प्रेम और कामुकता व्यक्ति ही नहीं सामाजिक सत्य भी है. आधुनिक पश्चिमी समाजशास्त्रियों की दृष्टि में प्रेम से अलग कामुकता, कामुक-भिन्नता और काम-चेतना आधुनिक परिघटनाएं हैं लेकिन भारतीय सन्दर्भ में इनकी जड़ें काफी पुरानी हैं. भारत में कामुकता का आधार ग्रन्थ (The basis text of sexuality in India) वात्स्यायन द्वारा रचित 'कामसूत्र' है. सुश्रुत की 'चरक संहिता' में भी इसका उल्लेख है. कामसूत्रकार धर्म, अर्थ की कोटि में ही 'काम' की वरीयता स्वीकार करते हुए उसे जीवन में भोजन के समान आवश्यक और बुनियादी मानते हैं. देह, श्रृंगार तथा कामुकता को लेकर मध्यकाल में समृद्ध विमर्श और साहित्य सृजन हुआ, जैसा कि पश्चिम में अनुपलब्ध है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पश्चिम की परंपरा से इतर भारत में प्रेम और कामुकता का सत्य साहित्य और सत्ता विमर्श के दायरे में ही आबद्ध नहीं रहा बल्कि उसकी जड़ें आम जनता में थी.
कामसूत्र सामान्यजन का विमर्श था. बाद में इसे सत्ता ने हथिया लिया. इसका सबसे बड़ा कारण था- भय... स्त्री की सेक्सुअलिटी की शक्ति (Power of woman's sexuality) से पितृसत्ता भयभीत हो गयी. स्त्री के मातृरूप की क्षमता स्वीकार करते हुए भी उसका दमन किया गया. इसमें साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
मैरी ई. जाँन और जानकी नायर के अनुसार,
''हिन्दू मिथकों का जटिल संसार साफ तौर से बताता है कि स्त्री की सेक्सुअलिटी के रूपों के प्रति पुरुषों में किस तरह का डर और संशय रहा है. दूसरी तरफ, स्त्री, उसका मातृमूलक रूप उसमें कौटुम्बिक व्यभिचार का अंदेशा पैदा करता है. दोनों ही स्थितियों में स्त्री की प्रधानता पुरुष के लिए एक समस्या है.''1
पश्चिम में भी मिशेल फूको ने 'द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुअलिटी' लिखकर कामुकता के खिलाफ सभ्यता में मौजूद 'दमन के तर्कशास्त्र' (द रेप्रेसिव हाइपोथेसिस) को पहचानकर उस पर
वास्तविकता यही है कि असमान, अलगावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में पुंस लैंगिकता समस्यारहित है. स्त्री और पुरुष दोनों के बीच प्रेम और कामुकता के सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थ हैं, शक्ति संबंधों का अलग मापदंड है. जहाँ भाषाई प्रतीक अपने तरीके से गतिशील होते हैं. हिंदी की आधुनिक आलोचना की विडंबना है कि कामचेतना और कामुकता जैसे विषयों पर न्यायपूर्ण ढंग से लिखा ही नहीं गया. इस क्षेत्र से स्त्री हमेशा गायब रही.
कामप्रेम और कामचेतना के नाम पर आधारहीन कल्पना-विलास ने सहज, प्राकृतिक व्यवहार को हमेशा ढँके रखा. इस दृष्टि से डॉ. रामविलास शर्मा की भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि उन्होंने कामप्रेम और कामचेतना को उनके सहज रूप में ही विशिष्ट माना. उन्होंने पुरुषों के साथ स्त्रियों में भी कामुकता की चेतना को स्वीकार किया. वे परंपरागत मानसिकता से इतर निराला के साहित्य में सक्रिय, पहल करती, संघर्ष करती, निर्णय लेती स्त्री को देखते है. इसी कारण वे निराला को प्रेम व कामुकता के उद्दात कवि के रूप में स्वीकार करते हैं.
डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला की कामचेतना में प्रेम, रूप-सौन्दर्य, यौवन, श्रृंगार,प्रकृति सभी की महत्वपूर्ण भूमिका मानी है. इन सभी अवयवों की बड़ी सहज, स्वाभाविक परिणति निराला के साहित्य में मिलती है. निराला की विशेषता (specificity of Nirala) यह भी है कि उनके यहाँ पुरुष की कामुकता इतनी मान्य और सर्वव्याप्त नहीं कि स्त्री गायब ही हो जाये. उनके साहित्य में स्त्री अपवाद नहीं सामान्य मनुष्य के रूप में सामने आती है.
डॉ.रामविलास शर्मा के अनुसार,
''पुरुष के सौन्दर्य का वर्णन तो उनके गद्य में जहाँ-तहाँ है, किन्तु काव्य में उनके ध्यान का केंद्र है नारी का सौन्दर्य. उनकी कहानियों में जिन युवतियों का चित्रण किया गया है, उनमें काफी समानता है; कविता में जिनकी रमणीयता का उल्लेख है, उनमें काफी विविधता है.''2
निराला की साहित्य साधना के प्रथम खंड में वे एक महत्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित करते हैं, कि निराला के साहित्य में निरूपित प्रेम व कामुकता के सन्दर्भ में उनका स्वयं पर मुग्ध होना और उसी मुग्धता के आलम में स्वयं को विविध रूपों में चित्रित करना उनके उदार कवि व्यक्तित्व का परिचायक है.
''निराला अर्धनारीश्वर थे. देखने में सुंदर, बड़ी-बड़ी आँखें, लहरियादार बाल, कलकतिया धोती- कुल्ली भाट उन पर मुग्ध हुए हैं, वह जानते थे. वह स्वयं अपने रूप पर मुग्ध थे, इसलिए दूसरा मुग्ध हो तो उन्हें प्रसन्नता ही होती थी. 'मतवाला'-मंडल में महादेवप्रसाद सेठ उनके रूप के प्रशंसक थे, मुंशी नवजादिकलाल उनकी भोंहों की तुलना बिहारी कि नायिकाओं की भोंहों से करते थे. हर पुरुष में स्त्रीत्व है, इसे वह कामशास्त्र और आधुनिक विज्ञान की विशेष खोज मानते थे. बहुत दिन बाद 'तुलसीदास' में छपने के लिए जब उन्होंने फोटो खिंचाया, तब उसमें अपनी 'फेमिनिन ग्रेसेज़' पर खुद ही मुग्ध हुए. अपने को स्त्री मानकर उन्होंने कुछ कविताएँ लिखी थीं जैसी 'अनामिका' में - प्रात क्यों नहीं जगाया नाथ. नारीत्व की भावना, आत्मरति, समर्पण का भाव-इनके साथ पुरुषत्व, आसक्ति, आक्रामक व्यवहार, यह सब भी उनमें था.''3
यही कारण है कि निराला के साहित्य में केवल पुरुष होने का गर्व-बोध ही नहीं स्त्री के प्रति सहज आकर्षण भी है. इसलिए उनमें काल्पनिक काम-लिप्सा, अनियंत्रित उत्तेजना का अभाव है. रूप, यौवन और प्रकृति के वर्णन में भावावेश एवं उद्दाम अभिव्यक्ति जरूर है जो परंपरागत मर्यादा-अमर्यादा की श्रृंखलाओं को दूर बहा ले जाती है.
समाज में प्रेम की भूमिका (Role of love in society) प्रतिरोधी की होती है, तो वहीं कामुकता को वैध-अवैध नज़रिए से देखा जाता है. जहाँ पुरुष की कामुकता जायज़ और स्वाभाविक है, वहीं स्त्री की कामुकता अवैध और अपवाद. यही वजह रही कि स्त्री की कामुकता को गंभीर समस्या और असाध्य बीमारी की तरह देखा गया. उसका सम्बन्ध 'हिस्टीरिया' से जोड़ दिया गया.
