"हिन्दू" क्या है ?
सब से पहले ये ग़लतफ़हमी दूर होनी चाहिए कि जब भी ईरान (पारस / फारस / पर्शिया) की बात चले तो इसका सबंध इस्लाम से आपने आप नहीं जुड़ता, जो अक्सर दक्षिण-एशिया के लोग जोड़ते हैं। ईरान की सभ्यता और भाषा भी वैसे ही हज़ारों साल पुरानी है जैसे और दूसरी प्राचीन सभ्यताएं, जिस वक्त इस्लाम तो क्या मुहम्मद भी पैदा नहीं हुए थे। सातवीं सदी ईस्वी में अरबों ने हमला करके ईरान का स्वदेशी सासानी साम्राज्य बर्बाद कर दिया और ईरान धीरे-धीरे इस्लामी होता गया। लेकिन ईरान का अपना धर्म इस्लामी नहीं बल्कि एक तरह का "वैदिक" विचारधारा का हिस्सा था जिसमें अग्नि पूजन का विशेष महत्व था। इसे ज़ोरोअष्टावाद कहते हैं जो उनके एक संत के नाम से चला। इसी इस्लामी हमलों की वजह से ज़ोरोाश्ट्र धर्म के लोग जो किसी भी हालत में अरबों का धर्म ज़बरदस्ती ग्रहण नहीं करना चाहते थो, वो भाग कर भारत के गुजरात राज्य में शरणार्थी बन कर आ गए। गुजरात के स्थानीय राजा ने उन्हें शरण दे दी और वो तब से भारत में फल फूल रहे हैं। इन्हें आज हम "पारसी" कहते हैं।
जमशेद जी टाटा, फिरोज गांधी ( राहुल गाँधी के दादा ) स्मृति ईरानी, ज़ुबिन मेहता, सोहराब मोदी, जनरल माणिक शाह जैसे लोग उन्हीं पारसिओं की औलाद हैं।
इस से ये भी समझ आ जाना चाहिए कि ‘फ़िरोज़’ और ‘जमशेद’ जैसे नाम ईरानी मूल के हैं न कि इस्लामी, और ये भी कि राहुल गाँधी का पुश्तैनी धर्म क्या था !
अब आइए ‘ईरान’ शब्द की ओर - इस शब्द का आधार वहीं शब्द है जो संस्कृत में "आर्य" है। ईरान का अर्थ है ‘आर्य जाति का देश’।
आपने सुना होगा अफ़ग़ानिस्तान की हवाई सेवा का नाम था / है - "आर्याना एयरलाइंज़"। इस में ये 'आर्याना' कहाँ से
ये जान लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि जिस तरह ईरान का अरब सभ्यता से वास्ता नहीं उसी तरह फ़ारसी भाषा का भी अरबी भाषा से कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन फ़ारसी से संस्कृत का नाता बहुत गहरा है। जिस तरह से आज पूरे उत्तर भारत की भाषाएँ (हिंदुस्तानी/ पंजाबी/ राजस्थानी/ गुजराती/ सिंधी/ मराठी/ बंगाली) संस्कृत से प्रभावित हैं बल्कि संस्कृत की औलाद ही हैं उसी तरह से फ़ारसी भाषा की जननी है - आवेस्तां।
ये आवेस्तां भाषा ही संस्कृत की सगी बहन मानी जाती है। भाषा विज्ञानी तो कई बार वेदों की भाषा को समझने के लिए आवेस्तां का सहारा लेते हैं।
अब आप को फ़ारसी और उत्तर भर्ती भाषाओँ का सम्बंध समझ में आ गया होगा। इसलिए शब्दकोश उठा कर देखिए हज़ारों शब्द मिलेंगे जो संस्कृत और फ़ारसी में एक जैसे हैं या मामूली उच्चारण का अंतर। जैसे ‘हिंदुस्तान’ और ‘पाकिस्तान’ में "-स्तान" और राजस्थान में “स्थान” को ही लीजिये - संस्कृत में ‘स्थान’ है तो फ़ारसी में स्तान, अर्थ वहीं है - जगह !
