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लॉकडाउन का एक महीना पूरा होने पर | On completion of one month of lockdown

कोरोना से पार पाने के लिए देश में जो लॉकडाउन का सिलसिला शुरू हुआ, उसके एक माह पूरा हो चुका है। इन विगत 30 दिनों में कुछेक अपवादों को छोडकर हमने धैर्य और सहनशीलता तथा सादगीपूर्ण जीवन- शैली का नया अध्याय रचा.

इस दरम्यान हमने डॉक्टरों, पुलिस कर्मियों, सफाई कर्मियों इत्यादि को एक नए किस्म के योद्धा; कोरोना वारियर्स (Corona warriors) के रूप अवतरित होते देखा.

लॉकडाउन में हमने लोगों के कामकाज, रहन-सहन और खासतौर से सोचने के तरीके में बड़ा बदलाव होते देखा। जिस तरह कोरोना में धर्म छुट्टी पर (Religion on vacation in Corona) गया है, उससे अब नास्तिकों को धर्म-मुक्त दुनिया का सपना देखने का बल मिलेगा. जिस तरह सरकारी सेक्टर ने कोरोना के खिलाफ अपनी भूमिका अदा किया है, उससे निजीकरण के विरोधियों का मनोबल बढ़ेगा। लेकिन दुनिया की सोच में बड़ा बदलाव लाने वाले कोरोना ने अब तक सबसे बड़ा कमाल पर्यावरण के क्षेत्र में दिखाया है, लिहाजा इस क्षेत्र में लोगों की सोच में विराट बदलाव अवश्यसंभावी है।

Positive impact on nature's health in lockdown

लॉकडाउन का जो दौर शुरू हुआ है उससे फिर से आसमान में ध्रुव तारे समेत तमाम ग्रह आसानी से दिखने लगे हैं. करोड़ों खर्च करके नदियों को साफ करने का जो वर्षों से अभियान चला, वह तो विफल रहा, किन्तु सभी गतिविधियां ठप होने से बिना प्रयास के ही नदियों का जल निर्मल हुये जा रहा है. कुल मिलाकर लॉकडाउन में जिस तरह प्रकृति की सेहत पर सकारात्मक असर पड़ा है, उससे पर्यावरणविदों को भविष्य की रणनीति स्थिर करने में बहुत कुछ नया मिलने जा रहा है. बहरहाल एक ऐसे दौर में जबकि लॉकडाउन के कारण विश्व के अन्यान्य देशों की भांति हम भारत के लोगों की भी सारी गतिविधियां ठप हैं, सक्रिय हैं तो सिर्फ मस्तिष्क, जो कोरोना

उत्तरकाल की रणनीतियाँ बनाने में व्यस्त है : ऐसे में क्या बेहतर नहीं होगा कि लॉकडाउन के वर्तमान दौर में हम मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या (The biggest problem of mankind) से पार पाने में अपने मस्तिष्क को सक्रिय करें। क्योंकि जो आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, तथा जिसकी आज सर्वाधिक व्याप्ति भारत में है, वह आने वाले दिनों में और भयावह रूप अख़्तियार करने जा रही है. अतः आइये हम सबसे बड़ी समस्या पर एक बार फिर से विचार कर लें.

वैसे तो मानव जाति सभ्यता के विकास के साथ- साथ तरह-तरह की बीमारियों,प्राकृतिक आपदाओं, युद्ध इत्यादि ढेरों समस्याओं से जूझती रही है और आज ग्लोबल वार्मिंग, एड्स, कैंसर, सांप्रदायिकता, भूख-कुपोषण, आतंकवाद (Global warming, AIDS, cancer, communalism, hunger-malnutrition, terrorism) इत्यादि के साथ से कोरोना से जूझ रही है. किन्तु सदियों से लेकर आज तक यदि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या को चिन्हित करने का ईमानदार प्रयास हो तो उभर कर सामने आएगी : आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी!

