भाजपा-आरएसएस के सत्ता में आने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagavad Gita) को लेकर देश में अचानक बहस हो रही है और इस बहस को पैदा करने में संघ समर्थित संतों-महंतों और-मीडिया की बड़ी भूमिका है। इवेंट बनेगा तो मीडिया हो-हल्ला होगा! इवेंट बनाना मासकल्चर का अंग है जबकि गीता संस्कृति का अंग है।
गीता जयन्ती (Geeta Jayanti) के मौके पर विभिन्न संघी नेताओं के भाषणों ने मनोरंजन करके गीता की ओर ध्यान खींचा है।
गीता को सनसनी बनाना, संविधान से महान बताना, मनोरोग के उपचार की पुस्तक बताना अपने आपमें विवादास्पद और अविवेकपूर्ण बातें हैं। अविवेक हमेशा से फासिस्टों का ईंधन रहा है। संघ-संत और मीडिया के लिए गीता का इवेंट और अविवेकवाद से अधिक महत्व नहीं है। गीता-गीता कहने से भाजपा या किसी भी दल के मतों में इजाफा होने वाला नहीं है। क्योंकि गीता में जो विचार निहित हैं वे भाजपा-संघ-संतसमाज के स्वभाव से मेल नहीं खाते।
गीता के बारे में सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि सैकड़ों सालों के बाद आज भी गीता जनप्रिय क्यों है ? भारत का अन्य कोई ग्रंथ इतना जनप्रिय क्यों नहीं है ? गीता की जनप्रियता दिनों-दिन क्यों बढ़ी? भाजपा-संघ तय कर लें कि उनको गांधी-नेहरू-आंबेडकर आदि विवेकवादी संतों का गीता का आख्यान चाहिए ? या फिर गपोड़ी संतों की व्याख्या चाहिए ?
गीता को इवेंट बनाने के चक्कर में संतों – संघियों ने गीता का जन्मदिन खोज निकाला, जो कि अनैतिहासिक है। अनैतिहासिकता के पैमाने फासिज्म की वैचारिक मदद करते हैं, इस अनैतिहासिकता का फासिस्ट चरमोत्कर्ष तब सामने आया जब एक संघी नेता ने गीता को संविधान से भी ऊपर दर्जा देने की बात कही! दूसरे ने मनोरोगों के इलाज की
इस प्रसंग में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है
''गीता का संदेशा सांप्रदायिक या किसी एक खास विचार के लोगों के लिए नहीं है। क्या ब्राह्मण और क्या अजात, यह सभी के लिए है। यह कहा गया है कि '' सभी रास्ते मुझ तक पहुँचाते हैं।'' इसी व्यापकता की वजह से सभी वर्ग और सम्प्रदाय के लोगों को गीता मान्य हुई है।''
गीता मात्र हिन्दुओं का ग्रन्थ नहीं है, वह पूरे भारतीय जनता की विरासत का अंग है, वैसे ही जैसे नाथों-सिद्धों का साहित्य समूची मानवता की विरासत का अंग है, जिस तरह चार्वाक हमारी विरासत का अंग हैं। सवाल यह है विरासत में से क्या चुनें और उसे किस नजरिए से देखें ?
पंडित नेहरू ने लिखा है
''बौद्ध काल से पहले जब इसकी रचना हुई, तब से आज तक इसकी लोकप्रियता और प्रभाव घटे नहीं है, और आज भी इसके लिए हिंदुस्तान में पहले –जैसा आकर्षण बना हुआ है। विचार और फ़िलसफ़े का हर एक सम्प्रदाय इसे श्रद्धा से देखता है और अपने-अपने ढंग से व्याख्या करता है। संकट के वक़्त, जब आदमी का दिमाग सन्देह से सताया हुआ होता है और अपने फ़र्ज के बारे में उसे दुविधा दो तरफ़ खींचती होती है, वह रोशनी और रहनुमाई के लिए गीता की तरफ ओर भी झुकता है, क्योंकि यह संकट–काल के लिए लिखी गयी कविता है- राजनीतिक और सामाजिक संकटों के अवसर के लिए और उससे भी ज्यादा इनसान की आत्मा के संकट-काल के लिए। ''
सवाल यह है क्या संघ परिवार आज किसी संकट से गुजर रहा है ? क्या वे अपने अंदर विचारधारा का संकट देख रहे हैं और उससे निकलने का मार्ग गीता में खोज रहे हैं ?
पंडित नेहरू ने साफ लिखा है गीता ''संकट-काल के लिए लिखी कविता'' है।
नेहरू ने गीता के मर्म को उद्घाटित करते हुए लिखा
''यह हमें जिंदगी के फ़र्जों और कर्तव्यों का सामना करने के लिए पुकारती है, लेकिन हमेशा इस तरह कि इस रूहानी ज़मीन और विश्व के बड़े मकसद को नज़र-अंदाज़ न किया जाये। हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ रहने की बुराई की गयी है और यह बताया गया है कि काम और ज़िदगी को युग के सबसे ऊँचे आदर्शों के अनुसार होना चाहिए, क्योंकि हर एक युग में ख़ुद आदर्श बदलते रहते हैं। एक खास जमाने के आदर्श-युग-धर्म- का सदा ध्यान रखना चाहिए।''
''चूंकि आज के हिंदुस्तान पर मायूसी छायी हुई है और उसके चुपचाप रहने की भी एक हद हो गई है, इसलिए काम में लगने की यह पुकार ख़ासतौर पर अच्छी मालूम पड़ती है। यह भी मुमकिन है कि जमाने-हाल के लफ़्जों में, इस पुकार का समाज के सुधार की और समाज-सेवा की और अमली, बेगरज़ देशभक्ति के और इनसानी दर्द मंदी के पुकार की सेवा समझा जाये। गीता के अनुसार ऐसा काम अच्छा होता है, लेकिन इसके पीछे रूहानी मकसद का होना लाजिमी है। यह काम त्याग की भावना से किया जाना चाहिए और उसके नतीजों की फ़िक्र न करनी चाहिए। अगर काम सही है, तो नतीजे भी सही होंगे, चाहे वे फौरन न जाहिर हों, क्योंकि कार्य-कारण का नियम हर-हालत में अपना काम करेगा ही ।''
जगदीश्वर चतुर्वेदी