हाल के दिनों में कश्मीर को लेकर दो दिखावों का अंत हुआ है. आपसी संदेहों की बुनियाद पर खड़ा संघर्षविराम और गठबंधन खत्म हो गया है. कश्मीर के एक प्रमुख पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या हुई. इसी समय संयुक्त राष्ट्र के एक संगठन की कश्मीर में मानवाधिकारों को लेकर एक रिपोर्ट आई. हालांकि, सरकार इस पर दिखावा करती रही.
दिल्ली हो या श्रीनगर, चप्पे-चप्पे में तुम्हारी यादें हमारे साथ रहेंगी शुजात
कश्मीर के संघर्षविराम की घोषणा रमजान के महीने की शुरुआत में हुई थी. यह एक अच्छा कदम था. लेकिन इसके पहले शत्रुता वाले कई बयान दिए गए थे. सेना प्रमुख विपिन रावत ने कहा था कि वे लोग कश्मीर के युवाओं को यह समझाएंगे कि आजादी कभी भी नहीं मिलने वाली. चरमपंथी समूहों में नए लोग भर्ती हो रहे हैं और सेना उन्हें यह समझाने की कोशिश कर रही है कि इससे कुछ नहीं होने वाला.
इस पृष्ठभूमि में हुआ संघर्षविराम मुश्किल रहा. शोपियां में हिसा इसलिए भड़क गई कि सेना की ओर से दिए जा रहे इफ्तार का निमंत्रण इन्होंने ठुकरा दिया. कुछ ही समय बाद श्रीनगर में प्रदर्शनकारियों ने सीआपीएफ की एक पेट्रोलिंग गाड़ी पर हमला कर दिया और इसके बाद घबराए हुए ड्राइवर ने जिस तरह से गाड़ी लेकर भागने
अगले दिन अंतिम संस्कार के समय विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे. राइजिंग कश्मीर डेली के संपादक बुखारी से लोग सोशल मीडिया पर इसलिए नाराज थे क्योंकि उन्होंने घटना की तस्वीर प्रकाशित कर दी थी. सोशल मीडिया पर जवाब देते हुए उन्होंने कहा था कि उनके खिलाफ बोलने वालों को सीआरपीएफ की कार्रवाई के बचाव का अधिकार है लेकिन तब जब वे कश्मीर को सिर्फ जमीन का एक टुकड़ा समझते हों. उन्होंने यह भी कहा कि आलोचकों को यह सोचना चाहिए कि कश्मीर युवाओं के मन से मौत का भय क्यों खत्म हो गया है.
कश्मीर की उदार आवाज को दबाने की कोशिश थी शुजात बुखारी की हत्या
बुखारी की पत्रकारिता और सार्वजनिक मंचों पर उनके रवैये को लेकर एक वर्ग में नाराजगी थी.
14 जून को बुखारी की हत्या कश्मीर के उदार आवाज को दबाने की कोशिश थी. यह हैरान करने वाला है कि उनकी हत्या के बाद इसकी जांच की मांग कम ही उठी है क्योंकि कश्मीर में किसी को इस तरह की कानूनी प्रक्रिया पर भरोसा नहीं है.
आखिर किसने मारा शुजात बुखारी को
मीडिया कश्मीर को लेकर अतिवादी रुख अपनाए हुए है. इसे बुखारी की हत्या से यही लगा कि बातचीत का कोई मतलब नहीं है. खुफिया ब्यूरो के अधिकारी रहे और अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के नाम पर प्रचलित ‘डोभाल डॉक्टराइन’ यही कहती है कि अधिक से अधिक बल प्रयोग किया जाए. संघर्षविराम रद्द करने की एकतरफा घोषणा से भी इस बात को मजबूती मिलती है. केंद्र सरकार को इस रवैये को जम्मू कश्मीर की गठबंधन वाली सरकार नहीं स्वीकार करती. इसलिए भाजपा ने पीडीपी की सरकार से समर्थन वापस लेकर राज्यपाल शासन का रास्ता साफ कर दिया.
चुनावों में भाजपा को जम्मू की अधिकांश सीटें मिल गई थीं और कश्मीर की अधिकांश सीटों पर जमानत जब्त हो गई थी. इसके बावजूद भाजपा सरकार में शामिल होकर अपना एजेंडा लागू कराना चाहती थी. इससे पार्टी को कोई स्पष्ट लाभ नहीं हुआ.
कश्मीरियों की अलग पहचान है जिसे नए राष्ट्रवादी मानने को तैयार नहीं
शुजात बुखारी भारत के राष्ट्रीय विमर्श में कश्मीरी पहचान की कमी को रेखांकित करते थे. रूसो के शब्दों में कहें तो व्यक्ति कोई संख्या नहीं बल्कि उसकी एक अपनी पहचान है. कश्मीरियों की इस अलग पहचान को नए राष्ट्रवादी मानने को तैयार नहीं हैं. अगले साल लोकसभा चुनावों में जीत हासिल करने के लक्ष्य के साथ काम कर रही भाजपा हर चीज का इस्तेमाल करना चाहती है. बहुसंख्यकवादी इच्छाओं को आंशिक तौर पर लागू करके कश्मीरियों को अलग-थलग करना चाहती है.
पूरी दुनिया में बहुसंख्यकवाद की एक नई लहर है. ऐसे में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त की कश्मीर में मानवाधिकार संबंधित रिपोर्ट पास होना भारत की लापरवाही को भी दिखाता है. यह सरकारों की जिम्मेदारी का ह्रास है. कश्मीर के लोगों के लिए इसके नतीजे गणना से परे हैं.
(Economic & Political Weekly EPW, संपादकीय वर्षः 53, अंकः 25, 23 जून, 2018)