Hastakshep.com-Opinion-history making-history-making-Kashmiri-kashmiri-lockdown-lockdown-undeclared civilian curfew-undeclared-civilian-curfew-Valley of Kashmir-valley-of-kashmir-अघोषित नागरिक कर्प्यू-aghossit-naagrik-krpyuu-इतिहास निर्माण-itihaas-nirmaann-कश्मीर की घाटी-kshmiir-kii-ghaattii-कश्मीरी-kshmiirii-लॉकडॉउन-lonkddonun

मोदीजी, यही अगर एकीकरण है तो विभाजन क्या होगा ? पटेल की जयंती पर देश के बंटवारे का दृश्य !

सरदार पटेल के नाम पर झूठ बोलने से मोदीजी को कौन रोक सकता है

मोदी सरकार ने बहत्तर साल के इतिहास को पलट कर, आखिरकार एक नया इतिहास रच दिया। सरदार पटेल के 144वें जन्म दिन पर, उस जम्मू-कश्मीर के टुकड़े कर दिए और उसका राज्य का दर्जा छीन लिया, जिसे भारतीय संघ के अन्य राज्यों से भी ज्यादा स्वायत्तता देने के पवित्र वादे के साथ, भारतीय संघ में शामिल किया गया था।

अक्टूबर की आखिरी तारीख को, लद्दाख तथा जम्मू-कश्मीर के नये उप-राज्यपाल के पद पर क्रमश: आर के माथुर तथा गिरीश चंद्र मुर्मू को, जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश, गीता मित्तल द्वारा शपथ दिलाए जाने के साथ, भारतीय संघ ने औपचारिक रूप से जम्मू-कश्मीर से किए गए उक्त पवित्र वादे से मुकरने का एलान कर दिया।

अचरज की बात नहीं है कि खुद जम्मू-कश्मीर में जिस तरह से इसका औपचारिक एलान हुआ है, उसने बहत्तर साल पहले हुए देश के विभाजन की याद दिला दी। न्यायमूर्ति गीता मित्तल ने पहले लेह में, चंडीगढऩुमा केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के उप-राज्यपाल को उनके पद की शपथ दिलायी और बाद में श्रीनगर पहुंचकर उन्होंने पुदुचेरीनुमा केंद्र शासित प्रदेश, जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल को पद की शपथ दिलायी।

बस लॉर्ड माउंटबेटन की तरह, विभाजन से बनी दो इकाइयों के शासन प्रमुखों को एक दिन आगे-पीछे शपथ दिलाये जाने की जरूरत थी, देश के बंटवारे का दृश्य पूरा हो जाता।

लेकिन, अगर वाकई इसे इतिहास निर्माण कहा जा सकता है, तो यह इतिहास निर्माण एक माने में बहत्तर साल पहले अंगरेजी राज के हाथों कराए हुए इतिहास निर्माण से भी ज्यादा निरंकुश तरीके से हुआ।

बेशक, 1947 के विभाजन में जनता की और खासतौर पर इस विभाजन से सीधे-सीधे प्रभावित होने वाले राज्यों

की जनता की, शायद ही कोई राय शामिल थी। लेकिन, बहत्तर साल बाद अब हो रहे इतिहास निर्माण में, जम्मू-कश्मीर की जनता की राय से ‘‘मुक्ति’’ को मुकम्मल ही बना दिया गया। सारे फैसले दिल्ली ने ही लिए और इनमें सबसे बढक़र इसका फैसला शामिल है कि विभाजन के बाद बने दो केंद्र-शसित प्रदेशों में तमाम महत्वपूर्ण फैसले, अब केंद्र सरकार ही लेगी।

भविष्य के लिए इस संकेत में अगर किसी को अब भी संदेह हो तो वह, एक ओर चंडीगढ़ और दूसरी ओर पुदुचेरी/ दिल्ली के मोदी राज के अनुभव को याद कर ले, जिनके मॉडल पर क्रमश: लद्दाख और जम्मू-कश्मीर केेंद्र-शासित होंगे। अचरज की बात नहीं है कि दिल्ली के ही निर्देश पर, जहां शेष सारे देश में इस ‘‘इतिहास निर्माण’’ का उत्सव, सुरक्षा बलों पर केंद्रित बहुत ही तडक़-भडक़ भरे आयोजनों के साथ, ‘‘राष्ट्रीय एकता दिवस’’ के रूप में मनाया गया, वहीं खुद लद्दाख तथा जम्मू-कश्मीर में उप-राज्यपालों का शपथ ग्रहण तक बिना जरा भी शोर-शराबे के निपटाया गया। शोर-शराबे से लोगों के भड़कने का डर जो था।

The Valley of Kashmir has boycotted this "history making" through complete lockdown and bandh.

