दुनिया के कई महान और क्रांतिकारी कवियों ने आत्महत्या की (Revolutionary poets commit suicide) है। कवियों की हत्या (Murders of poets) भी की गई है। पिछली सदी के अंतिम दशक में क्रांतिकारी कवि पाश की आतंकवादियों ने हत्या कर दी, तो एक और क्रांतिकारी कवि गोरख पांडेय ने आत्महत्या कर ली। हत्या हो या आत्महत्या, त्रासद होती है। क्या यह एक हत्यारे समय का ही सच है?
हत्या-दर-हत्या
हत्या की खबर फैली हुई है
अखबार पर,
पंजाब में हत्या
हत्या बिहार में
लंका में हत्या
लीबिया में हत्या
बीसवीं सदी हत्या से हो कर जा रही है
अपने अंत की ओर
इक्कीसवीं सदी
की सुबह
क्या होगा अखबार पर ?
खून के धब्बे
या कबूतर
क्या होगा
उन अगले सौ सालों की
शुरुआत पर
लिखा?
यह एक जलता हुआ सवाल छोड़ कर गोरख पांडेय चले गए।
इक्कीसवीं सदी की सुबह आने से पहले ही।
जब आतंकवादियों द्वारा पाश की हत्या कर दिए जाने की ख़बर आई थी, तो गोरख पांडेय काफ़ी विचलित हो उठे थे। इसी प्रकार, लखनऊ में बैडमिंटन के नेशनल चैम्पियन सैयद मोदी की हत्या की ख़बर आने के बाद भी वह बहुत दुखी और परेशान नज़र
समझौता और आत्मसमर्पण नहीं,
नहीं, नहीं तो जीने का प्रण नहीं।
भूलना नहीं होगा कि देश में वामपंथी आंदोलनों का जो इतिहास रहा है, वह समझौते और आत्मसमर्पण का ही रहा, जिसके खिलाफ़ नक्सलबाड़ी की जो आग़ भड़की, उसने बड़े पैमाने पर कवियों-लेखकों-कलाकारों, विचारकों, छात्रों-शिक्षकों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपनी तरफ़ खींचा। बंगाल से भड़की नक्सलबाड़ी वह आग़ जल्दी ही देश के कई हिस्सों में फैल गई। बिहार, आंध्र प्रदेश और कई अन्य राज्यों में किसान आंदोलनों का सिलसिला शुरू हो गया। बिहार में भोजपुर इसका केंद्र बना। वर्गशत्रु का अहसास तीखा और सघन हो गया। बाबा नागार्जुन ने उसी समय अपनी प्रसिद्ध ‘भोजपुर’ शीर्षक कविता लिखी थी –
यही धुआं मैं खोज रहा था
यही आग थी मुझे चाहिए
बारूदी छर्रे की खुशबू
आओ आओ इन नथुनों में इनको भर लूं
बाबा ने लिखा था – भगत सिंह ने यही-यहीं अवतार लिया है...
देश में क्रांतिकारी फिज़ा बन गई थी। इसने कविता और कला जगत पर ग़ज़ब का असर डाला। उस समय अराजक कविता का दौर था। पर इस नए आंदोलन से शुरू हुआ एक नया क्रांतिकारी दौर, जिसके सबसे सशक्त प्रतिनिधि बन कर उभरे गोरख पांडेय।
1984-85 में ज्ञानरंजन द्वारा प्रकाशित ‘पहल’ के किसी अंक में गोरख पांडेय की कविता देखने को मिली। ज्ञानरंजन पहल के हर अंक में कवर पेज के बाद एक कविता खास तौर पर प्रकाशित करते थे। यह कविता थी –
कविता युग की नब्ज़ धरो
अफ्रीका लातिन अमेरिका उत्पीड़ित हर अंग एशिया
आदमखोरों की निग़ाह में
खंज़र-सी उभरो।
यह गोरख पांडेय की कविता से प्रथम साक्षात्कार था। इसके पहले उनका नाम भी नहीं सुना था, जबकि उनका संग्रह ‘जागते रहो सोने वालो’ प्रकाशित हो चुका था और उसे ओमप्रकाश सम्मान भी मिल चुका था।
उस समय हिंदी कविता में युवा सितारे थे – अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश और दिविक रमेश। गोरख पांडेय का कोई नाम नहीं लेता था। सारे आलोचक इन्हीं कवियों को श्रेष्ठ और क्रांतिकारी बता रहे थे। इनके संग्रह लगातार छप रहे थे और पत्र-पत्रिकाओं में इन पर आलोचनात्मक लेख भी। उस दौरान प्रगितशील लेखक संघ का पुनर्गठन हुआ था। आलोक धन्वा जैसे कवि तो बहुत पहले से ही चर्चित हो चुके थे और प्रगतिशील लेखक संगठन में शामिल नहीं थे, पर आलोचकों का मुख्य जोर अरुण कमल