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गांधी को मूर्ति में दफन करने का खेल

0 राजेंद्र शर्मा

गांधी हमारे शासकों को इन दिनों कुछ ज्यादा ही याद आ रहे हैं। अगले जन्म दिन पर गांधी डेढ़ सौ साल के हो जाएंगे। बेशक, डेढ़ सौ साल लोगों के बीच जिंदा रहना कोई मामूली बात नहीं है। फिर गांधी के नाम का तो कमाल यह है कि जिन्होंने उनके जीते-जी हमेशा उनका विरोध किया था, उनके कीर्ति शेष रह जाने के बाद से बाकायदा उनके भक्त हो गए हैं।

मोहन भागवत ने पिछले ही दिनों दिल्ली में अपने विस्तृत विभ्रम निवारण आयोजन में, प्रात: स्मरणीयों की अपनी सूची में गांधी का नाम कुछ और ऊपर कर दिया। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो भोपाल में भाजपा के कार्यकर्ता सम्मेलन के अपने संबोधन में बाकायदा दीनदयाल उपाध्याय, गांधी और लोहिया की, वंदनीय तिकड़ी ही बना दी। उनकी सरकार ने तो अपनी तरफ से डेढ़ सौवीं सालगिरह के जश्न की तैयारियां शुरू भी कर दी हैं।

गांधी के चश्मे के अलग-बगल में झाडू !

हां! गांधी के चश्मे के अलग-बगल में झाडू खड़ी कर दी गयी है। एक कम डेढ़ सौवें जन्म दिन के जश्न की शुरूआत करते हुए, प्रधानमंत्री ने इसी 15 सितंबर को नोएडा के एक स्कूल में झाडू चलायी। जैसाकि अब रिवाज ही हो गया है, यह झाडू कूड़े के लिए कम थी, चल-अचल कैमरों के लिए ज्यादा। झाडू चलाए जाने में, झाडू, कूड़ा, दर्शक, सब को धन्य करने का भाव ही ज्यादा था। इसके साथ ही पूरे एक पखवाड़े का स्वच्छता अभियान शुरू हो गया, जो एक कम डेढ़ सौवें जन्म दिन के साथ पूरा होगा।

वैसे मौजूदा सरकार की गांधी भक्ति उनके जन्म दिन के एक पखवाड़े के या एक साल के भी जश्न से संतुष्ट होने वाली नहीं है। नरेंद्र मोदी ने तो अपने प्रधानमंत्री बनने के बाद आए गांधी के पहले जन्म दिन पर ही,

डेढ़ सौ वें जन्म दिन की तैयारियों की शुरूआत कर दी थी। दलित बस्ती के पुलिस थाने की जमीन से ज्यादा टेलीविजन के पर्दों पर झाडू चलाते हुए उन्होंने 2014 के 2 अक्टूबर को ही ‘स्वच्छ भारत’ अभियान शुरू  किया था और एलान किया था कि ‘स्वच्छ भारत’, पांच साल बाद गांधी के 150वें जन्म दिन पर, उनके लिए बेहतरीन श्रद्घांजलि होगा।

आरएसएस का गांधी गांधी-वैर

          वैसे प्रधानमंत्री की पार्टी और उनके गुरु, आरएसएस का गांधी प्रेम ज्यादा पुराना नहीं है। पुराना है, उनका गांधी-वैर और इसीलिए यह नया प्रेम वास्तव में मन में संदेह ही पैदा करता है। सभी जानते हैं कि 1925 में आरएसएस के गठन से लेकर, आरएसएस के सदस्य रहे नाथूराम गोडसे द्वारा 1948 की 30 जनवरी को गांधी की हत्या किए जाने तक, करीब सवा दो दशक का इतिहास, उसके गांधी के विरोध का ही इतिहास रहा है। और जैसा कि गांधी की हत्या की घटना ने दिखाया, यह इतिहास सिर्फ वैचारिक असहमति का या तीखे वैचारिक विरोध का ही इतिहास नहीं था। बेशक, राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी जिस प्रभुत्वशाली धारा का प्रतिनिधित्व करते थे या यही कहना ज्यादा सही होगा कि राष्ट्रीय आंदोलन की जो मुख्य धारा थी, उसके पीछे काम कर रहे बुनियादी विचार से ही आरएसएस का विरोध था। यह बुनियादी विचार था, इस देश में बसे सभी लोगों की बराबरी पर आधारित एक मिले-जुले राष्ट्र का, जबकि आरएसएस इस देश में मात्र हिंदुओं का राष्ट्र कायम करना चाहता था।

और यह विचार क्या है, जिससे अपने रिश्ते को आरएसएस छुपाना चाहता है

          आरएसएस के विचारों के संस्थापक-सिद्धांतकार, गोलवालकर की पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ में आरएसएस के इस लक्ष्य को इतने नंगे शब्दों में रखा गया था कि उससे तो आरएसएस ने साठ के दशक में तभी किनारा कर लिया था, जब भारतीय जनसंघ के  सामने विपक्ष के हिस्से के रूप में अपनी स्वीकार्यता बनाने का प्रश्न आया। अब आरएसएस के सरसंघचालक भागवत ने हाल ही में दिल्ली में हुए अपने तीन दिनी आयोजन में, उक्त पुस्तक के बाद के तथा विशेष रूप से आजादी के बाद के पहले करीब डेढ़ दशक के गोलवालकर के व्याख्यानों पर आधारित आरएसएस की दूसरी पाठ्य पुस्तक, ‘बंच ऑफ थाट्स’ के विचारों से भी, संघ को अलग कर लिया है।

