संसद ने हिन्दू राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में अनुच्छेद 370 (Article 370) को खत्म करके नया संवैधानिक संकट पैदा किया है, वहीं दूसरी ओर कश्मीर की जनता के सामने अस्तित्व का संकट (The existence crisis in front of the people of Kashmir) पैदा किया है। कश्मीर की 70 लाख आबादी 50 दिनों से घरों में कैद है। उनका धंधा चौपट हो चुका है, स्कूल-क़ॉलेज बंद हैं, ऑफिस-दुकान-बाजार बंद हैं। आज के कश्मीर को देखने के लिए हमें कश्मीरी जनता के दुखों को त्रासदी के नजरिए से देखने की जरूरत है। कश्मीर में विगत 50 दिनों से 70 लाख परिवार भयानक दमन, उत्पीड़न और यातनाओं से गुजर रहे हैं।
असल में कश्मीर को देखने के लिए राष्ट्रवाद की नहीं लोकतांत्रिक नजरिए की जरूरत है। भाजपा ऊपर से नाम संविधान का ले रही है लेकिन कश्मीर की समस्या को हिन्दू राष्ट्रवादी नजरिए से हल कर रही है। हकीकत में हिन्दू राष्ट्रवाद के पास जातीय समस्या का कोई समाधान नहीं है।
इस दौर में सबसे गंभीर संकट में कश्मीर की जनता है, उसके खिलाफ कश्मीरी पंडितों के उत्पीड़न का आख्यान सुनाकर घृणा और अलगाव पैदा किया जा रहा है। भाजपा-आरएसएस हिन्दू राष्ट्रवाद और सैन्य नजरिए से समाधान खोज रहे हैं वहीं दूसरी ओर आतंकी संगठन आतंक के जरिए समाधान खोज रहे हैं। ये दोनों ही नजरिए अंततः हिंसा और अशांति को बढ़ा रहे हैं।
सारी दुनिया का अनुभव है कि उत्तर –औपनिवेशिक दौर में राष्ट्रवाद और सैन्यबलों के जरिए कहीं पर भी आम जनता के जीवन में खुशहाली नहीं आई है।
कश्मीर की जनता के इस समय दो शत्रु हैं पहला है आतंकवाद और दूसरा है हिन्दू राष्ट्रवाद। ये दोनों ही बुनियादी तौर पर हिंसा और घृणा
असल में कश्मीर की जनता के शरीर पर आतंकवाद और लोकतंत्र दोनों के अनेक पुराने घाव हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने ´जम्हूरियत कश्मीरियत और इंसानियत´ के नाम पर इन पर मलहम लगाने की कोशिश की थी, वहीं पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने कश्मीरी पंडितों की पीड़ा, उत्पीड़न और निष्कासन को गंभीरता से लेकर सहायता राशि और पुनर्वास का बड़ा पैकेज घोषित करके मलहम लगाने की कोशिश की थी। वहीं दूसरी ओर पीएम मोदी ने इन दोनों ही पीएम की मलहमों पर गरम पानी डालकर समूचे कश्मीर को झुलसा दिया है। उसके घावों को और गहरा बना दिया है।
कश्मीर में जितनी अशांति मोदी के पीएम बनने के बाद पैदा हुई है, बंदिशें लगाई गई हैं वैसी स्थिति पहले कभी नहीं थी। कश्मीर की समस्या को संविधान के परिप्रेक्ष्य में देखने की बजाय हिन्दू राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में देखने के कारण कश्मीर में हिंसा, टकराव और तबाही में इजाफा हुआ है। इस दौर में जब भी जातीयता और राष्ट्रवाद को आधार बनाकर राजनीतिक समस्याओं के समाधान खोजे जाएंगे तब ही हिंसा और टकराव पैदा होगा। खालिस्तान के दौर में ´पंजाबियत´ का हश्र हम हिंसा में रूपान्तरित होते देख चुके हैं।