डॉ. रामविलास शर्मा निराला के यहाँ गतिशील नारी के दर्शन करते हैं. यहाँ स्त्री अधीन और अनुकूलित नहीं, न ही प्रेम और कामुकता उसके लिए विकृति या अपराध है. यह काम-प्रेम शरीर के स्तर पर रहनेवाला सतही प्रेम नहीं बल्कि उससे आगे बढ़कर प्राणों का मिलन है. नारियां जुझारू तथा विवेक-संपन्न हैं.
इस सन्दर्भ में निराला (suryakant tripathi nirala) पर पड़े बंगाल के प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. भारतीय समाज और विशेषकर बंगाल के प्रभाव को 'भारतीय मनोविश्लेषण केंद्र' (इंडियन साइकोएनालिटिक एसोसिएशन) के संस्थापक गिरिन्द्र बोस फ्रायड के 'ओडिपस काम्प्लेक्स' के सिद्धांत से इतर मानते हैं.
''बोस का कहना था कि भारत में ओडिपस काम्प्लेक्स ठीक उसी रूप में नहीं मिलता जिस रूप में यह उन समाजों में मिलता है जिसका विश्लेषण फ्रायड ने किया. इसका कारण था कि यूरोप से अलग यहाँ स्त्रीत्व को मौलिक रूप से नकारा नहीं गया. बंगाल में अनेक देवियों कि आराधना ने उनके या स्त्री-सिद्धान्तों के प्रति सांस्कृतिक पूज्य भाव को बनाये रखा. इसलिए यहाँ पुरुषों का विकास स्त्रियों के प्रति जटिल अंतर्विरोधों के साथ नहीं हुआ जैसा कि फ्रायड ने अपने मरीजों में पाया था. यहाँ वे माँ की इच्छा करते हैं और वह भी ईर्ष्या या घृणा से पीड़ित हुए बिना. वे तत्पर होकर अपनी शक्तियों की खोज करते हैं और उसकी ऊर्जा को समो लेने की इच्छा व्यक्त करते हैं.''4
निराला का बचपन और उसके बाद का काफी समय बंगाल में गुजरा था अतः उन पर बंगाल की स्त्री-विशेष सांस्कृतिक चेतना के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता.
डॉ. रामविलास शर्मा निराला और मनोहरादेवी के बीच के पुरुष तथा स्त्री की द्वंद्वात्मक स्थिति के बारे में बताते हैं,
''मनोहरादेवी सुंदर थीं, पर कलाकार के मन को प्रसन्न करने वाले हावभाव, श्रृंगार, प्रसाधन, सरस वार्तालाप - यह सब उनके पास कुछ न था. इसके अलावा मनोहरादेवी भी अपने माँ-बाप की इकलौती बेटी थीं. आत्म-सम्मान की भावना उनमें काफी थी. महिषादल में बैसवाडे के परिवार मानते थे कि निराला कुछ हैं; यह बड़प्पन मनोहरादेवी ने स्वीकार न किया. निराला को अपनी छवि पर गर्व था; मनोहरादेवी ने अपने संगीत से उनका गर्व चूर कर दिया. पुरुष हरा, स्त्री जीती; पुरुष उससे आँखें नहीं मिला पाता, लजाता है, अपने को कमजोर पाता है.''5
इसलिए निराला के साहित्य में भी स्त्री उदासीन, काम-विमुख ,ठंडी या यों कहें कि फ्रिजिड नहीं है. वे चंचल हैं, कामुक हैं, प्रेम में पहल करती है. 'यमुना के प्रति' कविता में गोपी (परिमल, पृ.53 ), गीतिका की नायिका (पृ.31 ), परिमल की संध्यासुन्दरी पुरुष की अपेक्षा अधिक अभिव्यक्ति संपन्न हैं. वह इच्छाओं और प्रेम की जुगलबंदी में आनंद लेती है. कभी मूक होकर, कभी मुखर होकर व कभी विरोधाभासी अभिव्यक्ति से प्रेम का आह्वान करती है. वह युवती रूपवान और आकर्षक है. स्वयं को अनजान मुग्धा कहकर व्यवहार में अपनी लालसा को व्यक्त करने में तनिक भी नहीं हिचकती- तुम मदन पंचशर हस्त