कश्मीर की घाटी ने तो खैर मुकम्मल लॉकडॉउन तथा बंद के जरिए, इस ‘‘इतिहास निर्माण’’ का एक तरह से बॉयकाट किया ही, जिसे अनेक जानकारों ने एक प्रकार के जन नागरिक अवज्ञा आंदोलन का नाम देना शुरू कर दिया है।

इसके अलावा लद्दाख में इसे लेकर लोगों के मन में आशंकाएं ही ज्यादा थीं, उम्मीदें कम।

वास्तव में मुस्लिम बहुल कारगिल ने तो इसके खिलाफ जोरदार तरीके से अपना विरोध भी दर्ज कराया।

सच तो यह है कि आरएसएस-भाजपा द्वारा संचालित इस कथित ‘‘इतिहास-निर्माण’’ ने, एक काम जरूर किया है कि उसने हिंदू बहुल जम्मू को मुस्लिम बहुल कश्मीर के खिलाफ और बौद्घ बहुल लेह-लद्दाख को मुस्लिम बहुल कारगिल के खिलाफ ऐसे खड़ा कर दिया है, जैसे आतंकवादियों की सारी कोशिशों के बावजूद, इससे पहले कभी नहीं हुए थे।

इस बंटवारे की गहराई को समझने के लिए, सिर्फ एक उदाहरण काफी होगा।

श्रीनगर में नव-नियुक्त उप-राज्यपाल के शपथ ग्रहण समारोह में, जम्मू के चैंबर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष, राकेश गुप्ता तो शरीक हुए, लेकिन उनके कश्मीर के समकक्ष, शेख आशिक को आमंत्रित ही नहीं किया। शेख आशिक का कहना था: ‘‘एक कश्मीरी के नाते और केसीसीआइ के अध्यक्ष के नाते, मैं सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं कि, उनका कहना है कि आज इतिहास रचा जा रहा है...लेकिन, यहां जमीनी सतह पर पूरी तरह से शटडॉउन है। दुकानें बंद हैं। सडक़ों कोई आवाजाही नहीं है। उनके फैसले पर हर कश्मीरी की यही प्रतिक्रिया है...मुझे लगता है कि सभी मायूस हैं।’’

Undeclared civilian curfew.

याद रहे कि जिस रोज ‘‘राष्ट्रीय एकता दिवस’’ के नाम से शेष देश भर में सरकारी तौर पर सरदार पटेल का जन्म दिन मनाया जा रहा था, वह कश्मीर में करीब-करीब मुकम्मल लॉकडॉउन का 88वां दिन था। इस लॉकडाउन की शुरूआत 5 अगस्त को संसद में जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बांटने और दोनों टुकड़ों को राज्य के दर्जे से वंचित करने के मोदी सरकार का प्रस्ताव का अनुमोदन होने की पूर्व-संध्या में ही हो गयी थी। बेशक, इस लॉकडाउन में इन तीन महीनों में पहले लैंडलाइन फोन व आगे चलकर काफी हद तक पोस्टपेड सैल फोन सेवाएं बहाल करने जैसी मामूली ढील भी दी गयी है। इसी प्रकार, घाटी के सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं को कैद में या नजरबंदी में रखते हुए भी, माफीनामे लिखवाने के साथ मध्यम स्तर के कुछ कार्यकर्ताओं की रिहाई भी शुरू की गयी है। इसके बावजूद, सरकार के ‘‘सब कुछ सामान्य है’’ के दावों के विपरीत, घाटी में कुछ भी सामान्य नहीं हुआ है। उल्टे, कश्मीरियों ने जैसे खुद ही अपने आप को दरवाजों के पीछे बंद कर लिया है। यहां तक कि सरकार के स्कूल खुलवाने के सारे दबाव और परीक्षाएं कराने जैसी तिकड़मों के बावजूद, स्कूलों में बच्चे नहीं पहुंच रहे हैं।