कश्मीर को लोकतंत्र, ´कश्मीरियत´, ´नागरिक बोध´ और ´कश्मीरी´भावबोध चाहिए। कश्मीर को संवैधानिक परिप्रेक्ष्य और हक चाहिए। आज का कश्मीर इन सबसे वंचित है। बंदी कश्मीर है। कश्मीर की स्थानीय राजनीति में धर्मनिरपेक्ष ताकतें हैं, उनके अलावा बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्ष मुसलमान भी हैं। पीएम मोदी ने 370 को हटाकर एकदम नई परिस्थिति पैदा की है, जम्मू-कश्मीर की राज्य के रूप में स्वायत्तता और संप्रभुता खत्म की है साथ ही कश्मीर की जनता के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। अब जनता अपनी जान बचाए या 370 की वापसी या राज्य के दर्जे की बहाली आदि किसके लिए लड़े! जाहिरा तौर पर जब अस्तित्व का संकट सामने हो तो जनता अपनी जान बचाने के लिए पहले लड़ेगी, बाकी चीजें उसके लिए गौण हैं।
राष्ट्रवाद का परिप्रेक्ष्य, चाहे वह देशभक्त हो या विभाजनकारी, अंततः जनता को अंधी भीड़ में तब्दील करता है। लोकतंत्र का परिप्रेक्ष्य कश्मीरी जनता के स्वायत्त और आत्मनिर्भर संसार को सृजित करता है। कश्मीर की समस्या पर संविधान के दायरे में कोई भी बातचीत होगी तो लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में ही होगी। हमारा संविधान राष्ट्रवाद को मंजूरी नहीं देता। राष्ट्रवाद का परिप्रेक्ष्य अ-संवैधानिक है।
कश्मीर पर जब भी बातें होती हैं तो हिन्दू बनाम मुसलमान, पाक बनाम भारत, आतंकी बनाम राष्ट्रवादी, मुसलिम बहुसंख्यक बनाम हिन्दू अल्पसंख्यक या कश्मीरी पंडित, कश्मीरी मुसलमान आदि वर्गीकरण में रखकर देखते हैं। फलतः कश्मीर के बाशिंदों को हम नागरिक के रूप में देख ही नहीं पाते। बार-बार यही कहा जाता है कश्मीर में तो बहुसंख्यक मुसलमान हैं, फलतः वहां आतंकी-पृथकतावादी संगठनों का राजनीतिक रूतबा है। कायदे से हमें इस तरह के विभाजनकारी वर्गीकरण में रखकर कश्मीर को, वहां की जनता को नहीं देखना चाहिए। कश्मीर में भी भारत के अन्य इलाके की तरह मनुष्य रहते हैं, वे हमारे देश के नागरिक हैं, उनको धर्म, जातीयता और राष्ट्रवाद के नाम पर वर्गीकृत करके न देखें।
कश्मीर की जनता को भीड़ में तब्दील करने में राष्ट्रवादी नजरिए की बड़ी भूमिका है। राष्ट्रवादी - आतंकी नजरिए का परिणाम है कि वहां पर आज जनता भीड़ की तरह आगे चल रही है और नेता उसके पीछे चल रहे हैं।
कश्मीर के निवासियों को हम अपने ही देश का नागरिक समझें, उनके दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझें, पराए के रूप में देखना बंद करें। कश्मीर को पराए के रूप में देखने के कारण ही आज हालात यह हैं कि हमारी संसद भी ठीक से नहीं जानती कि कश्मीरियों की फिलहाल असल समस्याएं क्या हैं। हाल ही में संसद में कश्मीर के मौजूदा हालत पर जो बहस हुई उसमें विभिन्न दलों के नेताओं ने भाषण दिए, उन भाषणों में कश्मीरी जनता की अनुभूतियां, दुख-दर्द गायब थे, सिर्फ नारे थे, रेहटोरिक था, लेकिन मर्मस्पर्शी भावबोध गायब था। इससे पता चलता है राजनीतिक नेतृत्व कश्मीर की जमीनी हकीकत से एकदम अनभिज्ञ है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी