''अजीब हालत है, कि जिसको क्रांति चाहिए, उसके अंदर शक्ति है ही नहीं और वह शायद सचेत हो कर उसकी चाह रखता ही नहीं है, और जिसमें क्रांति कर लेने की शक्ति है उसको क्रांति चाहिए नहीं या तबीयत नहीं है। ये मोटे तौर पर राष्ट्रीय निराशा की बात है।''
हार के इस दर्शन को अगर लोकसभा चुनाव 2019 के तराजू पर तौलें हमारे जैसे लोगों को कई बातें समझ में आती है।
बीजेपी-एनडीए की भारी जीत और कांग्रेस सहित विपक्षी दलों की करारी हार के बाद ये सच है कि माहौल में एक उदासी छाई है। लेकिन निराशा के कुछ कर्तव्य भी होते हैं और इस ऐतिहासिक मोड़ पर हमें अपने उसी कर्तव्य को याद रखना है।
डॉ लोहिया ने क़रीब 57 साल पहले अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था ....
"अंग्रेजों ने 4-5 बार अंदरूनी जालिम के खिलाफ बगावत की, रानी मेरी के खिलाफ बग़ावत की, चार्ल्स के खिलाफ़ बगावत की,
इसी भाषण में डॉ लोहिया ने एक उपन्यासकार के हवाले से कहा था...
''हिन्दुस्तान में क्रांति असंभव है, क्योंकि जिस देश में बिल्कुल बराबरी हो जाए या संपूर्ण ग़ैरबराबरी हो जाए तो वहां इन्क़लाब नहीं होगा। जिस देश में ग़ैरबराबरी की खाई गहरी हो जाए, दिमागों में घर कर ले, समाज का गठन भी हो जाए, प्रायः संपूर्ण ग़ैरबराबरी, तो वहां की जनता क्रांति के लिए बिल्कुल नाकाबिल हो जाती है।''
अब सवाल उठता है कि क्या लोकसभा चुनाव में किसी भी विपक्षी नेता या दल ने ग़ैर बराबरी का सवाल उठाया था। क्योंकि इस सवाल से टकराये बिना हिन्दुस्तान की सियासत में परिवर्तन की कहानी नहीं लिखी जा सकती है? एक और अहम सवाल है नवउदारवादी हमले का, इस सवाल को या तो छोड़ दिया गया या फिर इससे टकराना किसी भी नेता या दल ने मुनासिब नहीं समझा।
भारतीय राजनीति के इन दो सवालों का जवाब लिए बिना वैसे भी संप्रदायिकता खिलाफ धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को निर्णायक जीत नहीं मिल सकती है।
जिस वक्त डॉ लोहिया ने निराशा के कर्तव्य की बात की थी तब दुनिया भर में हथियारों की होड़ मची थी। राष्ट्रीय हित हथियारों की खरीद-बिक्री और निर्माण के हिसाब से तय हो रहे थे। लेकिन आज की तारीख में सीमा पर कम नीति और अर्थव्यवस्था पर हमला ज्यादा होता है। ज़ाहिर सी बात है नव उदारवाद की अकूत दौलत और संसाधन उसी के साथ रहते हैं जिनसे उनका हित ज्यादा सधते हैं, इस सवाल को छोड़ कर हार-जीत पर हो रही कोई भी बहस अधूरी ही मानी जाएगी। हबीब जालिब ने कहा था....
दीप जिसका मुहल्लात ही में जले
चंद लोगों की खुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।
लोकसभा चुनाव 2019 शायद हिन्दुस्तान में अब तक का पहला चुनाव था, जिसमें ना तो ग़रीबी, बेरोजगारी और भूखमरी की चर्चा हुई ना ही मजदूरों, किसानों और सिस्टम में हाशिए पर रखे समाज के बारे में कोई विजन बताया गया। वंचित तबके, महिलाओं, युवाओं और अल्पसंख्यकों के लिए भी किसी बेहतरी की बात किए बिना किसी राजनीतिक दल ने शानदार जीत दर्ज कर ली।
पूरा चुनाव हवा हवाई मुद्दों, बहुसंख्यक तुष्टिकरण, धार्मिक उन्माद, तथाकथित राष्ट्रवाद और इतिहास की ऊट-पटांग मान्यताओं पर लड़ा गया। साथ ही सत्ता पक्ष ने जिस निचले स्तर पर जाकर सरकारी मशीनरी और संसाधनों का इस्तेमाल किया उसे रोकने में विपक्ष असहाय नज़र आया। विपक्षी दल या तो सरकार द्वारा सेट किए छद्म मुद्दों के आगे पीछे घूमते नज़र आए या फिर कॉर्पोरेट हित साधने वाली मीडिया के शोर में उनके वाजिब मुद्दे दबा दिए गए। नतीजा देश की जनता इस वैचारिक प्रदूषण के जाल में उलझ कर रह गई।
अब जब नतीजे घोषित हो गए हैं, लोकसभा लगतार दूसरी बार बिना नेता विपक्ष के गठित हो रही है, तो हिन्दुस्तान में सभी प्रगतिशील नागरिकों को सचेत और संघर्ष के लिए तैयार रहने की जरूरत है। ये वक्ती निराशा का जो महौल बना है, उसे नए संकल्प और डॉ लोहिया के शब्दों में कहें तो निराशा के कर्तव्य के जरिए हम हटा सकते हैं। लोहिया के इस भाषण को बार-बार पढ़ने की दरकार है।
हुजूम देख के रस्ता नहीं बदलते हम
किसी के डर से तकाजा नहीं बदलते हम
-राजेश कुमार
(लेखक टीवी पत्रकार हैं।)