और मैं हूँ मुग्धा अनजान .('तुम और मैं', परिमल,पृ.78 )
'जागो फिर एक बार' में प्रकृति रूपी स्त्री पुरुष को जगा रही है, तो 'पंचवटी प्रसंग' में शूर्पनखा अपने प्रिय पुरुष में प्रणय-लालसा जगाना चाहती है. निराला के काव्य में पुरुष के आह्वान के पहले स्त्री का प्रणययुक्त स्वर सुनाई देता है.' ऐसी ही लालसा-विह्वल गीतिका की वह युवती है जो अपने मर्म पर मनोज्ञ भ्रमर के उतरने का आह्वान करती है. (पृ .40)
आह्वान कहीं मूक है,कहीं मुखर; पुरुष को वह किसी न किसी रूप में सुनाई अवश्य देता है. 'तुम और मैं' की उपमान-श्रृंखलाओं में 'तुम' नहीं, 'मैं' के स्वर की झंकार है और यह 'मैं' पुरुष नहीं, नारी है.'6
वह चुनाव करना जानती है- 'खेलूंगी कभी न होली, उससे जो नहीं हमजोली.' (राग-विराग,पृ. 158).
वह सजग और सचेत भी है. पुरुष जब मोह में सुध-बुध खो देता है, वह बार-बार उसे संभालती है. नहीं यही नहीं, वह प्रेम की खातिर जाति, धर्म और समाज से टकराती है. उसके मनोबल के सामने कोई बाधा नहीं टिकती. निराला के साहित्य में नारी प्रेम के निजी अधिकार, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करती है, प्रेमी को उत्साहित करती है. उसे अपने स्नेह की शक्ति प्रदान करती है.
ऐसी सबला नारी से आँखें मिलाना पुरुष के लिए सहज व्यापार नहीं है. 1936 में ''जब उन्होंने 'गीतिका' का समर्पण लिखा, तब तक मनोहरा देवी पूरी तरह रत्नावली बन चुकी थीं. उन्हें अपनी हिंदी काव्य-साधना की मूल प्रेरणा मानकर निराला ने लिखा- 'जिसकी हिंदी के प्रकाश से, प्रथम परिचय के समय, मैं आँखें नहीं मिला सका- लजाकर हिंदी की शिक्षा के संकल्प से, कुछ कल बाद देश से विदेश, पिता के पास चला गया था और उस हीन हिंदी प्रान्त में, बिना शिक्षक के, 'सरस्वती' की प्रतियाँ लेकर, पद-साधना की और हिंदी सीखी थी '... .''7
डॉ रामविलास शर्मा का मानना है कि पुरुष के आँख न मिला पाने का कारण हिंदी का प्रकाश ही नहीं है बल्कि उन आँखों का अद्मय, अपराजेय भाव भी है,
'ह़ारी नहीं, देख, आँखें
परी-नागरी की;
नभ कर गयीं पार पाँखें-
परी-नागरी की ' ('अपराजिता', अनामिका पृ .143)
इन आँखों में हिंदी का उजास ही नहीं ललकार भी है. देखने वाला सिहर उठता है,सहम जाता है. शायद इसीलिए निराला नारी के सौन्दर्य में नेत्रों के महत्व को स्वीकारते है. काम-प्रेम में प्रेरणा शक्ति स्त्री है, तो उसकी भूमिका को अपराजेय बनाने वाले उसके नेत्र हैं. यही वज़ह है कि निराला का पुरुष मन स्त्री की महत्ता स्वीकार करते हुए भी उसके नेत्रों का सामना नहीं करना चाहता. उनका मन अंधकार में रमता है. रात्रि का विविध रुपी मनोहारी चित्रण करने हुए कवि अपराजित आँखों का सामना करने से बच निकलते है.