अवेस्तां और संस्कृत से प्रभावित भाषाओं में 'स' और 'ह' की आवाज़ अक्सर आपस में बदलती रही है। ये बोलने वालों के उच्चारण की आदतों से हुआ है। जैसे हिंदी में "वह/ वो" शब्द है तो इस के लिए पंजाबी में "उह" पर जब हम इस के साथ का/के/ की आदि लगाएं तो 'उह' को 'उस' कर देते हैं। जैसे- उस का घर/ उस की कमीज़ अदि।
इसी तरह से एक बहुचर्चित शब्द है "असुर" जिसे मूल भारतियों के लिए बहुत ही नकारात्मक रूप में पेश किया जाता है और "देवासुरसंग्राम" जैसी मिथ्या में इस का ज़िक्र किया गया है - लेकिन बहुत सरे विद्वानों का मानना है कि ये शब्द असल में ‘अहुर’ है जैसे ज़ोरोआशट्र धर्म के संत "अहुर माज़दा"। यहाँ भी वहीं 'स' और 'ह' की आवाज़ का आंतरिक तबादला हुआ है।
ऐसे ही और बहुत से उद्धरण हैं जहाँ स को ह से और ह को स से बदल दिए गया है।
एक और उदाहरण लीजिये जिसे आप अक्सर प्रयोग करने पर भी कभी ख्याल नहीं करते - 'हफ्ताह' और 'सप्ताह'- संस्कृत का सप्ताह है तो फ़ारसी का हफ्ताह ! पंजाबी में फ़ारसी का हफ्ताह ही बोला जाता है !
संस्कृत का शब्द है – ‘सिंधु’ जिसका सीधा सा अर्थ है: जलराशि - दरया, नदी, समंदर, महासागर आदि। इसी लिए उत्तरी पश्चिम भारतीय उपमहाद्वीप में बहती आलीशान नदी को यहीं नाम मिला – ‘सिंधु’ जिसे सिंध भी कहा जाने लगा और जो आज भी इसी नाम से बहती है। जिस समय गौर जाती (श्वेत चमड़ी वाले) और संस्कृत बोलने वाले ‘हिन्द-ईरानी’(Indo-Iranian) कबीलों ने कोई 2500-2000 साल इ. पु. भारत में प्रवेश किया तो यहीं आलीशान दरया उनके सामने था जिसे पार करके वो भारत में बसना शुरू हुए। पर इन आर्यों का भारत में आना और बस जाने में कई सदियों का समय है - ये अचानक नहीं हुआ। पर इस नदी का नामकरण संस्कृत में हो चूका था, इस से पहले स्थानीय लोग इसे क्या कहते होंगे - कुछ पता नहीं क्योंकि उनकी लिप्पी / भाषा को पढ़ा नहीं जा सका है। किसी भी भूगोलिक स्थान का उसके प्राकृतिक लक्षण से ही उसका नामकरण हो जाना कोई नई बात नहीं है। राजस्थान में मरुस्थल का नाम थार/ थर इस लिए है कि स्थानीय भाषा में मरुस्थल को थार ही कहते हैं, जो बालू के लिए शब्द ‘थल’ से बना है। इसी तरह अरबी में मरुस्थल को सहारा कहते हैं तो पूरी दुनिआ में अब उत्तरी अफ्रीका का मरुस्थल इसी नाम से जाना जाता है।
ईरान में बसने वाले पारसी कबीले इन्हीं ‘भारतीय’ कबीलों के भाई-बंद थे पर कई सदियों के अंतराल के कारण उनकी भाषा (फ़ारसी) ने स्वतंत्र रूप ले लिया था। इसी तरह उनके उच्चारण में भी फर्क आया जिस की हम बात कर चुके हैं - स को ह कहना। तो इन्हीं लोगों ने सब से पहले सिंध को हिन्द/ हेंद कहा ! ये शब्द इन पारसियों ने "सिंध दरया वाला" देश के लिए प्रयोग किया और वो लोग जो सिंध नदी के पार रहते थे उनके लिए "हिन्दू" !