जी हाँ, आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है: यहां तक कि ग्लोबल वार्मिंग और कोरोना से भी बड़ी! यही वह समस्या है जिसकी कोख से भूख- कुपोषण, गरीबी-अशिक्षा, आतंकवाद - विच्छिन्नतावाद इत्यादि का जन्म होता है। यही वह समस्या है जिससे पार पाने के लिए गौतम बुद्ध, मार्क्स, लेनिन, माओ, आंबेडकर जैसे ढेरों महामानवों का उदय एवं भूरि-भूरि साहित्य का सृजन हुआ. इससे पार पाने के लिए ही दुनिया मे असंख्य युद्ध संगठित हुये, जिसमें लाखों-करोड़ो लोगों ने प्राण विसर्जित किया॰ इसे लेकर आज भी दुनिया के विभिन्न अंचलों में संघर्ष/ आंदोलन चल रहे हैं।

आर्थिक और सामाजिक विषमता की सृष्टि का कारण: शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिम्बन !

बहरहाल जो आर्थिक और सामाजिक विषमता हमारी सबसे बड़ी समस्या है, पूरी दुनिया में ही उसकी उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों का विभन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से होती रही है.

ध्यान देने की बात है कि सदियों से ही दुनिया का सारा समाज जाति, नस्ल, लिंग, भाषा इत्यादि के आधार पर कई समूहों में बंटा रहा है. जहां तक शक्ति का सवाल है, समाज में इसके चार प्रमुख स्रोत रहे हैं- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक. शक्ति के ये स्रोत जिस समूह के हाथों में जितना ही संकेंद्रित रहे, वह उतना ही शक्तिशाली, विपरीत इसके जो जितना ही इनसे दूर व वंचित रहा, वह उतना ही दुर्बल व अशक्त रहा. सदियों से समतामूलक समाज निर्माण के लिए जारी संघर्ष और कुछ नहीं शक्ति के स्रोतों में वंचित तबकों को उनका प्राप्य दिलाना रहा है.

समताकामियों द्वारा धार्मिक-शक्ति की उपेक्षा | Neglect of religious power by egalitarians

जहाँ तक शक्ति का प्रश्न है सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ने वाले तमाम चिंतक ही, विशेषकर मार्क्सवादी, धार्मिक-शक्ति की बुरी तरह उपेक्षा करते रहे हैं. यह डॉ.आंबेडकर रहे जिन्होंने इसकी अहमियत को समझा और साबित किया कि धर्म भी शक्ति का स्रोत होता है और धन-सम्पति की तुलना में ‘धर्म’ की शक्ति अधिक नहीं, तो किसी प्रकार कम भी नहीं है.

वास्तव में ’धर्म का मनुष्य के हृदय पर शासन रहने’ के कारण यह समाज में शक्ति का एक विराट केन्द्र रहा है. चूंकि हर धर्म के अनुयायियों का लक्ष्य लौकिक-पारलौकिक सुख के लिए ईश्वर-कृपा लाभ करना रहा है और दैविक- दलाल(divine brokers) पोप-पुरोहित-मौलवी ईश्वर और भक्तों के बीच मध्यस्थ का रोल निभाते रहे हैं, इसलिए धार्मिक-शक्ति का लाभ पुरोहित वर्ग ही उठाते रहे. धार्मिक शक्ति से लैस होने के कारण ही प्राचीन रोमन गणराज्य में प्लेबियन बहुसंख्यक हो कर भी अल्पजन पैट्रिशियनों के समक्ष लाचार बने रहे. इस कारण ही भारत के ब्राह्मण तो साक्षात् ‘भूदेवता’ ही बन गए और समाज में इतनी शक्ति अर्जित कर लिए कि 70 वर्ष के क्षत्रिय तक भी दस वर्ष के ब्राहमण – बालक तक के समक्ष सर झुकाने के लिए बाध्य रहे. इन्होंने देवालयों में इतनी धन-सम्पति इकट्ठी कर ली थी कि विदेशी लुटेरे खुद को भारत पर हमला करने से न रोक सके. इस शक्ति से समृद्ध मध्ययुग के योरप में पोप-पुजारियों की जीवन शैली वहां के राजे-महाराजाओं के लिए भी इर्ष्या की वस्तु बन गई थी. इस शक्ति से सारी दुनिया की महिलाओं और भारत के दलित-आदिवासी -पिछडों को पूरी तरह दूर रखा गया. धार्मिक शक्ति का महत्त्व इक्कीसवीं सदी में कम हो गया है,ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता!