रामविलास जी का मानना है कि यह निराला की पुरुष दृष्टि है जो नारी को अपनी प्रतीक्षा में व्याकुल देखना चाहती है. पुरुष वाली भाव-दृष्टि में वर्षा आनंद की ऋतु है, यदि नारी दुखी है तो पुरुष उसके दुःख को दूर करने का अभिलाषी है.
निराला काम-प्रेम, श्रृंगार-साधना को ज्ञान और वैराग्य के समकक्ष मानते हैं. प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितियों में पुरुष और स्त्री के प्रेम का अंकुर उन्हें विजयी बनता है. उनके चरित्र विशेषकर स्त्रियाँ प्रेममार्गी हैं. वे प्रेम में प्रवृत्त होने को तत्पर हैं. उनके लिए कामुकता उपभोग और विकृति की बजाय आनंद,पारस्परिकता और पूर्णता है. यहाँ प्रेम में समानता के साथ विश्वास भी है. संदेह के लिए कोई जगह नहीं. 'कुल्लीभाट' में इसकी झलक भी मिलती है 'कुल्ली के इक्के पर बैठकर शेरअंदाज़पुर पहुँचने के बाद पहले सास ने उन्हें शंका की दृष्टि से देखा. फिर निराला को भीतर से पत्नी के हंसने की आवाज़ सुनाई दी. उस हंसी का उन्होंने अर्थ किया, ''तुम मेरे हो, तुम पर मेरा पूरा विश्वास है, तुम्हें पाकर मैं और कुछ नहीं चाहती, दूसरे तुम्हें नहीं समझते तो न समझें, मैं किसी को समझाना नहीं चाहती.'' '8
निराला के साहित्य में काम-प्रेम आनंद व संतुष्टि से आगे सृजन-प्रेम है. जिसमें अनावश्यक नैतिक छद्म नहीं. प्रणय में समता है, उलीचकर दे देने और पाने का उल्लास है.
निराला की कविता 'जुही की कली' स्त्री और पुरुष के बीच की कामुक-भिन्नता को बड़े सुंदर ढंग से रूपायित करती है. एक ओर पुरुष है जो अपने कर्मों और उपलब्धियों को लैंगिक द्वैतता से परे वस्तुनिष्ठ धरातल पर ले जाता है. उसके लिए कामुकता मात्र सम्बन्ध में होती है. वह सम्बन्ध जो स्त्री के साथ स्थापित होता है. लेकिन स्त्री की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है क्योंकि कामुकता उसके लिए सम्पूर्ण और स्वायत्त अस्तित्व रखती है. जो उसके स्त्रीत्व की पहचान से अभिन्न रूप में जुडी होती है. सौभाग्यवती निंद्रालु जुही की कली से मिलने दूर देश से दौड़ा आता मलयानील, उसे चुम्बित कर जगाना चाहता है. वह नहीं उठती. वह निष्ठुर होकर झोंकों की झड़ियों से उसे झकझोर देता है. वह चकित हो जाती है. यहाँ प्रेमी मलयानील दूर से आया है, उसका धैर्य रीत रहा है, इसलिए वह जुही की कली की सुप्तावस्था से चिढ़ कर आक्रामक भी हो जाता है. परन्तु जुही की कली को कोई शीघ्रता नहीं. वह उत्तेजना में प्रेम निवेदन, प्रेम की अठखेलियों को नहीं छोड़ना चाहती. पहले वह निष्क्रिय होने का अभिनय करती है.