एक खोज के मुताबिक हिन्दू शब्द का सब से पहला प्रयोग पारसी राजा डारियस ने 600 ईस्वी पूर्व में भारत/ सिंध क्षेत्र में बसने वाले लोगों के लिए किया। उसके बाद भी यहीं शब्द यूनानी हमलावरों और यात्रियों ने प्रयोग किया लेकिन यूनानीयों ने अपने उच्चारण के मुताबिक इसे 'हिन्द' से 'इंद' कर दिया।
प्राचीन यूरोप में लातीनी के माध्यम से देशों के नाम हमेशा "इया" से समाप्त होते हैं - जैसे बर्तानिया, (Britain) इतालिया, (Italy) गरमानिया (Germany), रोमानिया (Romania) , इस्पानिया (Spain) आदि तो इसी तरह से भारत का नाम भी पहली बार इंदिया (India) हो गया और फिर यूरोप से आने वाले सभी हलमावरों/ यात्रयों (पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों, अंग्रेज़ों) ने इसे इसी नाम से जाना।
ईरान में इस्लाम नाफ़िस होने बाद सांस्कृतिक स्तर पर जो बड़ी तबदीली आई - वो था फ़ारसी भाषा के लिए अरबी लिपि का चयन। पुरानी फ़ारसी की अपनी लिपि थी जैसे भारत में ब्रह्मी लिपि पर आधारित स्वेदशी लिपियाँ बनी हैं, जो खरोशती जैसी स्थानीय लिपि से विकसित हुई मानी जाती है। यहीं से फ़ारसी का उत्तरी भारत की भाषाओँ से रिश्ते में दरार आ गई क्योंकि दोनों तरफ जो लिखा जा रहा था उसे पढ़ने वाले न रहे !
यूरोपीय विदेशियों के आने से पहले भारत में पड़ोस से ही इस्लामी ईरान के इलावा भी लगातार ऐसे हमलावर आते रहे जो मुसलमान थे मगर फ़ारसी नहीं बल्कि तुर्की और अरबी बोलने वाले थे पर ये भी फ़ारसी भाषा से बहुत प्रभावित हो चुके थे। अरबों ने भी दक्षिण एशिया को "हिन्द" ही कहा और यहां रहने वाले वाले लोगों को "हिंदी" - उनका मज़हब जो भी हो।
भारत में खालिस फ़ारसी भाषा बोलने वाले शासकों की शुरुआत - सम्राट अकबर महान से ही हुई। मुग़लों का यही वो समय है जब पहली बार वहीं 'हिन्दू' शब्द जो महज़ एक भूगोलिक स्थान का नाम था - एक धर्म के साथ जुड़ना शुरू हुआ। उसके बाद अंग्रेज़ों ने ‘हिंदू’ शब्द को जान-बूझ कर मुसलमान और गैर-मुस्लिम के बीच खाई गहरी करने के लिए 'ब्राह्मणवाद / वैदिक धर्म' के रूप में ऐसा इस्तेमाल किया कि आज भारत की अनजान जनता इस नाम को अपनी धार्मिक पहचान मानती है। अँगरेज़ ने वैसे भी ये शब्द इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के विभिन धर्मों की खोज करने की बजाए अपनी सुविधा के लिए "हिन्दू" शब्द को एक छतरी-शब्द के रूप में इस्तेमाल किया - वो इस पचड़े में नहीं पड़े कि कौन शैव है और कौन वैष्णव और कौन देवी भगत, कौन मुरुगन भगत, आदि-आदि; यहां तक के मूल भारतीय अदि-वासियों और ब्रह्मण धर्म में दुत्कारे गए शूद्रों तक को उसी एक ‘हिन्दू’ छत के नीचे ढंक दिया जिस में वैदिक आर्य धर्म को मानने वाले सनातनी थे !
कुछ भी हो ये तो साबित होता है कि जो लोग अपना धर्म हिन्दू बताते हैं - उन्हें मालूम ही नहीं उनके धर्म का नामकरण विदेशियों ने किया ! लेकिन इस से जहां ये फ़ायदा हुआ कि देश एक सूत्र में बंध गया, वहां नुकसान ये कि बाहर से आया ब्राह्मण धर्म पूरे देश की सांस्कृतिक विविधता को निगल गया ! और भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था के नाम पर चमड़ी रंग पर आधारित विकसित हुए जातिवाद को और बढ़ावा मिला जो और घिनौना होता जा रहा है।
अब विडंबना देखिये - हिंदुस्तान को जिस नदी ने नाम दिया वो अब हिंदुस्तान में नहीं बहती और भारत का वो टुकड़ा जो हिन्दू शब्द से नफरत करता है उसी सिंधु नदी पर बसता है जिस से "हिंदू" नाम पड़ा !
(कंवल धालीवाल, लेखक लंदन स्थित भारतीय मूल के चित्रकार हैं। उन्होंने अस्सी के दशक के मध्य में चंडीगढ़ कॉलेज ऑफ आर्ट से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।)
दिसंबर 2017
(लम्बे लेख " नस्लवाद- खालिस हिंदुस्तानी विरासत" में से )