सामाजिक-आर्थिक विषमता के खात्मे के लिए : शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन

यह सही है कि हजारों वर्षों से दुनिया के हर देश का शासक-वर्ग ही कानून बना कर शक्ति का वितरण करता रहा है. पर, यदि हम यह जानने की कोशिश करें कि सारी दुनिया के शासक जमातों ने अपनी स्वार्थपरता के तहत कौन सा रास्ता अख्तियार कर सामाजिक और आर्थिक विषमता को जन्म दिया; शक्ति का असमान वितरण किया तो हमें विश्वमय एक विचित्र एकरूपता का दर्शन होता है.

हम पाते हैं कि सभी ने शक्ति के स्रोतों में सामाजिक (social) और लैंगिक (gender) विविधता(diversity) का असमान प्रतिबिम्बन करा कर ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या को जन्म दिया. अगर हर जगह शक्ति के स्रोतों का बंटवारा विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं की संख्यानुपात में किया गया होता तो क्या दुनिया में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबर की स्थिति ही पैदा होती?

चूंकि शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के आसमान प्रतिबिम्बन से ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या की सृष्टि होती रही है, इसलिए शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का सम्यक प्रतिबिम्बन कराकर ही इससे पार पाया जा सकता है, इसकी सत्योपलब्धि दुनिया ने देर से किया।

शक्ति के असमान बंटवारे से पैदा हुआ : क्रांतियों का सैलाब

बहरहाल प्राचीन काल से लेकर आधुनिक विश्व के उदय के पूर्व तक सर्वत्र ही सामाजिक और लैंगिक विविधता की अनदेखी हुई तो इसलिए कि राजतंत्रीय व्यवस्था के दैविक अधिकार (divine-right) सम्पन्न शासक वर्गों में ‘जिओ और जीने दो’ की भावना ही विकसित नहीं हुई थी. विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओ को शक्ति में शेयर देना उनकी सोच से परे था. धर्माधिकारियों के प्रचंड प्रभाव से दैविक गुलाम(divine slave)में परिणत वंचित तबकों के स्त्री-पुरुषों में भी शक्ति-भोग की आकांक्षा पैदा नहीं हुई थी. किन्तु बहुत देर से ही सही, 1096 में ब्रिटेन मेँ ‘नारमंडी’ के राजा विलीयम ने स्व-हित में सामंतों का अधिकार संकुचित करने के लिए जब ’ओथ सालिसबरी’ के रास्ते जन साधारण से सहयोग माँगा, वह मानव जाति के इतिहास की एक युगांतरकारी घटना साबित हुई.तब कृषक बहुजन ने सामंतों के बजाय सीधे राजा के प्रति अपनी वफ़ादारी की शपथ ली और विनिमय में राजा ने उन्हें शक्ति के स्रोतों में कुछ हिस्सेदारी देने का वादा किया.

राजा के साथ सशर्त समझौते से जनसाधारण ने शक्ति (अधिकार) का जो स्वाद चखा, वह राजतंत्रीय-व्यवस्था के लिए काल साबित हुआ. इससे वंचितों में अधिकाधिक शक्ति-भोग की लालसा तीव्रतर होती गयी जो 1215 में ‘मैग्नाकार्टा’ (स्वाधीनता का पहला मुक्ति-पत्र) अर्जित करते हुए 1689 में ’बिल ऑफ राइट्स’ हासिल करने के बाद ही कुछ शांत हुई.

मैग्नाकार्टा से बिल ऑफ राइट्स अर्जित करने तक, सुदीर्घ पांच सौ वर्षों का अंग्रेज बहुजन के संग्राम का पथ कांटों भरा रहा. इस दौरान हाब्स, लाक जैसे बुद्धिजीवियों ने लोगों में शक्ति-अर्जन की भूख बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. परिणामस्वरूप वंचितों को शक्ति के स्रोतों से जोड़ने के लिए फ़्रांस, अमेरिका, रूस, चीन सहित दुनिया के अन्यान्य देशों में क्रांतियों का सैलाब उठा.इनसे प्रेरणा लेकर आज भी आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे का संघर्ष दुनिया के विभिन्न अंचलों में जारी है.