पर था। पर गोरख पांडेय की ‘कविता युग की नब्ज़ धरो’ पढ़ते ही लगा कि कलेजे में सच का खंजर चुभ गया है। लगा कि यह तो अलग ही किस्म का कवि है। इसके तेवर अलग ही हैं। कविता का ये अंदाज़ अलग है, जो प्रगतिशील युवा कवियों के रूप में स्थापित हो रहे और पुरस्कारों से नवाज़े जा रहे कवियों से कहीं साम्य नहीं रखता। जल्दी ही गोरख पांडेय का कविता संग्रह ‘जागते रहो सोने वालो’ उपलब्ध किया। एक-एक कविता न जाने कितनी बार पढ़ डाली। और भोजपुरी में लिखे गीत। ये कविताएं उन कविताओं से पूरी तरह अलग थीं जो युवा प्रगतिशील कवि लिख रहे थे, पुरस्कारों-सम्मानों से नवाजे जा रहे थे और जिन्होंने अपने इर्द-गिर्द एक अच्छा-खासा प्रभामंडल कायम कर लिया था। प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलनों में इनका जलवा देखने लायक होता था। पर कविता में वही लिजलिजी भावुकता। वही निम्न मध्यवर्गीय संवेदना। वही शब्दों का खेल। गढ़े गए शब्द। खींच-खींच कर और सांचे में ढाले गए। तमाम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में इनकी ही कविताएं दिखाई पड़तीं।
आलोचकों ने क्या ख़ूब बांधे इनके प्रशंसा के पुल, पर गोरख पांडेय के बारे में कहीं पढ़ने को नहीं मिलता। शायद ही किसी आलोचक ने महत्वपूर्ण युवा कवि के तौर पर उस वक़्त उनके नाम का उल्लेख किया हो। इनमें तमाम मार्क्सवादी आलोचक आ जाते हैं। उस वक़्त तो कुछ मार्क्सवादी विद्वान और आलोचक एक ऐसे कवि को आगे बढ़ाने या कहें लॉन्च करने में कठिन परिश्रम कर रहे थे, जिन्होंने बाबा नागार्जुन पर ‘नागार्जुन की राजनीति’ नाम से एक बुकलेट प्रकाशित करा पर्याप्त नाम कमाया था, जिसमें नागार्जुन की इसलिए आलोचना या कहें निंदा की गई थी कि वे सीपीआई की नीतियों का समर्थन क्यों नहीं करते और सोवियत संघ की यात्रा से लौटने के बाद वहां की व्यवस्था के ख़िलाफ़ टिप्पणी क्यों की।
बाबा पर यह कह कर कीचड़ उछालने की कोशिश की गई थी कि उन्होंने इमरजेंसी के विरोध में पटना की सड़कों पर कविता पाठ किया था और जेल भी गए थे। पटना की सड़कों पर इमरजेंसी के विरोध में फणीश्वरनाथ रेणु और आलोक धन्वा भी उतरे थे। बहरहाल, प्रगतिशील लेखक संघ के बाद जनवादी लेखक संघ का भी गठन हुआ, क्योंकि प्रगतिशील लेखक संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन था, महासचिव, अध्यक्ष एवं हर स्तर के पदाधिकारी वही हो सकते थे, जो सीपीआई के कार्ड होल्डर हों। फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने अपने सदस्य लेखकों का जनवादी लेखक संगठन बनाया।
इस तरह साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई बन गई, जबकि सन् 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के पीछे नहीं, बल्कि उसके आगे-आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
जो भी हो, गोरख पांडेय की चर्चा कोई नहीं करता था। उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं शायद ही देखने को मिलती थीं। न ही किसी साहित्यिक गोष्ठी, कार्यक्रम, सम्मेलन में उनके बारे में कुछ सुनने को मिला।
ज़ाहिर है, साहित्यिक समाज में गोरख पांडेय घोर उपेक्षा के शिकार थे। आख़िर क्यों? दरअसल, हिंदी साहित्य परंपरा में जनकवियों की उपेक्षा कोई नई बात नहीं है। इसका इतिहास रहा है। हिंदी में दरबारी परंपरा के कवियों को ही नाम और नामा मिलता रहा है।
