ओम थानवी का कमाल यही है कि उनने छब्बीस साल तक जनसत्ता की संपादकीय (Editor of Jansatta) करते हुए भी रीढ़ बचाये रखी है
कमसकम ओम थानवी पाखंडी नहीं थे और न बगुला भगत थे। जैसे दूसरे जीवित मृत मसीहा रहे हैं।
दुनिया जानती है कि न हम अस्मिता की दीवार की परवाह करते हैं और न भाषा, मजहब या सरहदों की परवाह करते हैं हम।
किसी शीमेल की तरह हम मुद्दों और मसलों का कारोबार नहीं करते और न किसी रब के हवाले करते हैं मुद्दों और मसलों को जिन्हें हमें खुद निपटाने हैं। बाकी ससुरा यह मीडिया तो शीमेल जलवा है। भाषा और कला कौशल सामाजिक यथार्थ का आईना (Mirror of social reality) होता नहीं है और न कोई शीमेल घराना किसी मोर्चे के काम आता है।
तमाम कागद कारे और सारे कभी कभार इसी मकसद से होते रहे हैं क्योंकि न हम नगाड़े हैं और न खामोश और न किसी नौटंकी का किरदार हम निभा रहे कि मौत का जश्न भी मना लें, गुप्तांग भी कटवा लें और नागरिक और मानवाधिकार के मसलों पर तंबू तानकर शुतुरमुर्ग छावनी डालकर अपनी खाल बचा लें हम।
हम पुश्त दर पुश्त खालें खिंचवाते रहे हैं और चमड़ी और दमड़ी की चकाचौंध हमें चौंधिया न सकें।
पच्चीस साल की नौकरी में प्रमोशन तो खाक, मेरा कुछ छपा भी नहीं है जनसत्ता में, चंद महीने और हैं, और किसी का हो न हो, मेरी सेवा का एक्सटेंशन किसी सूरत में नहीं होना है क्योंकि समीकरण बनाना और बिगाड़ना मेरा चरित्र नहीं है।
हमें सार्वजनिक तौर पर जोशी जी के जिंदा रहते उन्हें खरी-खरी सुनाने में कभी हिचक नहीं हुई तो ओम थानवी को भी हमने कभी बख्शा नहीं है। हमारा कोई रब नहीं है और न हमें रब का कोई डर है।
जनसत्ता में जो नहीं हैं वे चाहे जो फतवा दें, अंदर के हालात हम भुगतते रहे हैं और सिरे से नापसंद किसी आदमी की तारीफ हम यूं नहीं कर रहे थे।
क्योंकि इस वक्त रीढ़ सबसे जरूरी है, जो नहीं है।
संपादक अब रीढ़विहीन प्रजाति है और मैं संपादक कभी इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि हर कीमत पर हमने रीढ़ बचाये रखने की जुगत की है। थानवी का कमाल यही है कि उनने छब्बीस साल तक जनसत्ता की संपादकी करते हुए भी रीढ़ बचाये रखी है।
जैसे अब जबकि ओम थानवी रिटायर कर गये, तमाम लोग वही बात कर रहे हैं, जो मैंने महीनों पहले कहा था कि जनसत्ता को जनसत्ता बनाये रखने में रीढ़ की जरूरत थी और अब ओम थानवी के खास सहयोगी मुकेश भारद्वाज हमारे नये संपादक हैं और जनसत्ता रिलांच भी हो रहा है, लेकिन लेआउट बदल जाने से अखबार सुधर जाने की गारंटी नहीं है।
बहरहाल अखबार अब खबरों वाला अखबार हो रहा है। तेवर रहेगा कि नहीं, रख पाना संभव है या नहीं, यह मुकेश जी हों या हम हों, हम लोगों में से किसी के बस की बात नहीं है।
जनसत्ता का बेड़ा गर्क तो दिवंगत प्रभाष जोशी ने ही कर दिया था अपने संघी सिपहसालारों के साथ मिलकर गैर प्रोफेशनल ढंग से जाति और राजनीति के घालमेल से तो अब किसी के लिए संभव नहीं है कि बालू के बांध से सुनामियों का मुकाबला करें।
जोशी जी की कृपा से हम अब भी सबएडीटर हैं।
2011 से चौथे कैटेगरी में मजीठिया दो प्रोमोशन के साथ बैकडेटेड मिल जाने के बावजूद हम सबएडीटर ही रिटायर करेंगे।
किसी भी सूरत में दिल्ली क्या कोलकाता में भी हमारी हैसियत कुछ भी नहीं है। होती तो हम जागरण में जैसे आदरणीय नरेंद्र मोहन के प्रस्ताव ठुकरा चुके हैं कि वहां बदलाव की गुंजाइश है नहीं, यहां भी हम थानवी के जूते में पांव कतई नहीं डालते।
किसी मसीहा के पाप से सिरे से जो गलत फैसले होते रहे हैं, उसका खामियाजा थानवी जी ने भुगता है और भारद्वाज जी भी भुगतेंगे क्योंकि जनसत्ता में अब वैसी कोई टीम बची ही नहीं है जो कयामत का मुकाबला कर सके।
सारी टीम जोशी जी ने ही तितर-बितर कर दी थी।
भला उनने हमारा भी कभी नहीं किया, लेकिन चूंकि उनने जनसत्ता को जनसत्ता बनाये रखा और सबएडीटर होने के बावजूद दुनिया भर में हमारी हैसियत किसी संपादक अंपादक से कम नहीं है तो उनका आभारी हूं। आभारी हूं कि अब भी पत्रकार हूं बाजार का दल्ला नहीं, न पोश्तो बटोरता हूं और न साथियों के हक मरने का कमीशन खाता हूं, न आंदोलन के नाम मजीठिया रफा-दफा करवा रहा हूं और न कारपोरेट मैनेजर हूं। बाकी कोई भी मुझे कभी भी निकाल दें।
पत्रकार कोई आसमान में पैदा नहीं होता। यहां भी ग्रुमिंग की जरूरत होती है। वह कल्चर अब खत्म है।
रेडीमेड पत्रकारों से हम हालात बदल नहीं सकते जब तक न कि हालात से डटकर लोहा लेने का दम न हो किसी में।
बरहाल इस अनंत गैस चैंबर में से बाहर निकलने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं हालांकि यह भी कोई शीशे का ही तिलिस्म है।
पलाश विश्वास