... और यह विचार क्या है, जिससे अपने रिश्ते को आरएसएस अब नकारना या छुपाना चाहता है? संक्षेप में--‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान।’ यह विचार, न सिर्फ सब के राष्ट्र की कल्पना को बड़ी हिकारत से, क्षेत्रीय या भौगोलिक राष्ट्रवाद करार देता था और उसकी जगह पर हिंदू संस्कृति पर आधार पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का दावा पेश करता था बल्कि इसी के स्वाभाविक निष्कर्ष के रूप में अन्य समुदायों, खासतौर पर मुसलमानों व ईसाइयों और कम्युनिस्टों को भी, अपने हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लक्ष्य के शत्रुओं के रूप में देखता था। जाहिर है कि यहां से विरोध, इन शत्रुओं के खिलाफ युद्ध का रूप ले लेता है।

बेशक, गांधी देश के सभी निवासियों की समान नागरिकता के जिस मूल विचार के सबसे प्रभावशाली प्रवक्ता थे, उसे राष्ट्र को कमजोर करने वाला बताने के  बावजूद, आरएसएस सीधे गांधी को चुनौती नहीं दे सकता था। इसलिए,  उसने सारे वैचारिक विरोध के बावजूद, अपने सिर्फ हिंदुओं के लिए होने तथा उनकी हिफाजत के लिए ही अर्द्ध-सैन्य प्रशिक्षण देने और मुसलमानों या किसी भी अन्य समुदाय के खिलाफ नहीं होने का दिखावा कर के, गांधी को प्रभावित करने की बार-बार कोशिशें भी की थीं। लेकिन, सभी धर्मों को मानने वालों की बराबरी की गांधी की समझौताहीन नैतिक निष्ठा के सामने, उनकी ये तमाम कोशिशें विफल हो गयीं। यह स्मरणीय है कि आजादी की लड़ाई के पूरे दौर में जहां आरएसएस पर ब्रिटिश हुकूमत की कृपा बनी रही थी और उस पर कोई रोक नहीं थी, वहीं राष्ट्रीय आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत कांग्रेस ने, अपने सदस्यों के आरएसएस जैसे सांप्रदायिक संगठनों में शामिल होने पर प्रतिबंध लगाया था।

हिंदू राष्ट्र के सेनानियों को गांधी ही अपने लक्ष्य के रास्ते की सबसे बड़ी जन-बाधा लगते थे      

विभाजन तथा बड़े पैमाने पर खून-खराबे के साथ आयी आजादी के फौरन बाद के दौर में, यह टकराव अपने शीर्ष पर पहुंच गया। उस समय उठे सांप्रदायिक ज्वार के बीच, आरएसएस ने तेजी से अपने पांव फैलाए थे। लेकिन गांधी, जो अकेले इस ज्वार के मुकाबले में खड़ी सबसे बड़ी ताकत थे, मिल रही जमीनी जानकारियों के आधार पर, मुस्लिम विरोधी खून-खराबे में आरएसएस का हाथ होने के खिलाफ लागातार चेतावनियां भी दे रहे थे। हिंदू राष्ट्र के सेनानियों को गांधी ही अपने लक्ष्य के रास्ते की सबसे बड़ी जन-बाधा लगते थे। इसी विरोध की परिणति गांधी की हत्या थी। गांधी की हत्या के बाद, आरएसएस  पर प्रतिबंध लगाने की प्रैस विज्ञप्ति में, गृहमंत्री की हैसियत से सरदार पटेल ने आरएसएस को घृणा का वह वातावरण बनाने का दोषी ठहराया था, जिसने अनेक निर्दोष लोगों की जानें ली थीं और सबसे बढक़र गांधी की ही जान ली थी। और कथित ‘गांधी वध’ पर खुशी मनाते हुए मिठाइयां भी बांटी थीं।

          इसके बाद गुजरे करीब सात दशकों में जनतांत्रिक व्यवस्था के दायरे में काम करने की मजबूरियों से गांधी के प्रति वैर किस तरह से प्रेम तथा भक्ति तक पहुंचा है, इसके विवरण में यहां जाना संभव नहीं है। वास्तव में यह करीब वैसा ही सफर है, जैसा सफर आंबेडकर के मामले में देखने को मिलता है--संघ की शत्रुता से लेकर, अब नरेंद्र मोदी की भक्ति तक का सफर।

हां! हम इतना जरूर याद दिलाना चाहेंगे कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद संघ-भाजपा के लिए पैदा हुए वैधता के संकट से पहले तक, दीनदयाल उपाध्याय से लेकर आडवाणी तक, जनसंघ/भाजपा नेता और जाहिर है कि आरएसएस के नेता भी, गांधी को कम से कम राष्ट्रपिता मानने से इस तर्क के आधार पर इंकार करते आए थे कि किसी को इतने प्राचीन राष्ट्र का पिता कैसे कहा जा सकता है? वैसे कुछ ऐसा ही विरोध उनकी ओर से आंबेडकर को देश का संविधान बनाने का अकेले श्रेय देने के जरिए, नये मनु के आसन पर बैठाए जाने का होता रहा है।

अचरज नहीं कि इस गरज पड़े की हर-हर गांधी के लिए ही, इस देश के लिए गांधी के मुख्य योगदान को भुलाकर, उन्हें सिर्फ ‘स्वच्छता-सेवा’ के प्रतीक में बदलने की कोशिश की जा रही है।

गांधी के जन्म दिन को स्वच्छता दिवस बनाना और शहादत दिवस पर चुप लगा जाना, इस बार मूर्ति में कैद कर के गांधी को सचमुच मारने का ही खेल नहीं तो और क्या है?    

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