भारत में वामपंथी राजनीति हमेशा से कांग्रेस की पिछलग्गू रही और सत्ता प्रतिष्ठानों से इसका गहरा नाता रहा। आगे चल कर कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने वाम मोर्चा बना कर पश्चिम बंगाल और केरल में सत्ता हासिल की। वहां उनकी नीतियां कितनी जनसमर्थक रहीं, सभी जानते हैं। पश्चिम बंगाल के वाम मोर्चा शासन के ख़िलाफ़ ही नक्सलबाड़ी का किसान आंदोलन चारु मजुमदार के नेतृत्व में सामने आया, जो तीसरी धारा के नाम से मशहूर हुआ।
बनारस में अध्ययन करने के दौरान गोरख पांडेय नक्सलवाद की इसी विचारधारा से जुड़े और किसान आंदोलनों के गहरे संपर्क में आए। इसने उनकी रचनाशीलता की धारा को बदल दिया। आंदोलनों और ज़मीन से जुड़े होने के कारण ही गोरख पांडेय की कविता की अंतर्वस्तु और रूप में भिन्नता दिखाई पड़ती है। और चूंकि वे कभी सत्ता प्रतिष्ठानों से नहीं जुड़े और न ही उनमें आत्मप्रचार-प्रदर्शन की मध्यमवर्गीय प्रवृत्ति थी, इसलिए घनघोर उपेक्षा के शिकार हुए।
आज भी साहित्याचार्यों की नज़र में गोरख पांडेय का मोल शायद ही कुछ हो, वैसे जहां भाषणों की बात है तो स्वनामधन्य आलोचकों ने उन्हें भारत का लोर्का तक कहा। उनकी आत्महत्या को भी गौरवान्वित करने की कोशिश की गई। दरअसल, गोरख पांडेय हिंदी के कोई पहले कवि नहीं हैं, जिनकी इतनी उपेक्षा हुई हो।
जितने भी जनकवि हुए, नागार्जुन से लेकर त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल तक, शुरू में जबरदस्त उपेक्षा के शिकार रहे। स्वयं साहबी संस्कृति में डूबे प्रगतिशीलों ने ही उनकी उपेक्षा की। पर जनता के लिए, मेहनतकश अवाम के लिए लिखने वाले संघर्षधर्मी ये कवि अपनी उपेक्षा से कतई विचलित नहीं हुए। त्रिलोचन ने तो इन पर कटाक्ष करते हुए यहां तक लिखा था – ‘प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है, देखा त्रिलोचन का कहीं नाम नहीं था।’ इसी प्रकार शलभ श्रीराम सिंह और अदम गोंडवी जैसे कवि हैं, जो जनता के बीच काफी लोकप्रिय हुए, पर हिंदी के प्रगतिशील-जनवादी यानी मार्क्सवादी आलोचकों ने इन्हें तरजीह नहीं दी।
गोरख पांडेय की कविता वास्तव में लोक कविता है, इसलिए उन्हें आलोचकों की प्रशंसात्मक टिप्पणियों-लेखों की कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी। उनकी कविता स्वयं अपनी ताकत के दम पर पाठकों के बीच अपना स्थान बना रही थी। खासकर भोजपुरी में लिखे गए उनके गीत तो जन आंदोलनों के दौरान खूब गाए जाते थे, उसी तरह जैसे शलभ श्रीराम सिंह की नज़्म – नफ़स-नफ़स कद़म-कद़म की पंक्तियां – घिरे हैं हम सवालों से हमें जवाब चाहिए
लेकिन इसे वामपंथी साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन की विडंबना ही कहेंगे कि सीपीआई के प्रगतिशील लेखक संघ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जनवादी लेखक संघ के तर्ज पर इंडियन पीपुल्स फ्रंट ने जन संस्कृति मंच का गठन किया और गोरख पांडेय को इसका महासचिव बना दिया गया। उस समय भूमिगत मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन ने इस फ्रंट को चुनावी राजनीति में खुली भागीदारी करने के लिए बनाया था। दरअसल, पार्टी लाइन पर लेखक संगठनों का गठन ही एक ग़लत विचार था, पर उस दौर में यही विचार हावी था। इससे जो नुकसान हुआ, वह उस समय लोगों को समझ में नहीं आया और अब तो ये संगठन भी बस नाम भर के ही रह गए हैं। इनकी अब कहीं कोई मौजूदगी नज़र नहीं आती। वैचारिक संकीर्णता ने इनका एक तरह से लोप ही कर दिया। लेकिन ऐसा लगता है कि गोरख पांडेय समान विचार और उद्देश्य वाले लेखकों का इस तरह से अलग-अलग संगठन बनाए जाने को दिल से स्वीकार नहीं कर पाए थे, जैसे नागार्जुन, त्रिलोचन और कुछ अन्य साहित्यकार। यही कारण है कि वह हर संगठन और गुट के लेखकों से खुल कर मिलने और संवाद कायम करने में यक़ीन रखते थे, जिसके लिए उन्हें पीपुल्स फ्रंट के कुछ नेताओं की नाराज़गी भी झेलनी पड़ी थी। पर गोरख पांडेय ने प्रलेस और जसम के साथी लेखकों से मिलना और संवाद कायम करना बंद नहीं किया।