इस सन्दर्भ में यह समझना जरूरी है कि स्त्री की ऊर्जा कभी निष्क्रिय नहीं होती. वह तो निष्क्रिय और सक्रिय का अद्भुत सम्मिश्रण होती है. स्त्री की कामना शक्ति को पुरुष की तरह केवल ऊर्जा, आक्रामकता व निर्दयता के सन्दर्भ में परिभाषित नहीं किया जा सकता है. इसके लिए गहरी अंतर्दृष्टि से लैस होना होगा. उसकी सेक्सुअलिटी में लेने, हासिल करने, खो देने, कुछ बनाने, समर्पित होने, आनंद लेने के अलग-अलग तरीके हैं. वह सर्वप्रथम प्रिय की उपस्थिति की अनुभूति चाहती है, उसका लाड़-दुलार और स्पर्श चाहती है तभी अपनी आँखें खोलती है. प्रिया की संतुष्ट, तृप्त छवि पर कवि-मन मुग्ध है. उनमें सुख और सौन्दर्य की अगाध चाह है.
निराला 'बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु !' कविता में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री को मूक-बधिर बना दिए जाने के षड्यंत्र को बेनकाब करते हैं. जहाँ पुरुष स्व-प्रस्तुति के आनंद में फूला नहीं समाता वहीं स्त्री को या तो बोलने नहीं दिया जाता या वह बोलती है तो उसे सुना नहीं जाता. इन दोनों ही प्रक्रियाओं में स्त्री को हाशिये पर धकेल दिया जाता है. अब वह बोलती नहीं, परन्तु वह शक्तिहीन भी नहीं. उसकी उपेक्षित हंसी में सारे जवाब हैं, सारे विरोध दर्ज हैं-
'वह हंसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दांव बंधु !' (राग-विराग, पृ.162)
प्रेम का केवल शरीर तक सीमित होना विकृत होना है. प्रेम की सामाजिक पहचान ही सामाजिक गतिशीलता का आधार तैयार करती है. इससे ही स्त्री के अस्तित्व का बोध होता है. प्रेम, देह, काम, सामाजिक पहचान के जरिये स्वाधीनता और आत्मनिर्भरता को दिखाते है. यहाँ प्रेम, देह-सुख के प्रति स्त्री का रवैया व पहचान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. प्रेम केवल शारीरिक-कामुक संतुष्टि नहीं है. प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए उसमें सामाजिक क्षमता, उत्पादकता की वृद्धि तथा निर्णय लेने का विवेक होना चाहिए. स्त्री की नयी, स्वतंत्र, सामाजिक उत्पादक की भूमिका प्रेम में उसका सामाजिक निवेश बढाती है. इससे प्रेम बना ही नहीं रहता विकसित भी होता. डॉ रामविलास शर्मा 'निराला की साहित्य-साधना' (भाग-2) के निबंध 'नारी की स्वाधीनता में निराला को बदल रही, दखल दे रही स्त्री के पक्ष में खड़ा पाते है.
सुमित्रा कुमारी सिन्हा की पुस्तक 'अचल सुहाग' की समीक्षा करते हुए निराला ने स्त्री के निजी विचारों को, प्रेम के सम्बन्ध में परिवर्तित धारणा को महत्वपूर्ण माना 'उन्होंने पुस्तक की आलोचना करते हुए लिखा,
''एक प्रतिष्ठित परिवार की महिला की कलम से ये जो मनोभाव इन कहानियों में निकले और परिपुष्ट हुए हैं, एकाएक एक पुराने पाठक को ताज्जुब में डाल देते हैं. प्रेम के सम्बन्ध में बदलती हुई धारणा में महिलाओं की प्रतिनिधि की हैसियत से, कवयित्री सुमित्राकुमारी ने बड़ी निर्भीकता दिखलाई है. स्त्री के सम्बन्ध में पुरुष के विचार शुद्ध हों-अशुद्ध, प्राचीन हों-नवीन, स्त्री के विचारों के सामने मान्य नहीं हो सकते. ...'' '9
मनुष्य के रूप में हमें व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और मानसिक अनेकानेक प्रभावों व दुष्प्रभावों को झेलना पड़ता है. रचनाकार का द्वंद्व इससे भी व्यापक है. निराला के मन को भी बहुत सी ग्रंथियां, तनाव, अंतर्विरोध, निषेध-भावनाएं, दमित-इच्छाएं, दुःख, क्रोध,प्रतिशोध जैसी भावनाएं व्याकुल किया करती थीं. दरिद्रता, बेरोजगारी,आर्थिक असुरक्षा, परिवार का बोझ,पत्नी की मृत्यु, बच्चों का ननिहाल में रहना, साहित्यिक अराजक माहौल, अहम् भाव ...सभी ने मिलकर निराला में गहन असंतोष का सृजन किया.
