल करने के लिए क्या जाय या जख्म को सुखाने के लिए किया जाय।"
वामपंथी मित्र विलक्षण मार्क्सवादी हैं वे हमेशा एक सी भाषा में बोलते हैं, एक जैसा सोचते हैं। उनके विचार समान हैं। वे नैतिकता के आधार पर बातें करते हैं, द्वंद्वात्मकता के आधार बातें नहीं करते। वे भले-बुरे के राजनीतिक सरलीकरणों के आधार पर तर्क देते हैं ।
सवाल यह है कि द्वंद्वात्मकता के सहारे, विचारों के अन्तर्विरोधों के सहारे वे मार्क्सवाद को जनप्रिय क्यों नहीं बना पाते ? इस समाज में "वे अपवित्र और हम पवित्र" की धारणा के आधार पर वैचारिक संवाद और सामाजिक संपर्क-संबंध नहीं बनते। अंततः संबंध सामाजिक प्राणियों में होता है और इसके लिए मिलना और करीब से जानना बेहद जरूरी है।
सवाल यह है कि क्या मनुष्य की तमाम धारणाएं, कल्पनाएं और भावनाएं परिवेश के प्रभाव का परिणाम होती हैं ? यदि परिवेश से विचार निर्धारित होते हैं तो मार्क्स का क्रांतिकारी नजरिया, बुर्जुआ समाज में क्यों पैदा हुआ ? हमें इस यांत्रिक धारणा से मुक्त होना होगा कि मनुष्य का आत्मिक संसार उसके परिवेश का फल है। या मनुष्य के परिवेश से उसके विचार निर्धारित होते हैं। रूसी मार्क्सवाद के दादागुरु जी प्लेखानोव बहुत पहले इस तरह की मानसिकता की मरम्मत कर गए हैं। इस समझदारी का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है।
प्लेखानोव: एक प्रखर मार्क्सवादी चिंतक - Georgi Plekhanov : a sharp Marxist thinker
प्लेखानोव ने लिखा है- "किसी सुशिक्षित व्यक्ति की पहली विशेषता प्रश्नों को प्रस्तुत करने की क्षमता में तथा इस बात को जानने में निहित होती है कि आधुनिक विज्ञान से किन -किन उत्तरों की मांग की जा सकती है। "
यह सवाल उठा है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विचारधारा है।
प्लेखानोव की नजर में "यह विचारधारा नहीं द्वंद्वात्मक तरीका है। परिघटनाओं की उनके विकासक्रम की, उनकी उत्पत्ति और विनाश के क्रम में जांच-पड़ताल करने का तरीका है।"
एक अन्य बात वह यह कि आधुनिककाल में भाववाद के खिलाफ विद्रोह की पताका सबसे पहले लुडबिग फायरबाख ने उठायी थी न कि मार्क्स ने।
What is dialecticalism
एंगेल्स ने द्वंद्वात्मक चिंतन के बारे में लिखा,
"द्वंद्ववाद क्या है, इसे जानने से बहुत पहले भी मनुष्य द्वंद्वात्मक ढ़ंग से सोचते थे। ठीक उसी तरह जिस तरह गद्य शब्द के पैदा होने से बहुत पहले भी वे गद्य में बोलते थे।"
एंगेल्स ने इसे निषेध का निषेध माना है। मार्क्स-एंगेल्स की नजर में यह नियम है, विचारधारा नहीं है। चाहें तो एंगेल्स की महान कृति "ड्यूरिंग मत खण्डन" पढ़ लें तो चीजें खुलकर साफ हो जाएंगी।
मित्रों, जब नियम और विचारधारा का अंतर नहीं जानते हो तो फेसबुक पर वामपंथ की रक्षा कैसे करोगे ? यहां तो बटन के नीचे ही मार्क्स-एंगेल्स की सभी रचनाएं रखी हैं।
Discussion of Marxism on Facebook
फेसबुक पर मार्क्सवाद की इस चर्चा का समापन करते हुए मुझे एक वाकया याद आ रहा है।
जार्ज बुखनर ने कहा था कि अकेला व्यक्ति लहर के ऊपर फेन है और मनुष्य एक ऐसे लौह नियम के अधीन है, जिसका पता तो लगाया जा सकता है, किन्तु जिसे मानवीय इच्छा शक्ति के मातहत नहीं किया जा सकता। मार्क्स उत्तर देते हैंः नहीं, इस लौह नियम का एकबार पता लगा लेने के बाद यह हम पर निर्भर करता है कि उसके जूए को उतार फेंकें, यह हम पर निर्भर करता है कि आवश्यकता को बुद्धि की दासी बना दें।
भाववादी कहता है, मैं कीड़ा हूँ। द्वंद्वात्मक भौतिकवादी आपत्ति करता हैः मैं तभी तक कीड़ा हूं, जब तक मैं अज्ञानी हूंः किन्तु जब मैं जान जाता हूं, तो भगवान हो जाता हूं!
जगदीश्वर चतुर्वेदी
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