शक्ति-वितरण के लिए: लोकतांत्रिक व्यवस्था

बहरहाल ब्रितानी जनगण ने पांच सौ सालों तक अधिकार अर्जन के लिए खुद को जो बार-बार गृह-युद्ध में झोका, उससे प्रेरणा लेकर दूसरे देशों के वंचितों ने सिर्फ क्रांतियों का सैलाब ही पैदा नहीं किया, बल्कि शक्ति के स्रोतों के सम्यक बंटवारे के लिए उन्होंने राजतंत्रीय-व्यवस्था को पलट कर जो गणतांत्रिक-व्यवस्था दी उसका भी नक़ल किया. यही कारण है दुनिया के सारे देशों में एक-एक करके राजतंत्र का ध्वंस और लोकतंत्र की स्थापना होते गया. लोकतंत्र के धीरे-धीरे परिपक्व होने के साथ बीसवीं सदी के उतरार्द्ध में अधिकांश लोकतान्त्रिक देशों ने उपलब्धि किया कि तमाम सामाजों के पुरुषों और महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों का न्यायोचित बंटवारा किये बिना लोकतंत्र को सलामत नहीं रखा जा सकता.

ऐसे में उन्होंने समस्त आर्थिक गतिविधियों,शिक्षण संस्थाओं, फिल्म-मीडिया, राजनीति की समस्त संस्थाओं इत्यादि में सामाजिक और लैंगिक विविधता अर्थात ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी’ लागू करने का उपक्रम चलाया. इसका परिणाम यह हुआ कि दुनिया भर में महिलाओं, नस्लीय भेदभाव के शिकार अश्वेतों, अल्पसंख्यकों इत्यादि विभिन्न वंचित समूहों को लोकतांत्रिक देशो में शक्ति के स्रोतों में शेयर मिलने लगा. ऐसा होने पर उन देशों में आर्थिक-सामाजिक विषमता के खात्मे और लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण कि प्रक्रिया तेज हुई.

शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के रास्ते विषमता की समस्या से निपटने में जिन देशो ने उल्लेखनीय सफलता अर्जित की उनमे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं – कनाडा, अमेरिका, योरोपीय देश, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, मलेशिया और सबसे बढ़कर दक्षिण अफ्रीका.

विविधता नीति के सहारे विषमता के खात्मे का सर्वोत्तम माडल : दक्षिण अफ्रीका

दक्षिण अफ्रीका भारत की तरह ही विविधतामय देश है, जहाँ 79.6%काले,9.1%गोरों,8.9%कलर्ड और 2.5%एशियाई व अन्य श्रेणी का वास है. नेल्सन मंडेला के सत्ता में आने के पूर्व वहां गोरों ने सामाजिक विविधता की भयावह अनदेखी करते हुए शक्ति के स्रोतों पर 80-85% कब्ज़ा जमा रखा था.

मंडेला के सत्ता में आने के बाद जब वहां लोकतंत्र स्थापित हुआ, सरकार ने संविधान में सामाजिक विविधता लागू करने का प्रावधान सुनिश्चित किया. परिणामस्वरूप वहां के चारों प्रमुख सामाजिक समूहों को संख्यानुपात में समस्त आर्थिक गतिविधियों, राजनीतिक संस्थाओं इत्यादि में भागीदारी का मार्ग प्रशस्त हुआ. इससे वहां जिन गोरों का शक्ति स्रोतों पर 80-85%कब्ज़ा था, वे 9-10% पर सिमटने के लिए बाध्य हुए. ऐसे में उनके हिस्से की 70-75% सरप्लस शक्ति शेष वंचित समूहों में बंटनी शुरू हो गयी. अब गोरों की निहायत ही लोकतंत्र विरोधी नीति के चलते भयंकर आर्थिक और सामाजिक विषमता की खाई में फंसा दक्षिण अफ्रीका तेज़ी से इससे उबरने की राह पर चल पड़ा है

भारत के शासकों ने किया : विविधता के प्रतिबिम्बन से परहेज !