निराला का मन अपने पुरुषत्व का प्रमाण देने के लिए व्याकुल रहता था. किन्तु अभाव उन्हें जीने नहीं देते थे. सम्पति का अभाव, विद्या की कमी, प्रतिष्ठित परिवार में जन्म न ले पाने का दुःख, ख्याति की इच्छा, सन्यासी बन जाने की वांछा ने उन्हें हमेशा अस्थिर बनाये रखा. सबसे पहले वे अपनी हीन भावना का बदला पत्नी मनोहरा देवी से लेते हैं. घर में मांस पकाकर, खाकर उन्हें मायके जाने पर विवश कर देते हैं और उनके चले जाने के बाद पश्चाताप से भर उठाते हैं.
एस.एन. रामपाल ने अपनी पुस्तक 'इंडियन वीमेन एंड सेक्स' के अध्याय 'इंडियन मेल्स एटीट्यूड टुवर्ड्स लव एंड सेक्स' में पुरुष की काम-वृत्ति पर विविध प्रकार के दबावों के प्रभाव का ज़िक्र किया है,
''पुंस-केन्द्रित समाज में पुरुष स्वयं काम के प्रति कुछ विशेष दोहरेपन (उदासीनता/ महत्वहीनता) से घिरा होता है, क्योंकि उस पर परिवेश की कई गंभीर समस्याओं का दबाव रहता है. ऐसे में काम के प्रति उसका शारीरिक रवैया सामान्य नहीं रह जाता. सामान्य जैविक क्रियाकलाप से इतर काम-सम्बन्ध उसके लिए, एक ओर संसारिकता से पलायन तो दूसरी ओर, असहायता से बचने का माध्यम बन जाता है. जैसे कि मदिरापान करना, ध्यान लगाना, कला और सौन्दर्यशास्त्र जैसी गतिविधियों में पलायन करना.''10
विभिन्न समस्याओं, तनाव और महत्वाकांछा के कारण निराला के जीवन की कठिनाइयाँ बढ़तीं गयीं. उनका मन उतना ही अधीर और विक्षुब्ध होता रहा. वे हमेशा परिवार, सामाजिक स्थिति, असहिष्णु हिंदी संसार को भी दोष देते रहें. प्रतिरोध में वे स्वयं को छिपाते, वेश बदलते, बड़े-बड़े केश रखते. लेकिन मुक्ति कहीं नहीं थीं. कई बार वे निरर्थकता बोध से घिर जाते-'धन्ये मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका !'
('सरोज-स्मृति', राग-विराग,पृ.80)
और अंत में यही कहना समीचीन होगा कि निराला की प्रेम और काम चेतना में स्वाभाविक द्वंद्व, तृप्ति व अतृप्ति का, विद्यमान है. ऐसी इच्छा जो संतुष्ट होकर भी नहीं मिटती. वे स्त्रियों के समान स्वाभाविक द्वैतता को जीते हैं, इसलिए कभी नहीं रीतते-
'बाहर मैं कर दिया गया हूँ। भीतर पर भर दिया गया हूँ।''
विजया सिंह
संदर्भ -