इसी प्रकार, एक प्रकार के अघोषित नागरिक कर्प्यू के तहत, बाजार कमोबेश बंद हैं और सडक़ों पर लोग इक्का-दुक्का ही लोग निकलते हैं। पर्यटकों के लिए कश्मीर के खोले जाने के बावजूद, पर्यटन पूरी तरह से ठप्प है और ऐसा ही किस्सा सेब की फसल की मंडी में आवक का है। जिंदा रहने की जरूरतों की अपरिहार्यताओं के चलते, इस लॉकडाउन में अगर इस लंबे अर्से में थोड़ी ढील आयी भी थी, जैसे जरूरत की चीजों की दूकानों का सुबह एकाध घंटे के लिए खुलना भी शुरू हुआ था, तो उसे भी दो दर्जन छंटे-छंटाए दक्षिणपंथी, इस्लामविरोधी योरपीय सांसदों के कश्मीर दौरे की मोदी सरकार की जन-संपर्क कसरत ने पीछे धकेल दिया।

इस तिकड़म के सामने, कश्मीरियों ने खुद को और भी बंद कर लिया और ठीक इसी मुकम्मल बंद से उन्होंने जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश बनने का स्वागत किया!

अचरज की बात नहीं है कि मोदी सरकार द्वारा संदिग्ध बिचौलियों के जरिए आयोजित इस प्रचार स्टंट के फल के रूप में आयोजित नियंत्रित संवाददाता संवाद में ये योरपीय सांसद भी, कम से कम घाटी में हालात सामान्य होने का दावा नहीं कर पाए और उन्हें आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए मोदी सरकार के लिए समर्थन जताने तक ही खुद को सीमित रखना पड़ा।

याद रहे कि औपचारिक रूप से जम्मू-कश्मीर राज्य के खात्मे की ऐन पूर्व-संध्या में इस प्रचार तमाशे के लिए भारत लाए गए सत्ताईस योरपीय सांसदों में से भी, चार कश्मीर जाकर हालात का जायजा लेने के स्वांग में हिस्सा लिए बिना ही वापस लौट गए, जबकि घोर दक्षिणपंथी 23 सांसदों ने ही कश्मीर के दौरे का नाटक पूरा किया।

बेशक, यह तमाम सचाई भी नरेंद्र मोदी को इसका दावा करने से रोक नहीं पायी है कि उनकी सरकार, जम्मू-कश्मीर के लिए ‘‘नयी सुबह’’ ले आयी है।

जिस कदम के लिए एक समूचे राज्य को महीनों के लिए कैद करना पड़ा हो और कोई नहीं जानता कि यह स्थिति कब तक चलेगी, उसे उन्होंने एक बार फिर संबंधित राज्य की ‘‘आजादी’’ बताया है। फिर भी सरदार पटेल के जन्म दिन पर, राष्ट्रीय एकता दिवस के पालन के हिस्से के तौर पर, जिस तरह जम्मू-कश्मीर की जनता से किए गए पवित्र वादे को तोड़ने का औपचारिक एलान किया गया है, वह प्रचार के जरिए झूठ को सच बनाने की गोयबल्सीय तिकड़म पर मोदी सरकार के विश्वास को ही दिखाता है।

हद तो यह है कि प्रधानमंत्री को सरदार पटेल की प्रतिमा पर आयोजित कार्यक्रम में, यह सरासर झूठ बोलने में भी हिचक नहीं हुई कि सरदार पटेल ने एक बार कहा था कि अगर कश्मीर का मामला उनके हाथ में होता तो उन्होंने फौरन निपटा दिया होता!

जो नेतृत्व धारा-370 के खत्म किए जाने को, वास्तव में इस धारा सूत्रधार सरदार पटेल का सपना पूरा करना बता सकता हो, उसे सरदार पटेल के नाम पर झूठ बोलने से कौन रोक सकता है। लेकिन, आरएसएस के विपरीत, आजादी की लड़ाई के बीच से राष्ट्रीय एकता का निर्माण करने वाली धारा के अग्रणी नेताओं में रहे सरदार पटेल, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र की सुरक्षा के अंतर को भली-भांति पहचानते थे। इसीलिए, उन्हें राष्ट्रीय एकता के लिए, जम्मू-कश्मीर की जनता को भारतीय संघ में अधिकतम स्वायत्तता आश्वासन देना जरूरी भी लगा और उपयोगी भी। मोदी सरकार उनके नाम पर चाहे सबसे ऊंची प्रतिमा बनवा दे, पर उनसे ठीक उल्टे रास्ते पर चल रही है।

आरएसएस पर पाबंदी लगाने और उसके हिंदू राष्ट्र के नारे को पागलपन तथा विनाशकारी कहने वाले पटेल अच्छी तरह समझते थे कि यह रास्ता, राष्ट्र की सुरक्षा की अपनी सारी दुहाई के बावजूद, राष्ट्र के एकीकरण का नहीं विभाजन का ही रास्ता है।

0 राजेंद्र शर्मा

 

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