भारत समाज असंख्य जातियों और धार्मिक समुदायों से गठित है. इसे कुछ कॉमन विशेषताओं के आधार पर चार मुख्य सामाजिक समूहों - (1)सवर्ण, (2)ओबीसी, (3)एससी/एसटी और (4)धार्मिक अल्पसंख्यक - में वर्गीकृत किया गया है. यह वर्गीकरण ही भारत की सामाजिक विविधता है. अगर आजाद भारत के शासकों की मंसा सही होती तो वे इन चारों समूहों के पुरुष और महिलाओं के संख्यानुपात में आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक और धार्मिक क्षेत्र के अवसरों का बंटवारा कराते. इसके लिए वे उन देशों से प्रेरणा लेते, जिनसे लोकतंत्र का प्राथमिक पाठ पढ़ा है. लेकिन हर बात में विदेशियों की नक़ल करने वाले हमारे शासक वर्ग ने विविधता नीति का अनुसरण करने में पूरी तरह परहेज रखा. परिणामस्वरूप विश्व में सर्वाधिक गैर-बराबरी का साम्राज्य भारत में कायम हुआ.

आज भारत के विशेषाधिकारयुक्त चिरसुविधाभोगी 15% अल्पजनों का शक्ति स्रोतों पर लगभग 80-85% कब्ज़ा है. विविधता की अनदेखी के कारण ही हम महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश जैसे पिछड़े राष्ट्र से भी पिछड़े हैं. इस कारण ही कभी सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली राष्ट्र को सकते में डाल दी थी. इस कारण ही एससी/एसटी और ओबीसी की उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया में नगण्य तो देवालयों में शून्य भागीदारी है. इतनी गैर-बराबरी किसी भी देश में क्रांति को आमंत्रण दे देती, लेकिन भारत में वैसा कुछ नहीं हो रहा है तो क्यों, इसका खुलासा कोई समाज-मनोविज्ञानी ही कर सकता है. पर,ऐसा नहीं कि इसका कोई असर ही नहीं हो रहा है. हो रहा है, तभी तो आज से एक दशक पूर्व विषमता से पीड़ित एक तबके ने 2050 तक बन्दूक के बल पर लोकतंत्र के मंदिर पर कब्ज़ा जमा लेने की खुली घोषणा कर दिया था. पर, क्या हमारा शासक वर्ग इस घोषणा से परेशान है? नहीं ! बहरहाल अगर गैर-बराबरी के दुष्परिणामों को जानते हुए भी शासक–वर्ग सामाजिक और लैंगिक विविधता की बुरी तरह उपेक्षा किये जा रहा है तो उसके पृष्ठ में क्रियाशील है वर्णवादी मानसिकता.

सामाजिक और लैंगिक विविधता की सबसे सामाजिक बड़ी दुश्मन : वर्ण-व्यवस्था!