गोरख पांडेय बहुत ही खुले दिल और विचारों के व्यक्ति थे। वैचारिक संकीर्णता से कोसों दूर। उनमें यह क्षमता थी कि वह व्यक्ति के मन को समझ लेते थे, जो संभवत: उनकी सच्ची प्रतिबद्धता से पैदा हुई थी। असली-नकली और करियरवादी वामपंथियों को समझ लेना उनके लिए कठिन नहीं था। पर यह भी एक सच्चाई थी कि गोरख पांडेय जिस स्तर पर किसी व्यक्ति से जुड़ जाते थे, वह व्यक्ति उनसे उस स्तर पर नहीं जुड़ पाता था। गोरख पांडेय एक सच्चे मार्क्सवादी विचारक और लेखक इसलिए थे कि वह वास्तव में मनुष्य की समानता में यक़ीन करते थे। उनके लिए हर मनुष्य बराबर था। वह पद, पैसे और अधिकार के कारण किसी को बड़ा-छोटा नहीं मानते थे। यह उनका मूल स्वभाव था, जो दुर्लभ ही कहा जा सकता है।
1986 में दिल्ली जाने पर एक दोस्त के मार्फ़त गोरख पांडेय से मिलना हुआ। गोरख पांडेय जेएनयू ओल्ड कैंपस की लाइब्रेरी में सुबह ही चले जाते थे और देर शाम तक वहां पढ़ते थे। बीच-बीच में चाय-सिगरेट पीने बाहर निकला करते थे। ओल्ड कैंपस स्थित होस्टल में रहते थे। लाइब्रेरी के बाहर ही उनसे मुलाकात हुई और फिर तो लगभग रोज ही मिलने का सिलसिला चल पड़ा। पहली मुलाकात में ही उन्होंने मुझसे कविता सुनाने को कहा। एक कविता सुनाई जो आत्महत्या पर थी। उन्होंने कहा कि कविता अच्छी है, पर कुछ झाड़पोंछ की ज़रूरत है। मुझे याद आया कि बाबा नागार्जुन भी कविता की झाड़पोंछ करनी बाकी है, जैसी बात कहा करते थे। गोरख पांडेय ने अपनी भी कविताएं सुनाई। वह ज़्यादातर भोजपुरी के गीत सुनाया करते थे। जेएनयू ओल्ड कैंपस स्थित कैफेटेरिया में जहां अभिजात वर्गीय स्टूडेंट्स की भरमार होती थी, कुर्ता-धोती पहने गोरख पांडेय जब ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो अजदिया हमरा के भावे ले’ गाने लगते थे, तो समां ही बंध जाता था। वह अभिजात के छल-छद्म और अहंकार को कहीं भी तोड़ देते थे। जेएनयू के न्यू कैंपस में केदारनाथ सिंह का आवास था। वहां अक्सर कविता गोष्ठी होती थी, जिसमें गोरख पांडेय शामिल होते थे। होस्टल के उनके कमरे पर भी साथियों का जमावड़ा होता था। वहां वह स्वयं बोलते तो कम थे, पर दूसरे लोगों को सुना करते थे।
एक बार वह ब्रेख़्त की कविताओं की चर्चा कर रहे थे। उसी क्रम में उन्होंने बताया, “वीणा भाटिया ने उनके साथ ब्रेख़्त की 20 कविताओं का अनुवाद किया, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण कविता थी ‘वेश्या ऐलविन रो‘। ये कविताएं गोष्ठियों में सुनी-सुनाई गईं, पर कभी प्रकाशित नहीं हुईं।“ वीणा भाटिया साहित्य चयन संस्था का संचालन करती हैं। गोरख पांडेय से नियमित अंतरालों पर मिलने वालों में वह भी थीं। वह साहित्य के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से दिल्ली में 35, फिरोजशाह स्थित भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद् के कैंपस में किताबों की एक स्टाल लगाती थीं। गोरख पांडेय से जुड़ी बहुत-सी स्मृतियां उन्होंने सहेज रखी हैं।