हमारे शासकों की सामाजिक-लैंगिक विविधता विरोधी मानसिकता का सम्बन्ध उस वर्ण-व्यवस्था से है, जिसे उनके महान आदर्श विवेकानंद ने मानव-जाति को ईश्वर-प्रदत सर्वश्रेष्ठ उपहार कहा है. महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्रपिता और ईएस नम्बूदरीपाद जैसे महान मार्क्सवादी भी विवेकानन्द की भांति ही वर्ण-व्यवस्था की प्रशंसा में पंचमुख रहे. पर, आर्यों द्वारा प्रवर्तित वर्ण-व्यवस्था दुनिया की ऐसी पहली व अनुपम सामाजिक – व्यवस्था रही, जिसमें किसी देश की बहुसंख्यक आबादी को शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक- शैक्षिक - धार्मिक) में एक कतरा भी न देने की चिरस्थाई व्यवस्था की गयी. यह दुनिया की पहली व्यवस्था थी जिसमें किसी समाज को चार भागों (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य और शूद्रातिशूद्र)में बांटकर एक अपरिवर्तनीय सामाजिक विविधता को जन्म दिया गया. इसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, राज्य-संचालन, सैन्य-वृति, भूस्वामित्व, व्यवसाय-वाणिज्य इत्यादि के सारे अवसर जन्मसूत्र से सिर्फ ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों से युक्त सवर्ण-पुरुषों के लिए आरक्षित रहे. इसके प्रवर्तकों ने खुद स्व-वर्ण की महिलाओं तक को शक्ति के स्रोतो में स्वतन्त्र भागीदारी नहीं दिया. उन्होंने शूद्रातिशूद्रों को आर्थिक-राजनीतिक- शैक्षिक के साथ धार्मिक शक्ति से पूरी तरह दूर कर दिया. धार्मिक स्रोतों से दूर रखने के लिए जहां शूद्रातिशूद्रों को तीन उच्चतर वर्णों(सवर्णों)की निष्काम सेवा में मोक्ष संधान करने का कानून बनाया,वहीं सभी स्त्रियों को पति-चरणों में स्वर्ग ढूढने का प्रावधान दिया. शूद्रातिशूद्रों और नारियों के लिए किसी भी किस्म की शक्ति का भोग अधर्म था. इस व्यवस्था द्वारा पूरी तरह शक्तिहीन बने शूद्रातिशूद्रों के लिए अच्छा नाम तक रखना वर्जित रहा .चूँकि वर्ण- व्यवस्था ईश्वरकृत रूप में प्रचारित रही इसलिए सवर्ण शक्ति के स्रोतों का भोग करना अपना दैविक -अधिकार मानने लगे .विपरित इसके दैविक-गुलाम बने शूद्रातिशूद्र और महिलायें खुद को पूरी तरह शक्ति के अनाधिकारी समझते रहे. वर्ण-व्यवस्था के कानूनों के तहत शक्ति के स्रोतों के बंटवारे का कार्य आईपीसी लागू होने के एक दिन पूर्व तक चलता रहा. पर, आईपीसी भी शक्ति के स्रोतों को सवर्णों के चंगुल से मुक्त करने में आंशिक रूप से ही सफल हो पाई. इसलिए आजाद भारत को विरासत में जहां भयावह आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी मिली,वहीँ दुर्भाग्य से सत्ता की बागडोर उन्ही सवर्णों के हाथ में आई जो शक्ति के सभी स्रोतों पर पूर्ण रूपेण कब्ज़ा अपना दैविक-अधिकार मानते रहे.

अतीत और वर्तमान के शासक दल में फर्क !

संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ आंबेडकर को स्वाधीन भारत के शासकों की मानसिकता का इल्म था, इसलिए उन्होंने संविधान सौपने के पूर्व राष्ट्र को सावधान करते हुए कहा था कि हमें निकटतम समय के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होगा नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के ढांचे के परखचे उड़ा देगी. लेकिन अपनी वर्णवादी सोच के चलते पंडित नेहरु,इंदिरा गाँधी,राजीव गाँधी,नरसिंह राव जैसे राजनीति के सुपर-स्टार तक भी लोकतंत्र की सलामती की दिशा में प्रत्याशित कदम नहीं उठा सके.फलतः विषमता की खाई बढती और बढती गयी और दुर्भाग्य से आज देश की सत्ता ऐसे एक ऐसे राजनीतिक पार्टी के हाथ मेँ है, जिसका चरित्र अतीत के शासक दलों से सर्वथा भिन्न है.

अतीत के शासक दलों का नेतृत्व भी वर्णवादी रहा. वह नेतृत्व भी जातिवादी भारत समाज मेँ जंन्म लेने के कारण समग्र वर्ग की चेतना से दरिद्र था,वह भी उच्च वर्ण मेँ जन्म लेने के कारण शक्ति के स्रोतों पर दैविक अधिकार समझने की मानसिकता से पुष्ट था. किन्तु जाति समाज जनित तमाम बुराइयों का शिकार होने के बावजूद उसके विवेक पर स्वतन्त्रता संघर्ष के वादों को निभाने का बोझ था।उसे इस बात का इल्म था कि ब्रितानी उपनिवेश से भारत की आज़ादी मेँ भारत के विविध भाषाई, इलाकाई और जातीय समूहों का योगदान रहा है. इसलिए आज़ाद भारत मेँ पुराने शासक दल के नेतृत्व की ओर से ‘ भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुये तथा देश के विभिन्न भागों और लोगों के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ मेँ पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को मजबूत किए जाने का प्रयास हुआ, भले वह उतना प्रभावी न हुआ हो. इस प्रयास के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था में शक्ति के सभी स्रोतों से बहिष्कृत कर नर-पशु में तब्दील किये गए अस्पृश्य, आदिवासी समुदायों के लोग डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, बाबू, आइएएस, पीसीएस, सांसद, विधायक इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ने का अवसर पाये. यदि अतीत के शासक दल के लोग समग्र वर्ग की चेतना से समृद्ध होते तो भारतीय समाज की सूरत में और भी सुखद बदलाव आया होता.

बहरहाल आर्थिक पिछड़ेपन, भयंकर गरीबी और अशिक्षा, व्यापक तौर पर फैली बीमारियाँ तथा आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे जैसे स्वतन्त्रता संग्राम के वादों को पूरा करने के लिए जिस राजनीतिक दल ने आज़ाद भारत में सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ली, वह आज़ादी के पचास साल पूरा होते-होते देश के अवाम निराश करने लगा. इससे वर्तमान शासक दल के सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त हुआ.

हिन्दू राष्ट्र के खतरे !

लेकिन जिस दल ने स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी दल की जगह ली, उसके विवेक पर स्वाधीनता संग्राम के वादों को निभाने का कोई बोझ नहीं था. उसके विवेक पर बोझ था देश को हिन्दू- राष्ट्र बनाने का; आधुनिक ज्ञान- विज्ञान नहीं, देव-भाषा(संस्कृत ), परा - अपरा विद्या तथा निगूढ़ विज्ञान(Occult science) को बढ़ावा देने का।

बहरहाल आज चारों ओर जिस हिन्दू राष्ट्र के आकार लेने की आशंका जाहिर की जा रही है, अगर वह सच का रूप धारण कर लेता है तो देश में संविधान की जगह हिन्दू धर्माधारित राज्य-व्यवस्था ले लेगी, जिससे देश फिर उस वर्ण-व्यवस्था की राह पर चल निकलेगा, जिसमें शूद्रातिशूद के रूप गण्य देश की विशालतम आबादी हजारों साल से शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रही। ऐसा होने पर मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या उस बिन्दु पर पहुँच जाएगी, जिसकी कल्पना इक्कीसवीं सदी में दुष्कर है।

बनानी होगी निम्न क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की रणनीति

एच.एल. दुसाध (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)   लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

बहरहाल जिस हिन्दू राष्ट्र का वर्षों से शोर सुनाई पड़ रहा था, आज की तारीख मे उसके लक्षण उभरने लगे हैं। यदि कोई ध्यान से देखे तो नजर आएगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं,उनमें 80 -90 प्रतिशत फ्लैट्स वर्ण - व्यवस्था सुविधाभोगी वर्ग के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की हैं. चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाडियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल्स प्राय: इन्हीं के हैं.

फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है. संसद - विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं. शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में वर्ण- व्यवस्था के सुविधाभोगी वर्ग की विराट उपास्थिति भीषण आर्थिक और सामाजिक विषमता का ही लक्षण है, जिसके उत्तरोतर बढ़ते जाने की संभावना है. इसके शिखर पर पहुंचने शूद्रातिशूद्रों की जी कारुणिक स्थिति होगी उसके सामने कोरोना- फोरोना और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बड़ी हल्की लगेगी. क्योंकि कोरोना और ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम सबको मिलकर झेलना होगा किन्तु,हिन्दू राष्ट्र में पैदा होने वाली विषमता का भुक्तभोगी होगा आज का बहुजन समाज.

अगर बहुजन इससे पार पाने के लिए इच्छुक हैं तो उन्हे कोरोना उत्तरकाल में निम्न क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की परिकल्पना में अभी से निमग्न होना होगा.

  • सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों; 2- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी; 4- सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; 5- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन; 6- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि; 7- देश –विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जानेवाली धनराशि; 8- प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों; 9- रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं 10- ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधासभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों;विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्रियों के कार्यालयों के कार्यबल इत्यादि..

एच.एल. दुसाध

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)

 

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